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रालोद के नए सियासी पैंतरे से यूपी में बढ़ेगी कांग्रेस की पूछ, बैचेन है सपा बसपा
विनीत शर्मा नादान
वर्तमान राजनीति ऐसी अनिश्चितता से भरपूर नाटक या फिल्म की तरह होती जा रही है जहां दर्शक या मतदाता अंत अंत तक यह समझ नहीं पाता कि यह सब असम्भव अब कैसे सम्भव हो गया। वैसे राजनीति में कुछ भी असम्भव नहीं है। जिस तथाकथित साम्प्रदायिक भाजपा के खिलाफ जदयू नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजद सुप्रीमो व पूर्व मुख्यमंत्री बिहार लालू यादव के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, अचानक वही भाजपा उनके लिये साम्प्रदायिक नहीं रही और उसी के साथ पुनः एनडीए सरकार का गठन कर लिया। हालांकि जब गुप्त मनोकामनाएं पूरी नहीं हुईं तो एक दिन फिर वही भाजपा धुर साम्प्रदायिक हो जाती है और महाभ्रष्ट लालू परिवार का सियासी कुनबा अचानक से गंगा में धुला पवित्र लगने लगता है। राजद नेता तेजस्वी यादव के लिये नीतीश कुमार पलटूराम से आदरणीय चाचा हो जाते हैं। फिर महागठबंधन की सरकार बन जाती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहते हैं और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी बन जाते हैं।
यदि यही संवैधानिक राजनीति है तो तौबा होनी चाहिए ऐसी सियासत से, जहां कोई वैचारिक मूल्य ही नहीं हो। जिस लालू प्रसाद के खिलाफ नीतीश कुमार-सुशील मोदी (पूर्व उपमुख्यमंत्री, बिहार) ने क्या क्या तोहमत जड़े, यदि नीतीश कुमार एक नहीं दो दो बार उनकी गोद में जा बैठे, तो मेरी राय में तो लालू प्रसाद से ज्यादा भ्रष्ट नीतीश कुमार हुआ, जिनकी कोई वैचारिक सियासत ही नहीं हैं। प्रतिष्ठित समाजवादी सियासत आज यदि ‘राजनीतिक वैश्या’ बन सिर्फ अपनी कीमत वसूलती फिरती है तो उसमें ऐसे ही अनगिनत पल्टीमार नेताओं के योगदान हैं, जिनपर संवैधानिक प्रतिबंध और न्यायिक बाध्यताएं लागू होनी चाहिए, अन्यथा नियम-कानून बेमानी व अप्रासंगिक समझे जाएंगे। आज भी लोकमानस में यह बात घर कर गई है कि नियम कानून सिर्फ गरीबों को सजा देते हैं क्योंकि अमीर तो अपने बचने के लिए उसमें सौ छिद्र पहले से ही छोड़ दिये होते हैं!
आपने एक बात और गौर की होगी कि कट्टर ईमानदार आप सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की बेईमान और भ्रष्टाचारियों की लिस्ट में शुमार लालू यादव, स्व. मुलायम सिंह यादव, सुश्री मायावती, शरद पवार, डी राजा, ओवैसी जैसे सभी नेता एक दिन ईमानदार और सच्चरित्र हो जाते हैं।
ऐसा ही वर्तमान राजनीति में देखने को मिल रहा है, जो किसी संवैधानिक कोढ़ की तरह प्रतीत हो रहा है। वहीं, कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2023 के अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने विपक्षी सियासत में ऐसा चमत्कार कर दिया कि कल तक जिस कांग्रेस को कोई भाव नहीं दे रहा था, उसके नेताओं से कोई मिलने के लिए तैयार नहीं था, उससे देशव्यापी गठजोड़ करने के लिए उसकी शर्तों पर कोई राजी नहीं था, आज उसके हालात बदल गए हैं। हालांकि, कांग्रेस की सियासी पूछ तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की सफलता के साथ ही बढ़ चुकी थी, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत से उसकी राजनैतिक मार्केट वैल्यू में अचानक उछाल आता दिख रहा है। उसका राजनीतिक मूल्य सूचकांक बढ़ गया है, जिसका असर उत्तर प्रदेश में बढ़ती सियासी हलचलों में भी नज़र आने लगा है। नतीजतन कुछ भाजपा विरोधी दलों के सुर, कांग्रेस के सुर से मिलने लगे हैं। तो क्या इसका अर्थ यह समझा जाए कि राज्य में समीकरण बदल सकते हैं और बदल भी रहे हैं? वैसे तो उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ ने जो प्रशासनिक चमत्कार दिखाए हैं, उसके दृष्टिगत विपक्षी राजनीति के मायने यहां सीमित हो गए हैं और वह सिर्फ जातीय या साम्प्रदायिक मांदों में ही महफूज बची है, क्योंकि केंद्रीय भाजपा नेता के सूबाई चहेतों की भी सियासी फितरत लगभग उन्हीं की तरह है।
दरअसल, ये पूरी राजनीतिक कवायद लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियों को लेकर है जहां नये सियासी गठबंधन बनने की सुगबुगाहट शुरू होती दिख रही है और अच्छा खासा चर्चा में बने हुए हैं पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट नेता व रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी। क्योंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लेकर उनका नज़रिया बदल चुका हैं। सूत्रों की मानें तो 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए जयंत चौधरी ने अखिलेश की सपा के सापेक्ष कांग्रेस के साथ जाने की सोच बना ली है, ऐसी बात उनके करीबियों द्वारा बतायी जा रही है। हाल ही में संपन्न निकाय चुनावों में नगर पंचायतों में राष्ट्रीय लोक दल का प्रदर्शन ठीक ठाक ही रहा है। ये और भी बेहतर हो सकता था, अगर समाजवादी पार्टी से सीट बंटवारे को लेकर अनबन न हुई होती तो। क्योंकि जिस तरह से कई स्थानों पर दोनों दलों के पदाधिकारियों ने अधिकृत प्रत्याशी के सामने खड़े विद्रोही प्रत्याशियों का साथ दिया, उसके कारण जाट लैंड की कुछ सीटें रालोद को खोनी पड़ी, वर्ना कुछ और सीटें जीती जा सकती थीं। सम्भवतया इसलिए जयंत चौधरी के दिल में कांग्रेस के प्रति नया प्यार उमड़ रहा है। इनके परिवार और दल दोनों की कांग्रेस विरोध और कांग्रेस समर्थन का एक विरोधाभासी इतिहास रहा है, लेकिन समाजवादी पार्टी से यदि ज्यादा बेहतर विकल्प कांग्रेस नजर आ रही है तो यह रालोद-कांग्रेस के लिए एक नई खुशकिस्मती की बात है। इससे कांग्रेस के प्रति सपा-बसपा के तेवर भी ढीले पड़ेंगे।
अब हम सियासी हालात पर नजर डालें तो यह परिवर्तन समझ आने लगेगा। हाल ही में कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न हुआ है। जिसमें सपा प्रमुख अखिलेश यादव और रालोद प्रमुख जयंत चौधरी दोनों को बतौर अतिथि निमंत्रण मिला था, मगर अखिलेश यादव नहीं गये लेकिन जयंत चौधरी पूरे दमखम के साथ पहुंचे हुए थे। इतना ही नहीं, इस समारोह से अखिलेश यादव ने दूरी बनाकर रखी। हालांकि इसका एक कारण अखिलेश यादव की ताई का निधन होना भी बताया गया, जिस कारण वह सैफई में ही रहे। लेकिन किसी भी सपा प्रतिनिधि का शपथ ग्रहण समारोह में शामिल न होना शक की सुई तो घुमाता ही है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव यदि कांग्रेस नेता राहुल गांधी को अपना बिग बॉस मान लेते हैं, तो यह उनकी राजनीतिक आत्महत्या ही होगी, क्योंकि दोनों अपने अपने पिता की सियासी विरासत पर पीएम मेटेरियल बन चुके हैं और अब लालू-मुलायम की तरह एक दूसरे की टांग खींचने में नहीं, बल्कि पारस्परिक सहयोग करने की राह पर अग्रसर हैं। सम्भवतया इसलिए भी कि दोनों राजनीतिक परिवारों के बीच सियासी दुर्दिन काल में वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित हो चुके हैं। वहीं, कांग्रेस के रणनीतिकारों को भी पता है कि बिहार-यूपी में यदि पुरानी हैसियत पानी है तो इन्हें ज्यादा तवज्जो देने से बचना होगा, क्योंकि यहां कांग्रेस की गहरी जड़ें भी तो इन्होंने ही खोदी है!
सूत्रों का यह भी कहना है कि जयंत चौधरी, अखिलेश यादव को भी साथ रखना चाहते हैं, लेकिन पारस्परिक शर्तों पर जो इकतरफा कतई नहीं होंगे सपा की शर्तों की तरह। आरएलडी नेता त्रिलोक त्यागी के अनुसार, जयंत चौधरी ऐसा ही चाहते हैं। इसमें सीटों का बंटवारा सहित कई मुद्दों पर चर्चा होनी है, जिसके बारे में कांग्रेस और अखिलेश यादव दोनों से बात कर कोई सर्वमान्य फार्मूला बनाने का प्रयास किया जायेगा।।लेकिन राजनीतिक के जानकारों की मानें तो यूपी में विपक्षी एकता वाली कोई भी कोशिश आसान नहीं है क्योंकि कर्नाटक में नई सरकार के शपथग्रहण में अखिलेश यादव अपनी सपा के किसी प्रतिनिधि को भेज सकते थे जो उन्होंने नहीं भेजा। इसके पीछे भी उनकी एक सोची समझी रणनीति है, जिसे वही समझते हैं, कोई और नहीं!
यहां पर यह भी ध्यान देने की बात है कि राजस्थान में कांग्रेस का रालोद से गठबंधन जारी है और इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी बरकरार रहने की पूरी पूरी सम्भावना है। साथ ही साथ रालोद, उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने, प्रसार करने के लिए कांग्रेस के साथ जाना बेहतर विकल्प मान सकता है और वह उसी सोच से आगे बढ़ भी रहा है। उसे पता है कि सियासत में कोई किसी का सगा नहीं होता है, इसलिए अपना जनाधार बढ़ाने और जनविश्वास हासिल करने की कोशिशों में वह तल्लीनता पूर्वक जुटा हुआ है।