राष्ट्रीय

सिमटती,सिकुड़ती, रपटती-जाए कांग्रेस

Shiv Kumar Mishra
8 Aug 2020 12:17 PM GMT
सिमटती,सिकुड़ती, रपटती-जाए कांग्रेस
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नवीन कुमार शर्मा

एक बार फिर से कांग्रेस पार्टी की बागडोर राहुल गांधी को सौंपने की उठ रही आवाजों के बीच राहुल गांधी की कार्यशैली को लेकर खड़े हो रहे छद्म सवाल, देखने में ऐसा माहौल बनाते दिख रहे हैं जैसे कांग्रेस भारत की राजनीति मे यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि उसके संगठन के अंदर कोई भी निर्णय लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही लिये जाते हैं ना कि 'एक परिवार' की इच्छा के अनुसार। किंतु विडंबना यह है कि कांग्रेस यह सब उस वक्त स्थापित करने का प्रयास कर रही है जब कुछ महीने पहले मध्यप्रदेश की सत्ता उसकी लाख कोशिशों के बाद भी उसके हाथों से फिसल गयी थी और राजस्थान की राज्य सरकार का भविष्य डांवाडोल हो रहा है।

राजस्थान के हालात कोई एकाएक नहीं बने हैं। इसकी नीव तो राज्य-सरकार के गठन के समय ही कांग्रेस ने खुद अपने हाथों से रखी थी। इस तथ्य से भला कौन नही परिचित हैं कि किस तरह कांग्रेस आलाकमान ने सचिन पायलट की जगह अशोक गहलोत को विधायक दल का नेता घोषित किया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दिखावे की रस्म अदायगी के लिये विधायकों की बैठक में गहलोत के नाम की घोषणा करवा दी गई थी।विरासत मे मिली, दशको पुरानी इस लोकतांत्रिक-प्रक्रिया का अनुकरण करते हुये ही कांग्रेस ने कमलनाथ को मध्यप्रदेश की कमान सौंपी तो थी मगर अब उनको भी भूतपूर्व हुये चार महीने होने जा रहे हैं। कमलनाथ के साथ-साथ गहलौत को अब वो दिन याद आ रहे होंगें जब सत्ता के मद में चूर होकर कांग्रेस,अन्य विपक्षी दलों की सरकारों को 356 के तहत बर्खास्त कर अथवा दलबदल करवा कर हँसते-हँसते निगल लिया करती थी।

वैसे तो आज भारत के सभी राजनीतिक दलों के अंदर सत्ता या शक्ति का केंद्रीकरण या तो हो चुका है अथवा धीरे-धीरे इस प्रारूप को अंगीकार करने की दिशा मे बढ़ने की कोशिश की जा रही हैं। भूल-चूक से यदि कोई इक्का-दुक्का राजनीतिक दल, बेशक वो क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, किसी तरह से अपने आपको बचाए हुये भी है तो आने वाले समय मे वह इस अवगुण से अपने आपको दूर रख पाएंगे कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन एक बात तो निर्विवाद रूप से सत्य है कि संगठन में शक्ति के केंद्रीकरण की जनक कांग्रेस (आई) ही है जिसका अनुकरण आज लगभग सभी राजनीतिक दल कर रहे है।

गुटबाजी और विभाजन कांग्रेस को विरासत में मिली

देखा जाए तो कांग्रेस को सत्ता-शक्ति के केंद्रीकरण का बीज-मंत्र अंग्रेजों ने ही दिया था और इसके प्रशिक्षण की शुरुआत1885 मे अंग्रेजो द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नामक संगठन से हो गयी थी। यदि हम ऐसा सोचते हैं कि ए ओ ह्यूम ने दादा भाई नौरोजी जैसे कुछ भारतीयों को साथ लेकर इस संगठन की स्थापना अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए की थी, तो यह नितांत नासमझी की बात होगी । उस समय इसे देश के कुलीन वर्ग के संगठन जैसे नामों की उपमाये मिली थी जो कि दिखावे के लिए हर वर्ष देश के किसी हिस्से में एक बार मिलते थे और जताने की कोशिश करते थे कि यह संगठन भारतीयों की समस्याओं को अंग्रेज शासकों तक पहुंचाने का माध्यम एवं प्रयास है। ए ओ ह्यूम ने बेशक कुछ कुलीन वर्गीय भारतीयों को साथ लेकर संगठन जरुर बना दिया था मगर वे इस बात को लेकर सदैव सजग थे कि कहीं यह संगठन या इससे जुड़े लोग अंग्रेजों के लिए अथवा अंग्रेजी सत्ता के लिए सिर-दर्द या चुनौती न बन जाएँ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद, अनेकों वर्षों तक अंग्रेजों के इशारों पर उसी व्यक्ति को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाता रहा था, जो अंग्रेजों के प्रति सहानुभूति रखता था। इस बात का विशेष ख्याल रखा जाता था कि कहीं संगठन के अंदर इस तरह का कोई भी विचार आकार न ले पाए जो धीरे धीरे किसी ऐसे जन आंदोलन का आधार बने जिसके चलते अंग्रेजों के कोप का भाजन इन कुलीन वर्ग के लोगों को होना पड़े। कांग्रेस की स्थापना के समय से ही संगठन का अध्यक्ष सीधे-सीधे कार्यकर्ताओं का मत ना लेकर, विभिन्न कमेटियों के द्वारा नामित व्यक्ति को ही बनाने की परम्परा डाल दी गयी थी। यह तथ्य भी अपने आप मे रोचक है कि 1888 से लेकर के 1917 तक 5 बार अंग्रेज अध्यक्ष बने थे।

1905 में बंगाल विभाजन के बाद कॉन्ग्रेस संगठन के अंदर बाल-पाल-लाल की तिकड़ी और उनके समर्थक जब अंग्रेजों के पूर्ण बहिष्कार को लेकर उग्र होने लगे थे तो दादा भाई नौरोजी की मदद से (1906 मे बनारस अधिवेशन के द्वारा) माहौल बदलने की कोशिश की गई थी। मगर 1907 का सूरत सम्मेलन कांग्रेस के पहले विभाजन का न केवल गवाह बना बल्कि यह बात भी स्थापित कर दी गयी कि गरम दल के चलते मजबूरी मे नरम दल (क्योकि संगठन पर यह कुलीन वर्ग न केवल हावी था बल्कि कमान भी इनके ही हाथों मे थी) को यह कटु निर्णय लेना पड़ा था। सही बात तो यही हैं कि कांग्रेस का यह विभाजन लगभग 1 वर्ष पहले ही बनारस अधिवेशन के दौरान ही तय हो चुका था और उस समय अंग्रेजों को यह बात शीशे की तरह साफ दिखाई दे गयी थी कि आने वाले दिनों में स्थिति और भी अधिक बिगड़ेगी। विभाजन के बाद लोकमान्य तिलक ने फिरोजशाह मेहता से इस बात के लिये आग्रह किया था कि देशहित में जिन लोगों को गरम दल के नाम पर कांग्रेस से निकाला गया है उनको पुन: संगठन का हिस्सा बनाया लिया जाए। मगर इतिहास गवाह है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ।

यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो उस समय कांग्रेस मे हुये विभाजन को गुटबाजी का एक नायाब उदाहरण माना जा सकता है। शक्ति के केंद्रीकरण का जो प्रशिक्षण कांग्रेस को अंग्रेजों से मिला था वह आजादी के बाद संगठन से राजनीतिक दल बने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं को खूब रास आया। 1985 मे राजीव गांधी ने 52वाँ संविधान संसोधन (दल-बदल विधेयक पास) कर जन-प्रतिनिधियों को दल-प्रतिनिधि बना दिया जो दल द्वारा जारी किये गये व्हिप को मनाने के लिये मजबूर हैं। शक्ति के केंद्रीकरण का यह गुरुमन्त्र राजीव गांधी को इंद्रा गांधी से और इंद्रा गांधी को अपने पिता भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिला था। यदि यह गुण इंद्रा गांधी को विरासत मे ना मिला होता तो वह कामराज जैसे शक्तिशाली पार्टी अध्यक्ष को एक किनारे न धकेल पाई होती।1969 मे हुये कांग्रेस पार्टी के विभाजन के बाद, कामराज खेमे के एक से बढ़कर एक दिग्गज नेताओं का इंदिरा गांधी के सामने हाथ बांधकर खड़े होने ने यह स्थापित कर दिया कि अब संगठन की अहमियत वह तय करेगा जिसके पास सत्ता की कुंजी होगी।

आज़ादी के तीन दशक बाद तक जिस कांग्रेस को कोई नेता या राजनीतिक दल किसी भी प्रकार से चुनौती देने की स्थिति में नहीं हुआ करता था उसे आज उसी के नेता चुनौती देते नजर आ रहे हैं। एक तरफ पार्टी के एकमात्र सबसे शक्तिशाली परिवार के विरुद्ध पार्टी बैठकों मे मत प्रकट किये जा रहे हैं तो दूसरी तरफ पंजाब मे सरकार के खिलाफ (जहरीली शराब कांड पर) बोलने पर एक नेता के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष को पत्र लिखा जाता हैं। कांग्रेस की प्रवक्ता खुशबू खुद को रोबोट अथवा कठपुतली नही मानती और पार्टी लाईन से हट कर वर्तमान सरकार की नयी शिक्षा नीति की तारीफ़ करती हैं, जबकि पायलट के खिलाफ राजद्रोह की रिपोर्ट इसलिये दर्ज़ करवायी जाती है क्योंकि उनकी गहलौत से पटती नही हैं। अब ये कथित विरोधाभासी बाते कितनी स्वभाविक हैं, या पार्टी आलाकमान के इशारे पर प्रायोजित नही की जा रही हैं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। मगर 2014 से सत्ता का बनवास भोग रही कांग्रेस उस समय और भी अधिक असहाय हो जाती है जब राज्यों की सरकारों को खुद उसके नेता तंदूर में लगाते दिखते हैं। मध्य प्रदेश के झटके से अभी कांग्रेस ढंग से उभर भी नहीं पाई थी कि राजस्थान में गहलोत जैसे राजनीति के मंजे हुये खिलाड़ी को पायलट ने धोबी पाट मार कर एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। सभी जानते हैं मगर फिर भी सिमटती, सिकुड़ती, रपटती कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष का दायित्व पुन: राहुल गांधी को सौंपने को लेकर के पार्टी की अंदरूनी मांग के दिखावे पर जिस तरह से मुहिम चलाई जा रही है क्या वो खुद की आँखों मे धूल झोकने जैसा नही हैं..!?


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