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शकील अख्तर
कांग्रेस को आडंबर की राजनीति से बचना चाहिए। नए साल में कांग्रेस को कई विधानसभा चुनाव लड़ना हैं। 9 राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल पूरा हो रहा है और दसवें जम्मू कश्मीर में होने की भी संभावना बन रही है। राहुल यहीं अपनी यात्रा का समापन 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर कर रहे हैं। गणतंत्र दिवस मतलब भारत का संविधान लागू होने का दिन। जिसने चुनाव और दूसरी लोकंतात्रिक व्यवस्थाएं दीं
इन विधानसभा चुनावों में उत्तर भारत, दक्षिण, नार्थ ईस्ट सब जगह के चुनाव होना है। मतलब पूरे भारत के राजनीतिक मिजाज के। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालेंड और मिजोरम के। यह होते होते पूरा 2023 निकल जाएगा। और 2024 का लोकसभा चुनाव आ जाएगा।
अगर इस बार भी कांग्रेस आधे अधुरे मन से लड़ी और मोदी जी की हैट्रिक हो गई तो फिर राहुल को चुनाव हमेशा के लिए भूल जाना चाहिए। और जैसा कि अभी कांग्रेस बार बार कहती है को यह यात्रा राजनीतिक नहीं है तो फिर उसे अपने आपको राजनीति दल कहना बंद करके खुद को किसी एनजीओ या सामाजिक संगठन में परिवर्तित हो जाना चाहिए।
अगर कांग्रेस राजनीति को बदलने की यात्रा नहीं कर रही तो उसे हिमाचल के सभी कांग्रेसी विधायकों को राजस्थान में यात्रा के दौरान बुलाने की क्या जरूरत थी? इसीलिए बुलाए ना कि वहां सरकार बनी है। सत्ता पक्ष के विधायक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गुजरात के भी विधायक बुलाए जाते। मगर वहां कांग्रेस बुरी तरह हारी है। और खुद पूरी ताकत से चुनाव नहीं लड़ने के कारण हारी है इसलिए वहां के जो कुछ विधायक जीते भी हैं उन्हें कहीं बुलाकर दिखाने या यात्रा में साथ लेकर चलने की जरूरत महसूस नहीं की गई।
विजय ही अंतिम सत्य है। हारा हुआ सेनापति चाहे जितना अच्छा लड़ा हो उसकी सेना ही उसकी आलोचना करना शुरू कर देती है। 2019 के लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल देख चुके हैं। पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था। पार्टी के लोग खुल कर विरोध में आ गए थे। 23 ने तो हस्ताक्षर करके कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखा था मगर कई और बड़े नेता भी थे जो इस मुहीम के पीछे थे। राहुल को निश्चित ही रूप से मालूम होगा। और अगर नहीं मालूम है तो यह उनके नजदीकी लोगों की बहुत बड़ी राजनीतिक अक्षमता है।
वह हार के बाद का मंजर था। और अब हिमाचल की जीत और यात्रा की सफलता का माहौल क्या है कि जम्मू कश्मीर में गुलामनबी आजाद के सबसे बड़े समर्थक नेताओं सहित करीब सवा सौ लोगों ने पार्टी छोड़ दी। वे कह रहे हैं कि जब फारूख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और दूसरे विपक्षी नेता राहुल का जम्मू कश्मीर में प्रवेश के वक्त स्वागत करने जाएंगे तो हम क्यों नहीं? राहुल के स्वागत के लिए उन्होंने आजाद और उनकी पार्टी को छोड़ दिया।
कोई बड़ा आश्चर्य नहीं कि जम्मू कश्मीर में आजाद भी यात्रा के साथ चलते नजर आएं। अभी पूरा एक महीना है। आजाद की पार्टी में और विद्रोह होगा। उनके साथ जाने वाले थे तो मूल कांग्रेस के ही। ताराचंद सबसे बड़े नेता थे। उप मुख्यमंत्री रहे थे। गठबंधन सरकार में जब आप छोटे पार्टनर हों तो उप मुख्यमंत्री से बड़ी कुर्सी कोई नहीं होती है। तारचंद वही थे। उमर अब्दुल्ला की सरकार में उप मुख्यमंत्री। दलित नेता हैं और विधानसभा अध्यक्ष भी रहे हैं। वे आजाद के पास से सवा सौ लोग लेकर वापस आए हैं।
राहुल की यात्रा की चमक ने उनकी आंखें खोल दीं। सफलता चीज ही ऐसी होती है। और असफलता का माहौल ऐसा कि यात्रा शुरू होने से पहले आजाद कांग्रेस मुख्यालय में आकर प्रेस कान्फ्रेंस में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को बहुत ही हिकारत के साथ बेचारी सोनिया बोलते हैं। ईडी की पूछताछ पर मोदी सरकार से कहते हैं क्यों इस बेचारी को परेशान कर रहे हो। कांग्रेसी तो अपने नेता का अपमान सुनकर उल्टे खुश होते हैं। किसी ने आजाद से कुछ नहीं कहा। मगर वे ही आजाद अब खुद लाचार बन गए हैं। जम्मू कश्मीर में पार्टी पूरी तरह बन भी नहीं पाई और टूटना शुरू हो गई। वहां जनता में तो कोई पूछ नहीं रहा और जो नेता साथ गए थे वे भी भाग रहे हैं।
राहुल को यही समझना होगा। यात्रा के कई सबक हैं। अगर राहुल के नजदीकी लोगों में हिम्मत और राजनीतिक समझ है तो वे उसके असली परिणाम बताएंगे। नहीं तो वे भी यात्रा के गैर राजनीतिक स्वरूप का महिमामंडन करके राहुल और कांग्रेस को लांग टर्म नुकसान पहुंचाएंगे। आज भी बहुत सारे कांग्रेसी हैं जो विनोबा भावे के भूदान आंदोलन की प्रशंसा बड़े भावुक होकर करते हैं। लेकिन उनमें से किसी के पास आंकड़े नहीं है कि कितनी विवादास्पद और कई जगह सरकारी, खुद गरीब, दलित की ही भूमि लोगों ने झूठी वाह वाही के लिए दान कर दी। और न ही आज कोई यह बता सकता है कि दान में मिली उस भूमि के कितने गरीब, दलित, कमजोर, भूमिहीन वास्तविक कब्जाधारी बन पाए।
भारत में मेढ़ की जमीन के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी मुकदमे चलते हैं। फौजदारियां होती है। भाई भाई में दुश्मनी हो जाती है। यहां कोई जमीन दान देगा? हां कुछ छोटे काश्तकारों ने जरूर दी। मतलब दान भी गरीब से ही लिया। उसकी दो रोटी में से एक ले ली। यह अन्याय था। जुल्म।
कांग्रेस की मूल रीति और नीति गरीब समर्थक की रही है। गरीब को भावुक बनाकर उसे भटकाने की नहीं। उसकी मूल समस्याओं को दूर करना होगा। जिन पर राहुल रोज बात कर रहे हैं। बेरोजगारी क्यों है? मंहगाई पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जा रहा? सरकारी चिकित्सा सेवाएं और सरकारी शिक्षा को क्यों खत्म किया जा रहा है?
राहुल ने दिल्ली पहुंचकर लाल किले से बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि वे हिन्दु मुसलमान में आपको उलझाकर आपकी जेब काट रहे हैं। आपकी जेब का पैसा अंबानी अडानी की जेब में पहुंचा रहे हैं। मीडिया पर भी लगाम है और सरकार पर भी असली मालिक अंबानी अडानी हैं।
राहुल ने समस्या को पकड़ा तो सही है। मगर इसका इलाज कैसे होगा? अच्छा डाक्टर केवल रोग को पकड़ता ही नहीं है उसका निदान भी जानता है। राहुल और कांग्रेस अगर अति आदर्शवादी, गैरराजनीतिक रवैया अपनाएंगे तो यह एएच व्हीलर से लाई दो किताबें पढ़कर होम्योपैथी की सफेद गोलियां दे रहे डाक्टर जैसा इलाज होगा।
समस्याएं गंभीर हैं। राहुल ने खुद लाल किले के सामने से बोला सब बिक गया। यह लालकिला भी। और ताजमहल भी बिक जाएगा। सही बात है। तो उसे रोकेंगे कैसे? जो सरकारी संपत्तियां बिक गईं उसे वापस कैसे लाएंगे? युवाओं को नौकरियां कैसे देंगे? किसान की मजदूर की मदद कैसे करेगे? शिक्षा और चिकित्सा वापस सरकारी क्षेत्र में कैसे लाएंगे? और सबसे बड़ी बात इस लोकतंत्र को जिन्दा कैसे रखेंगे?
केवल सत्ता पाकर ही। चुनाव जीतकर ही। अभी राजस्थान सरकार ने कह दिया कि 500 रु. में गैस सिलेंडर मिलेगा। कैसा सकारात्मक माहौल बन गया। गरीबों में खुशी की लगर दौड़ गई।
और कांग्रेस अगर ऐसी बात करेगी कि हमें राजनीति से कोई मतलब नहीं है। चुनाव में राहुल नहीं जाएंगे। तो यह किसके फायदे की बात है? क्या जनता के? उसे कोई आध्यात्मिक नेता चाहिए? वे तो बहुत हैं। राहुल से वे इसकी उम्मीद नहीं करते। राहुल से तो वे रोजी रोटी की मदद की उम्मीद करते हैं। गरीब समर्थक नीतियों की। और उन्हें लागू करने की।
और वह कैसे होगा? कांग्रेस खुद सोच ले। राहुल को विनोबा भावे बनाकर या इन्दिरा गांधी जैसा बैंकों का राष्ट्रियकरण, राजाओं के प्रीवीपर्स, प्रिवलेज खत्म करना, हरित क्रान्ति करना, परमाणु परीक्षण करके दुनिया को हिला देना, दुश्मन देश के दो टुकड़े कर देना जैसे अभूतपूर्व काम करके।
बदलाव करना है तो सत्ता चाहिए। सत्ता चाहिए तो चुनाव मजबूती से लड़ना है। राहुल को बस यही समझना है।