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Rahul Gandhi's Bharat Jodo Yatra: राहुल को समझना आसान नहीं !
शकील अख्तर
राहुल गांधी को समझना आसान नहीं। वैसे तो किसी भी आदर्शवादी, सिद्धांतप्रिय व्यक्ति को उस समय के (समकालीन) लोगों के लिए समझना मुश्किल होता है। मगर राहुल जैसे लगातार सीखते रहने वाले, जड़ सिद्धांतों को न मानकर उनमें समय परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन करते रहने वाले आदमी को समझाना तो निशिचत ही रूप से बहुत मुश्किल है। ऐसे लोग अपने दायरों में बंधे नहीं होते वे व्यापक दृष्टिकोण रखते हैं। अपनी पार्टी, अपनी मुहिम से आगे जाकर देश की बात करते हैं।
यात्रा के सौवें दिन दौसा, राजस्थान ने राहुल का ऐतिहासिक स्वागत किया। हजारों की भीड़ सड़क पर उमड़ पड़ी। राहुल ने भी उस दिन छह साढ़े छह घंटे में 26 किलीमीटर की यात्रा नाप दी। कांग्रेसियों में भारी जोश भर गया। उम्मीदों के पर लग गए। लेकिन शाम को अचानक राहुल ने चीन पर बात करके सुविधा की राजनीति करने वाले कांग्रेसियों को सकते में डाल दिया।
प्रेस कांन्फ्रेंस थी। हम वहीं थे उसमें जयपुर में। राजस्थान से संबधित सवाल हो रहे थे। राहुल बहुत नपे तुले जवाब दे रहे थे। एक दो सवाल यात्रा के थे। जाहिर है कि राहुल को यात्रा पर बात करना पसंद आ रही थी। सौ दिन पूरे हुए थे। प्रेस कान्फ्रेंस का समय खत्म होने वाला था। कान्फ्रेंस का संचालन कर रहे कांग्रेस के कम्यूनिकेशन डिपार्टमेंट के चीफ जयराम रमेश बस एक दो सवाल और लेने के लिए अपने सामने रखी सवाल पूछने के इच्छुक पत्रकारों की लंबी सूचि पर नजर दौड़ा रहे थे कि राहुल ने धमाका कर दिया।
पत्रकारों से बोले मुझे पता था कि आप में से कोई भी मुझसे चीन पर सवाल नहीं करेगा। आप भी चीन पर बात नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री और सरकार तो चीन पर बोलती ही नहीं है आप पत्रकार भी उसकी बात करने से बचते हैं। और फिर राहुल ने कहा कि चीन लद्दाख, अरुणाचल में सिर्फ जमीन पर कब्जा, घुसपैठ ही नहीं कर रहा। वह युद्ध की तैयारी कर रहा है। फुल फ्लेजड वार (पूर्ण युद्ध)। और हमारी सरकार सोई हुई है। मैं बार बार सावधान कर रहा हूं। इस बड़े खतरे से आगाह कर रहा हूं। मगर सरकार नहीं सुन रही।
यात्रा के बीच में जब यात्रा कांग्रेस की उम्मीद से भी ज्यादा सफल हो रही है तब राहुल का अचानक चीन पर हमला कांग्रेसियों को ज्यादा पसंद नहीं आया। उन्हें लगा कि भाजपा इसका फायदा उठाकर यात्रा से लोगों का ध्यान डाइवर्ट कर देगी। ऐसा हुआ भी। भाजपा के अध्यक्ष से लेकर मंत्री तक राहुल पर टूट पड़े। अपने स्टीरियो टाइप आरोप की देशभक्त नहीं है। चीन के ऐजेन्ट हैं लगाने लगे। एक ने तो बहुत ही मजेदार बात कही कि राहुल को कांग्रेस से निकाल देना चाहिए।
वैसे एक बात है। आज तो यात्रा ने राहुल का जलवा बना दिया है। जनता से लेकर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं तक में उत्साह आया है। डर का माहौल कम हुआ है। लेकिन अध्यक्ष न बनकर एक सामान्य नेता की तरह काम कर रहे राहुल को यह याद रखना चाहिए कि जिस दिन उनकी धमक कम होगी और राजनीति में वह समय कई बार आता है कि बड़े से बड़े नेता का समय खराब आ जाता है। क्रिकेट की भाषा में बाल बेट पर आती ही नहीं है। उस समय अगर राहुल ने कोई बड़ा आदर्शवादी कदम उठाया और पार्टी को लगा कि इससे उसे परेशानी हो सकती है तो वह राहुल के खिलाफ भी कार्रवाई करने से नहीं चूकेगी। इन्दिरा गांधी को इन्हीं कांग्रेसियों ने पार्टी से निकाला था। सोनिया गांधी को जब वे कमजोर लग रही थीं तो 23 लोगों ने एक गुट बनाकर उन्हें धमकाने की कोशिश की थी।
परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाकर राहुल ने क्या हासिल किया यह तो समय बताएगा मगर यह सच है। कांग्रेस का सच कि यहां परिवार का व्यक्ति जब भी कमजोर पड़ता है उसके खिलाफ तेजी से लोग इकट्ठा होने लगते हैं। और मारने की तैयारी शुरू हो जाती है। नेहरू भी जब सरकारी विदेश दौरे पर थे कांग्रेसियों ने सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाकर उसमें संघ के सदस्यों को कांग्रेस का सदस्य बनाने का प्रस्ताव पास कर दिया था। बाद में नेहरू ने उसे वापस करवाया। सीडब्ल्यूसी कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई है। इसके 7 अक्तूबर 1949 की बैठक में आरएसएस के लिए दरवाजे खोले गए थे। यहां यह बताना जरूरी है कि उससे करीब तीन महीने पहले ही संघ पर से प्रतिबंध हटाया गया था। जो उस पर सरदार पटेल तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री ने गांधी जी की हत्या के बाद लगया था।
राहुल याद रखें परिवार के किसी भी व्यक्ति को नहीं छोड़ा है। उनके पिता राजीव गांधी के खिलाफ बगावत उनके ही सबसे निकटतम लोगों ने की थी। प्रियंका गांधी के शब्दों में मेरे पिता की पीठ में खास रिश्तेदारों ( अरुण नेहरू) ने ही छुरा घोंपा था।
राजनीति में पावर ही सत्य है। अगर आप शक्तिहीन हुए तो कौन आपके खिलाफ चला जाएगा आप सोच भी नहीं सकते। इस यात्रा ने राहुल को कांग्रेस की उम्मीदों का केन्द्र बना दिया है। इसलिए सब खामोश हैं। नहीं तो जी 23 के लोगों के अलावा कांग्रेस छोड़कर गए लोग भी कुछ न कुछ बोलते। अभी तो गए हुए लोग उम्मीद करते हैं कि वहां अगर ज्यादा अपमान हुआ, नहीं सह पाए तो वापस आ जाएंगे। मगर वापस तभी आएंगे जब कांग्रेस सत्ता में होगी या सत्ता पाने के करीब। राहुल को अपने आत्मसम्मान के लिए और कांग्रेस के भविष्य के लिए यह याद रखना होगा कि अगर राजनीति में हैं तो राजनीति करना पड़ेगी। चुनाव जीतना पड़ेंगे। अभी एक हिमाचल, छोटा सा राज्य जीतने पर कैसा खुशी का माहौल बना था यह याद रखना पड़ेगा। खुश राहुल भी हैं। अभी जयपुर में पत्रकारों से कह रहे थे कि हमें हिमाचल जीतने की बधाई नहीं दोगे?
1969 में जब इन्दिरा गांधी के खिलाफ मुहिम चलाई तब वे प्रधानमंत्री थीं। इसलिए वे परास्त नहीं हुईं। उनके पास सत्ता भी थी और जन समर्थन भी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण का ऐतिहासिक कदम उन्होंने तभी उठाया था। तभी पुराने कांग्रेसियों से लड़ते हुए कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी संजीवा रेड्डी के खिलाफ निर्दलीय वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाया था। जगजीवन राम को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था। वही जगजीवन राम जब इन्दिरा 1977 का चुनाव हार गईं तो उन्हें छोड़कर जनता पार्टी के साथ चले गए थे।
कांग्रेस का इतिहास बहुत दिलचस्प और उतार चढ़ाव से भरा हुआ है। आजादी के आंदोलन में उसकी नेतृत्वकारी भूमिका एक अलग गौरवशाली इतिहास है। मगर दूसरी तरफ सत्ता जाते ही छटपटाने लगना कांग्रेसियों का एक अलग काला इतिहास है। अभी आठ, साढ़े आठ साल में ही राहुल ने देखा कि कैसे कैसे लोग कांग्रेस छोड़कर चले गए। घर बैठ गए। और खुद उनके दोस्त होने का दावा करने वाले विश्वासघात कर गए।
राहुल राजनेता ( स्टेट्समेन) की तरह व्यवहार करें। मगर यह याद रखें कि पार्टी राजनीतिक है। और अगर पार्टी कमजोर हुई तो वे भी प्रभावहीन हो जाएंगे। पार्टी को उनसे और उन्हें पार्टी से ताकत मिलती है। यह अन्योन्याश्रित संबंध है। अकेले मसीहा वे नहीं बन सकते। यात्रा सफल करें। चुनाव जीतें। तभी अपने आदर्शों को क्रियान्वित कर पाएंगे। नेहरू जी ने देश का नवनिर्माण किया। नई वैज्ञानिक चेतना दी प्रधानमंत्री बनकर। नहीं तो आजादी के आंदोलन का उनका इतिहास बस कई लोगों के साथ जुड़ा हुआ ही रह जाता। एक अध्याय में बहुत सारे नेताओं के साथ संयुक्त। नेहरू की दूसरी पारी प्रधानमंत्री बनने वाली ही ज्यादा चमकदार और देश को बनाने वाली रही।