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पत्रकार बने राहुल गांधी अब उद्योगपतियों से सवाल कर रहे हैं
शकील अख्तर
अपने परदादा पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्रकार वाली भूमिका में आते राहुल गांधी अच्छे लग रहे हैं। यह भी संयोग है कि नेहरू को भी संघर्ष की राजनीति में ऐसे ही अस्वीकार भाव से देखा गया था जैसा राहुल के साथ
पार्टी के अंदर और बाहर हो रहा है। यहां तुलना करना उद्देश्य नहीं है। न ही नेहरू जैसे दूरदृष्टि वाले नेता से किसी की तुलना हो सकती है। मगर पत्रकार बनने वाली बात में गजब की समानता है। नेहरू लेखक थे, विचारक थे, आजादी की लड़ाई के सिपाही थे। मगर उससे पहले वे जब पढ़ते थे और इंग्लैंड से वकालत की डिग्री लेकर लौटे तो उस समय के देश के सबसे मंहगे और कुलीन वकील पंडित मोतीलाल नेहरू के सुकुमार राजदुलारे थे।
जब जवाहरलाल पहली बार गांधीजी के साथ थर्ड क्लास के डिब्बे में बैठे तो मोतीलाल नेहरू वकालत छोड़ चुके थे और पूरी तरह गांधी जी के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो चुके थे। जवाहर को जिन्हें बहुत लाड़ प्यार से पाला था थर्ड क्लास में बैठे देखकर पंडित मोतीलाल की आंखों में आंसू आ गए। बापू से कहा कि मैं फिर से प्रेक्टिस शुरू कर दूंगा। बहुत पैसा कमाकर आपको दूंगा। बस यह थर्ड क्लास का सफर छोड़ दीजिए। न बापू मानने वाले थे और न जवाहर। और शायद जिद के मामले में जवाहर उस दौर के सबसे जिद्दी नेताओं में से एक थे। दृढ़ संकल्प। ऐसे ही नेहरू के अख़बार निकालने की जिद थी। उस समय सारे अंग्रेजी अखबार अंग्रेजों के साथ थे।
स्वतंत्रता संग्राम की खबरें तोड़ मरोड़कर पेश की जाती थीं। अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों पर उपद्रव फैलाने के आरोप लगाए जाते थे। मुंशी प्रेमचंद को लिखने की वजह से सरकारी नौकरी छोड़ना पड़ी थी। तब नेहरू ने 1938 में नेशनल हेराल्ड शुरू किया था। आजादी के आंदोलन के प्रचार प्रसार में नेशनल हेराल्ड का कितना बड़ा योगदान रहा यह खुद कांग्रेस भी कभी सही से नहीं बता पाई। अभी पांच साल पहले जब सुब्रमण्यम स्वामी नेशनल हेराल्ड के पीछे पड़े थे और सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को कोर्ट से जमानत लेना पड़ी थी तब हमने नेशनल हेराल्ड के गौरवशाली इतिहास पर एक लेख लिखा था। आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को नेहरू द्वारा शुरू किए नेशनल हैराल्ड के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम था। सिवा इसके कि उसके पास आईटीओ, बहादुरशाह जफर मार्ग पर एक बड़ी बिल्डिंग है। कैसे नेशनल हैराल्ड, कौमी आवाज, नवजीवन में नेहरू ने संपादकों को आजादी दी थी?
कैसे यह अख़बार खत्म हुए? कैसे फिर वापस शुरू होने पर निकल रहे हैं? इन पर पत्रकारिता के इतिहास में लिखा जाना चाहिए। वह इसलिए भी जरूरी है कि बाकी राजनीतिक दलों के अख़बार कितने नियमित निकल रहे हैं। जबकि बाकी राजनीतिक दलों के अखबारों का आजादी के पहले कोई अस्तित्व ही नहीं था। न बाद में ही पत्रकारिता के इतिहास में हैराल्ड जैसा योगदान रहा। अभी तीन दशक पहले तक कहीं से भी पत्रकारिता करने की इच्छा लेकर आए युवा को नेशनल हैराल्ड में काम मिल जाता था। अंग्रेजी के तमाम बड़े पत्रकारों का पहला अख़बार या ट्रेनिंग सेंटर नेशनल हैराल्ड रहा।
खैर अब तो नेहरू का अख़बार अतीत की चीज बन गया मगर इस लाकडाउन के दौरान जब सारी गतिविधियां बंद हैं और लोग अपने विभिन्न कामों या शौकों के बारे में बता रहे हैं तब राहुल गांधी का अचानक एक पत्रकार के रूप में प्रकट होना सुखद आश्चर्य जैसा रहा। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि आज पत्रकारिता खुद ही अपना अस्तित्व बचाने की कठिन लड़ाई में फंसी है।
विश्वसनीयता का संकट है। लेखन के खतरे हैं। और सबसे बड़ी बात कि बड़े अख़बार छापने को तैयार नहीं। कुछ साहसी अख़बार ही जनता की आवाज उठाने की हिम्मत कर रहे हैं। पत्रकारिता नौकरी या बिजनेस नहीं हो सकती। पत्रकारिता का मतलब कमजोर की आवाज उठाना ही है। समृद्घ अमेरिका से लेकर भारत तक में पत्रकारिता सरकार और व्यवस्था का भौंपू नहीं हो सकती। मूक जनता का आवाज उसे बनना ही पड़ेगा। देश और समाज के सामने खड़े सवालों से वह मुंह चुराकर केवल सरकारका गुणगान नहीं कर सकती। लोगों के जानने के अधिकार के लिए ही उसका जन्म हुआ है। वह सत्य का वाहक है। उसे वह सब बताना होगा जो जनता जानना चाहती है। सूचना को दबाने या एक पक्षीय पेश करना आज लंबे समय तक संभव नहीं है। सोशल मीडिया से लेकर नए नए जरिए अपने आप विकसित होने लगे हैं।
ऐसे में राहुल ने सबसे पहले रघुराम राजन का इंटरव्यू लेकर वह सवाल उठाया कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत है कि वह इस लाकडाउन के दौर में मजदूर और छोटे एवं मध्यम उद्योगों ( एमएसएमई सेक्टर) की सहायता कर सके। तो दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों में गिने जाने वाले राजन ने कहा कि हां हम यह खर्चा उठा सकते हैं। उसके बाद ही 20 लाख करोड़ का पैकेज आया यह अलग बात है कि वह किसको कैसे दिया गया। मगर देश में एक माहौल बना कि भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी है कि वह किसी भी संकट से निपट सकती है।
राहुल के इस इंटरव्यू से पहले अंतरराष्ट्रीय ख्याति के तीन सबसे प्रमुख भारतीय रघुराम राजन, अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी एक अख़बार में संयुक्त रूप से एक आर्टिकल लिखकर यह सारी बातें उठा चुके थे मगर जब यही बात राहुल के साथ इंटरव्यू की शक्ल में आई तो बहुत ज्यादा लोगों तक पहुंची। खासतौर पर उन तक जो नीतियां बनाते हैं। राहुल की इस इंटरव्यू श्रंखला से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि राजन के बाद नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी फिर हेल्थ एक्सपर्ट डां. आशीष झा और प्रो. जान जीसेके जैसे दिग्गजों के विचार भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामने आए। और अब राहुल का उद्योगपितयों से बातचीत का नया सिलसिला तो बेहद दिलचस्प होने के साथ विस्फोटक भी साबित हो रहा है। इसी कड़ी के पहले इंटरव्यू में राजीव बजाज ने बताया कि उन्हें राहुल से बात करने से मना किया गया था।
बजाज कह रहे हैं कि लोग डरे हुए हैं। लेकिन फिर भी राजीव बजाज ने बात की। कहा मेरे पिता राहुल बजाज भी बोल देते हैं। यह परिवार अपने निर्भय और स्पष्टवादी विचारों के लिए जाना जाता है। राजीव बजाज के दादा जमनालाल बजाज स्वतंत्रता सेनानी थे।उद्योगपितियों में और भी ऐसे बड़े परिवार हैं जो राजनीतिक कारणों से नहीं बल्कि अपने व्यवसायिक नजरिए की बदौलत ही बिजनेस में बने हुए हैं।
दरअसल भारत एक इतना विशाल और वैविध्यपूर्ण देश है कि यहां एक दृष्टि नहीं चल सकती। जैसा कि राहुल ने प्रधानमंत्री मोदी जी के बारे में पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था कि उनका अपना स्टाइल है। मगर देश विभिन्न दृष्टियों से ही चलेगा। ऐसे ही राहुल की पत्रकार के रूप में बातचीत का यह सिलसिला उम्मीद जगाता है कि विभिन्न क्षेत्रों की उन प्रमुख हस्तियों के विचार हमारे सामने आएंगे जो सामान्यत: इस समय नहीं आ पा रहे हैं। देश को बेहतर समझने और बनाने में उन लोगों की मदद की बहुत जरूरत होती है जो समर्थ तो होते हैं मगर मुखर नहीं। खासतौर से विपरित परिस्थितियों में बड़े लोग चुप रहना ही श्रेस्यकर समझते हैं। मगर जब राहुल गांधी जैसा आदमी उनसे बात करता है तो बहुत सारी बातें जो देशहित में होती हैं निकल कर सामने आती हैं।
यहां एक बार फिर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि तुलना की बात नहीं मगर राहुल की यह श्रंखला भी नेहरू की भारत एक खोज की तरह देश में कुछ तो नए सवाल खड़े करेगी और कुछ जवाब ढूंढेगी। चाहे नेहरू की तुलना में उनमें इतिहास बोध बहुत कम हो मगर वर्तमान को समझने में कुछ तो सहायता होगी।
शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। नवभारत टाइम्स के राजनीतिक संपादक एवं चीफ आफ
ब्यूरो रहे हैं।)