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आरएसएस ऐसा करता है या उसके कार्यकर्ता ऐसा करते हैं, आखिर क्यों?
माजिद अली खान (राजनीतिक संपादक)
भारत में नब्बे के दशक में चली रामलहर के दौरान हिंदू अतिवादी राजनीति ने जब जोर पकड़ा था तब बहुत से हिंदुत्ववादी संगठनों की ताकत बढ़ गई थी. अतिवादी संगठनों में सबसे संगठित और काडर आधारित संगठन आरएसएस को बताया जाता है जबकि खुद आरएसएस अतिवाद से दूर राष्ट्रवादी संगठन होने की बात कहता है और सीधे तौर पर किसी अतिवादी घटना में शामिल नहीं होता जबकि दूसरे संगठन जिम्मेदार ठहरा दिए जाते हैं. इसके अलावा शिवसेना, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद व हिंदू युवा वाहिनी दूसरे बहुत सारे अतिवादी संगठन भी हिंदुत्व पर आधारित राजनीति कर रहे हैं.
हिंदू अतिवाद की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी इन संगठनों द्वारा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कराकर सत्ता पाती रही है और अब केंद्र में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर क़ाबिज़ है. भाजपा के केंद्र में सत्तासीन होने के बाद हिंदू संगठनों में आपसी प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है. सारे संगठन ज्यादा से ज्यादा अतिवाद का सहारा लेकर अपना प्रदर्शन करना चाहते हैं तथा सरकार का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहते हैं. केंद्र में मोदी सरकार के साढ़े 4 साल पूरे होने के बाद आरएसएस ने राम मंदिर का मुद्दा उछाल दिया आरएसएस प्रमुख भागवत ने मोदी सरकार से कहा कि राम मंदिर के लिए कानून बनाया जाए. हम इस बात की तह में नहीं जाना चाहते की आरएसएस को अचानक राम मंदिर की याद कैसे आ गई. हम सिर्फ इस तरफ इशारा करना चाहते हैं की आरएसएस ने मंदिर मुद्दे को हवा देने के बाद अयोध्या में भीड़ जमा करने की बात कही.
आरएसएस के इस ऐलान के बाद तुरंत शिवसेना ने भी अपने कार्यकर्ताओं को पहुंचने का ऐलान किया तथा शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अयोध्या पहुंच गए. शिवसेना ने इस कार्यक्रम को अपने नाम कर लिया इसलिए इस मामले में भी आरएसएस ने अपना रास्ता बदल दिया. इसके बाद आज 9 दिसंबर को वीएचपी ने धर्म संसद का ऐलान किया और दिल्ली में रामलीला मैदान में भीड़ को इकट्ठा कर दिया. इस कार्यक्रम को भी आरएसएस काडर का समर्थन नहीं मिल सका. आरएसएस ने अलग से 12 दिसंबर को पीएम मोदी को घेरने की योजना बना रखी है. यह सब बातें ज़ाहिर करती हैं कि हिंदू अतिवादी संगठनों में सब ठीक-ठाक नहीं चल रहा है. इसकी वजह बताई जाती है कि लोग हिंदू अतिवादी मुद्दों को उठा तो देते हैं लेकिन खुद सड़को पर नहीं उतरते बल्कि दूसरे संगठनों को आगे कर देते हैं. दूसरे संगठनों पर सारी जिम्मेदारी डाली जाती है उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होती है.
आरएसएस राष्ट्रनिर्माण का दावेदार बना रहता है. इसके पीछे जो वजह बताई जाती है तथा दूसरे संगठनों के जिम्मेदार भी ये समझने लगे हैं की आरएसएस काडर में पढ़े लिखे नौकरी वाले लोग ज्यादा है जो कानूनी कार्रवाई से करते हैं. और हंगामा खड़ा कर दूसरे संगठनों के लोगो को आगे कर देते हैं. सूत्रों का खाना है कि आरएसएस भाजपा को सत्ता में लेन के लिए दूसरे हिंदूवादी संगठनों को उकसाकर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कराता है. तथा भाजपा के सत्ता में आने के बाद अकेले-अकेले सत्ता-सुख भोगता है और दूसरे संगठन सरकार के रडार पर आ जाते हैं.
बुलंदशहर जैसी घटना में भी आरएसएस से अलग दूसरे संगठनों का नाम आया है तथा उसी के कार्यकर्ता हंगामे के मुक़द्दमे झेलते हैं. अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि आरएसएस का गेम प्लान क्या है समझ से परे है. आरएसएस खुद भी अपनी दशा और दिशा तय नहीं कर पा रहा है या जान-बूझकर सियासी दांव चल रहा है ये आने वाला वक़्त बताएगा.