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खुलासा: यशवंत सिन्हा की पीएम नरेंद्र मोदी से क्यों नहीं बनी?

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29 Oct 2019 11:32 AM GMT
खुलासा: यशवंत सिन्हा की पीएम नरेंद्र मोदी से क्यों नहीं बनी?
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1991 के लोकसभा चुनाव की बात है. पटना में चंद्रशेखर सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा जब चुनाव प्रचार करके लौटे तो उन्होंने अपने घर के बाहर अपने समर्थकों के बीच वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को अपना इंतज़ार करते पाया.

वो उनके हस्ताक्षर के लिए एक फ़ाइल ले कर आए थे. भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति को देखते हुए चंद्रशेखर और यशवंत सिन्हा ने तय किया था कि भारत स्टेट बैंक में रखे 20 टन सोने को बैंक ऑफ़ इंग्लैंड में गिरवी रखेगा ताकि विदेशी भुगतान के लिए ज़रूरी 40 करोड़ डॉलर जुटाए जा सकें.

यशवंत सिन्हा ने फ़ाइल पर दस्तख़त कर उसे प्रधानमंत्री के लिए 'मार्क' कर दिया. उस दिन उन्होंने अपने आपसे प्रण किया कि अगर उन्हें मौका मिला तो वो भारत को आर्थिक रूप से इतना शक्तिशाली बनाएंगे कि भारत दूसरे देशों से कर्ज़ लेने के बजाए उन्हें कर्ज़ देगा. सात साल बात ये मौका आया जब अटल बिहारी वाजपेई ने यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया.

बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से तक़रार

यशवंत सिन्हा 1960 में आईएएस के लिए चुने गए और पूरे भारत में उन्हें 12वाँ स्थान मिला. आरा और पटना में काम करने के बाद उन्हें संथाल परगना में डिप्टी कमिश्नर के तौर पर तैनात किया गया. उस दौरान बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने वहाँ का दौरा किया और यशवंत सिन्हा की उनसे झड़प हो गई.

यशवंत सिन्हा याद करते हैं, 'वहाँ खड़े कुछ लोग मुख्यमंत्री से अपनी शिकायत करने लगे. हर शिकायत के बाद मुख्यमंत्री मेरी तरफ़ मुड़ते और मुझसे स्पष्टीकरण माँगते.' 'मैं हर संभव उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता. लेकिन उनके साथ आए सिंचाई मंत्री जो कि कम्युनिस्ट पार्टी से थे, मेरे प्रति आक्रमक होते चले गए. आखिरकार मेरा धैर्य जवाब दे गया और मैंने मुख्यमंत्री की तरफ़ देख कर कहा, 'सर मैं इस व्यवहार का आदी नहीं हूँ.'

कमरे से वॉक आउट किया

यशवंत सिन्हा आगे बताते हैं, 'मुख्यमंत्री मुझे दूसरे कमरे में ले गए और स्थानीय एसपी और डीआईजी के सामने मुझसे कहा कि मुझे इस तरह बरताव नहीं करना चाहिए था.' 'मैंने जवाब दिया कि आपके मंत्री को भी मेरे साथ इस तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए था. इस पर महामाया प्रसाद सिन्हा गर्म हो गए और उन्होंने मेज़ पर ज़ोर से हाथ मार कर कहा कि 'आपकी बिहार के मुख्यमंत्री से इस तरह बात करने की हिम्मत कैसे हुई?' आप दूसरी नौकरी की तलाश शुरू कर दीजिए.'

'मैंने कहा, 'मैं शरीफ़ आदमी हूँ और चाहता हूँ कि मुझसे शराफ़त से पेश आया जाए. जहाँ तक दूसरी नौकरी ढूंढने की बात है, मैं एक दिन मुख्यमंत्री बन सकता हूँ, लेकिन आप कभी आईएस अफ़सर नहीं बन सकते. मैंने अपने कागज़ उठाए और कमरे से बाहर निकल आया.'

ललितनारायण मिश्र के मँहगे चश्मे

थोड़े दिनों बाद यशवंत सिन्हा का पटना तबादला कर दिया गया. मुख्यमंत्री के साथ उनकी नोकझोंक की ख़बर पूरे बिहार में फैल गई. कुछ दिनों के बाद यशवंत सिन्हा को पश्चिम जर्मनी के भारतीय दूतावास में फ़र्स्ट सेक्रेट्री के तौर पर भेजा गया.

उसी दौरान भारत के वाणिज्य मंत्री ललित नारायण मिश्र ने अपने स्पेशल असिस्टेंट एनके सिंह के साथ जो कि बाद में वित्त आयोग के अध्यक्ष बने, पश्चिम जर्मनी का दौरा किया. यशवंत सिन्हा बताते हैं, 'उस समय मैं वहाँ वाणिज्य का काम देखता था. लंदन से एनके सिंह का मेरे पास फ़ोन आया कि ललित बाबू दिल्ली जाते हुए फ़्रैंकफ़र्ट में कुछ देर रुकेंगे. उनको जर्मन चश्मे के फ़्रेमों का बहुत शौक है.'

'आप बाज़ार से जा कर उनके लिए कुछ फ़्रेम खरीद लीजिए. जब मैं फ़्रेम खरीदने गया तो मुझे पता चला कि वो बहुत मँहगे हैं. फिर भी मैंने वो फ़्रेम खरीद लिए. जब मैंने हवाई जहाज़ के अंदर जा कर उनको वो फ़्रेम दिए तो उन्हें वो बहुत पसंद आए लेकिन मुझे ये चिंता खाए जा रही थी कि मंत्री महोदय उनका भुगतान करेंगे भी या नहीं.'

'काफ़ी देर बातचीत के बाद भी उन्होंने पैसों का कोई ज़िक्र नहीं किया. मैंने मन ही मन सोच लिया कि मुझे मेरे पैसे अब नहीं मिलने वाले. लेकिन जैसे ही विमान के चलने की घोषणा हुई और मैं विमान के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगा, ललित नारायण मिश्रा ने मुझसे पूछा इन फ़्रेमों के लिए कितने पैसे देने पड़े आपको?

'मैंने तुरंत उनका दाम बताया. मिश्र ने एनके सिंह से कहा कि मुझे उसके बराबर भुगतान अमरीकी डॉलर में कर दें. आखिर में मुझे उससे भी ज़्यादा पैसे मिले जितने मैंने ख़र्च किए थे.' 'मैंने वो डॉलर फ़ौरन अपनी जेब में रखे और अपनी ख़ैर मनाता हुआ विमान से नीचे उतर गया. मेरे कहने का मतलब ये था कि राजनेता हमेशा आपको निराश नहीं करते. '

कर्पूरी ठाकुर की अव्यवस्था और सादगी

जर्मनी से लौटने के बाद उन्हें वापस बिहार भेजा गया और बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें अपना प्रधान सचिव नियुक्त किया. दिलचस्प बात ये थी कि मुख्यमंत्री सचिवालय में मुख्यमंत्री के सचिव के लिए तो एक कमरा था, लेकिन खुद मुख्यमंत्री के लिए कोई कमरा नहीं था. जब भी वो सचिवालय आते, वो सिन्हा की ही मेज़ और कुर्सी पर बैठकर अपना काम करते.

1977, जब कोई पार्टी नहीं, 'जनता' लड़ रही थी चुनाव

यशवंत सिन्हा याद करते हैं, 'कर्पूरी ठाकुर बहुत ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे. उनके साथ काम करके बहुत आनंद आया. ये सही है कि वो बहुत ही अव्यवस्थित व्यक्ति थे. वो हमेशा लोगों से घिरे रहते थे और उनके पास सरकारी कामकाज के लिए कोई वक्त नहीं रहता था.' 'हमने तय किया कि हम हर दिन उन्हें पटना के किसी डाक बंगले में ले जाएंगे, जहाँ वो शाँति से फ़ाइलों पर दस्तख़त कर सकें. हम उन्हें अक्सर बिहार मिलिट्री पुलिस के फुलवारी शरीफ़ वाले गेस्ट हाउज़ ले जाते थे जहाँ कोई उनसे मिलने नहीं पहुंच सकता था.'

'वो अपनी पत्नी को गाँव में ही रखते थे. एक बार मुझे उनके गाँव जाने का मौका मिला था. वहाँ पर हमारे बैठने के लिए एक कुर्सी तक नहीं थी. उन्होंने ज़ोर दिया कि हम चाय पी कर जाएं. उन्होंने अपने हाथों से लकड़ी के चूल्हे में चाय बनाई. वो झोपड़ी में रहती थीं जहाँ आधुनिक जीवन की कोई भी चीज़ मौजूद नहीं थी.'

यशवंत सिन्हा आगे याद करते हैं, 'कर्पूरी ठाकुर बहुत बड़े हिंदी दाँ थे. उनके ज़माने में हर सरकारी काम हिंदी में किया जाता था, हाँलाकि उन्हें खुद अच्छी अंग्रेज़ी आती थी. केंद्रीय मंत्रियों और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री को भेजा जाने वाला हर पत्र हिंदी में होता था, लेकिन साथ ही उसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी भेजा जाता था.'

आईएएस से इस्तीफ़ा

इसने महत्वपूर्ण पदों पर रहने के बावजूद यशवंत सिन्हा आईएएस से इस्तीफ़ा दे कर जनसेवा करने का फ़ैसला किया. वो जयप्रकाश नारायण से बहुत प्रभावित थे, लेकिन जेपी चाहते थे कि वो तब तक आईएएस से इस्तीफ़ा न दें, जब तक उनकी आजीविका का प्रबंध न हो जाए.

यशवंत सिन्हा बताते हैं, 'मुझे निराशा हुई जिस तरह दुमका में मेरे साथ मुख्यमंत्री ने व्यवहार किया था. मुझे लोगों ने मेरी बाकी ज़िम्मेदारियों के साथ ये कह कर कि एशियाई खेल आ रहे हैं दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन का अध्यक्ष बना दिया. फिर वहाँ एक नेता आ गए. उन्होंने वहाँ की फ़िज़ा बिगाड़ दी.'

'उनसे हमारी पटी भी नहीं. नतीजा ये हुआ कि वहाँ हड़ताल हो गई और मेरे लिए वो तैनाती ज़बरदस्ती गले का बोझ बन गई. इससे भी मुझे बहुत निराशा हुई. आईएएस में अक्सर होता है कि कोई भी नेता आपके साथ दुरव्यवहार कर सकता है और आप 'पब्लिकली' उसके ख़िलाफ़ बोल नहीं सकते हैं.'

'ये सब सोच कर मैंने तय किया कि अब आईएएस छोड़ देते हैं. तब तक मेरे बच्चे 'सेटिल' हो गए थे, बेटी की शादी हो गई थी और मैं पेंशन पाने के योग्य भी हो गया था. मेरी तब 12 साल की नौकरी बची थी. मैंने आईएएस से इस्तीफ़ा दे दिया.'


विश्वनाथ प्रताप सिंह का दिया राज्य मंत्री का पद ठुकराया

आरंभिक झिझक के बाद उन्होंने जनता दल की सदस्यता गृहण कर ली. वो चंद्रशेखर के बहुत करीब हो गए. जब विश्वनाथ प्रताप सिंह सत्ता में आए तो उन्होंने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री के रूप में जगह दी, लेकिन उन्होंने इस पद को स्वीकार नहीं किया. यशवंत सिन्हा याद करते हैं, 'जब मैं राष्ट्रपति भवन में घुसा तो मुझे कैबिनेट सचिव टीएन सेशन का लिखा एक पत्र दिया गया. उसमें लिखा था कि राष्ट्रपति ने मेरी राज्य मंत्री के तौर पर नियुक्ति की है. पढ़ते ही मेरा दिल बैठ गया.'

'मैंने 10 सेकेंड के अंदर फ़ैसला किया कि मैं इस पद को स्वीकार नहीं करूँगा. मैं तुरंत पलटा. अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और उससे दृढ़ आवाज़ में कहा, 'तुरंत वापस चलो.' 'पार्टी में मेरी वरिष्ठता को देखते हुए और चुनाव प्रचार में मैंने जिस तरह का काम किया था, वी पी सिंह ने मेरे साथ न्याय नहीं किया था. सबसे बड़ी बात ये थी कि मुझे जूनियर मंत्री का पद दे कर उन्होंने मेरे नेता चंद्रशेखर का भी अपमान किया था.'

भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बने

इसके बाद जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उन्हें वित्त मंत्री बनाया. लेकिन वो सरकार बहुत अधिक समय तक चली नहीं. सरकार गिरने के कुछ समय बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ले ली जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

य़शवंत सिन्हा बताते हैं, 'चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी समाप्ति की तरफ़ थी. उस समय मेरे पास दो विकल्प थे. एक था कांग्रेस और दूसरी भारतीय जनता पार्टी. नरसिम्हा राव बहुत चाहते थे कि मैं कांग्रेस में आऊँ. उनसे कई बार मुलाकात भी हुई. लेकिन मुझे कांग्रेस पार्टी में जाना अच्छा नहीं लगा. एक 'कॉमन' मित्र ने मेरी मुलाकात आडवाणी जी से करवाई लेकिन पार्टी में जाने की कोई बात उनसे नहीं हुई. उसी ज़माने में जनता दल के सभी घटकों को एक करने की मुहिम भी चल रही थी.

यशवंत सिन्हा आगे बताते हैं, ' एक दिन मैं और मेरी पत्नी हवाई जहाज़ से राँची से दिल्ली आ रहे थे. पटना में विमान में लालू प्रसाद यादव सवार हुए. मैंने उन्हें प्रणाम किया लेकिन उन्होंने प्रणाम का जवाब देना तो दूर मुझे पहचानने तक से इंकार कर दिया. दिल्ली में जब जहाज़ उतरा तो मेरे बगल में खड़े रहने के बावजूद उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की. मेरी पत्नी ने मुझसे कहा कि लालू ने आपकी बहुत उपेक्षा की है. लालूजी की इस हरकत को देखते हुए मैंने घर पहुंच कर तुरंत आडवाणीजी को फ़ोन कर कहा कि मैं आपसे तुरंत मिलना चाहता हूँ. कुछ दिनों बाद आडवाणी ने मुझे भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लिया और उन्होंने एक प्रेस कान्फ़्रेंस करके आलान किया कि मेरा बीजेपी में जाना पार्टी के लिए दीवाली गिफ़्ट है.'

क्रेमलिन से वॉक आउट

1998 में जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो आरएसएस ने जसवंत सिंह के मंत्री बनने पर आपत्ति की, क्योंकि वो चुनाव हार गए थे. तब यशवंत सिन्हा को वित्त मंत्री बनाया गया. बाद में वो जसवंत सिंह की जगह भारत के विदेश मंत्री बने.

उसी दौरान उन्हें वाजपेई प्रतिनिधिमंडल के साथ रूस जाने का मौका मिला. यशवंत सिन्हा याद करते हैं, 'हम लोग क्रेमलिन जा रहे थे. वहाँ दो स्तरों पर बातचीत होनी थी. एक तो वाजपेई और पुतिन के बीच आमने सामने की बातचीत होने वाली थी, जिसमें मैं और ब्रजेश मिश्रा दोनों रहने वाले थे.

ब्रजेश मिश्रा वाजपेईजी की गाड़ी में उनके साथ ही बैठ गए क्योंकि रास्ते में उन्हें उनसे बात करनी थी. दूसरी गाड़ी में मैं और रूस में भारत के राजदूत रघुनाथ बैठे. वाजपेईजी की गाड़ी तो सीधे चली गई. हम लोगों को किसी दूसरे गेट पर लाया गया. वहाँ पर उन्होंने हमें कार से उतार कर हमारी सुरक्षा जाँच की. फिर उन्होंने हमें एक जगह ले जा कर बैठा दिया. मैंने कहा कि हमें बातचीत में शामिल होना है, लेकिन इसका उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा.'रूसी विदेश मंत्री ने मनाया

यशवंत सिन्हा आगे बताते हैं, ' मैंने अपने राजदूत रघुनाथ से कहा कि आप तुरंत गाड़ी मंगवाइए. मैं वापस अपने होटल जाउंगा. हम लोग उस भवन से पैदल ही बाहर निकल लिए. हमने सोचा कि अगर हमारी कार नहीं भी मिली तो हम टैक्सी ले कर अपने होटल चले जाएंगे. जब हम क्रेमलिन से वॉक आउट कर रहे थे तो दो रूसी पदाधिकारी दौड़ते हुए आए. वो माफ़ी माँगने लगे लेकिन मैंने उनकी एक नहीं सुनी और हम वापस अपने होटल पहुंच गए.

होटल पहुंचते ही रूस के विदेशमंत्री इवानोव का मेरे पास फ़ोन आया कि मुझे बहुत अफ़सोस है कि आपके साथ इस तरह का व्यवहार हुआ. मैंने कहा कि मैं भी बहुत दुखी हूँ और अब तो मैं प्रतिनिधिमंडल स्तर वाली बैठक में भी भाग लेने नहीं आ रहा हूँ. उन्होंने कहा 'नही नहीं आप आइए. मैं खुद आपको लेने आपके होटल आ रहा हूँ.' फिर वो खुद मुझे लेने आए होटल, तब मैं उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गया. जब हम लोग क्रेमलिन पहुंचे तो दोनों प्रतिनिधिमंडलों का एक दूसरे से परिचय करवाया जा रहा था. हम भी लाइन में खड़े हो गए.

वो वॉक आउट मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं भी प्रॉटोकॉल का बहुत बड़ा अनुयायी हूँ. मेरा माना है कि भारत दूसरे देशों के प्रतिनिधियों के साथ उसी तरह का व्यवहार करे जैसा दूसरे देशों में भारत के लोगों के साथ होता है. रूस में जब मेरे साथ ये घटना घटी तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाया. '

नरेंद्र मोदी से नहीं बनी

यशवंत सिन्हा ने 2009 का चुनाव जीता, लेकिन 2014 में उन्हें बीजेपी का टिकट नहीं दिया गया. धीरे धीरे नरेंद्र मोदी से उनकी दूरी बढ़ने लगी और अंतत: 2018 में 21 वर्ष तक बीजेपी में रहने के बाद उन्होंने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया.

यशवंत सिन्हा बताते हैं, 'हाँलाकि मैंने इस बात की हिमायत की थी कि मोदीजी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाए लेकिन 2014 का चुनाव आते आते मुझे इस बात का आभास हो गया था कि इनके साथ चलना मुश्किल होगा. इसलिए मैंने तय किया कि मैं चुनाव लड़ूंगा ही नहीं.

पार्टी ने मेरी जगह मेरे बेटे को उस सीट का ऑफ़र दिया. वो जीते और मोदीजी ने उन्हें मंत्री भी बनाया. हाँलाकि अब वो मंत्री नहीं हैं .2019 का चुनाव जीतने के बाद भी. इसके बाद भी मैं मोदीजी को सुझाव देता रहा. अलग अलग मुद्दों पर उन्हें पत्र लिखता रहा. हमारा उनका फ़ासला बढ़ा कश्मीर के मुद्दे को ले कर. मैं चाहता था कि काश्मीर में वाजपेईजी की नीतियों का अनुसरण हो. उनकी नीति थी इंसानियत, जमहूरियत और कश्मीरियत. 'में मानता था कि कश्मीर में सभी संबंधित पक्षों से बातचीत की जाए. वाजपेई जी के समय में हुर्रियत तक से बातचीत हुई थी.'

कश्मीर पर मतभेद

यशवंत सिन्हा आगे कहते हैं, 'जब कश्मीर बहुत अशाँत हो गया था 2016 में तो हम कश्मीर गए थे एक समूह के साथ. मैं जब कश्मीर दोबारा गया दिसंबर, 2016 में तो मुझे लगा कि एक रास्ता निकल सकता है. मैंने श्रीनगर से ही प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए फ़ोन लगा कर कहा कि मैं उने मिलना चाहता हूँ.'

'उसके बाद मैंने कई बार उनसे मिलने की कोशिश की. लेकिन उन्होंने मुझे कभी समय नहीं दिया. मैं गृह मंत्री से भी मिला. वहाँ से भी मुझे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. जब मेरे अंदर सवाल उठा कि ये लोग कश्मीर में क्यों बातचीत और शाँति का रास्ता नहीं अपनाना चाहते?'

'फिर मैंने दो साल पहले भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था. अगर उस समय मेरी बात को सुना जाता तो भारतीय अर्तव्यवस्था की वो स्थिति नहीं होती जो आज है. लेकिन बात सुनने की बात तो दूर रही, मेरे बारे में कहा गया कि ये 80 साल की उम्र में नौकरी तलाश रहे हैं.'

साभार बीबीसी

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