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सुप्रीम कोर्ट बहादुर ने आखिरकार नींद तोड़ते हुए देश में बने बेहद बुरे माहौल को भांपकर सख्ततरीन टिप्पणी नुपुर शर्मा पर करते हुए कहा कि उदयपुर जैसी वीभत्स घटना के पीछे नुपुर शर्मा का बयान है और उन्हें पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने नुपुर शर्मा को वकील होते हुए भी ऐसा बयान देने के लिए शर्मिन्दा भी किया। सुप्रीम कोर्ट यहीं तक नहीं रुका बल्कि नुपुर शर्मा को यह भी कहा कि यदि एंकर ने भड़काया था तो उस पर मुकदमा कराना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट की इतनी सख्त टिप्पणियों के बाद फिर एक बार यह चर्चा गरम हो गई है कि यह नफरत, बेगुनाहों का कत्ल और मोब लिंचिंग कब तक देश में स्वीकार्य रहेगी और कब व्यवस्था इसके खिलाफ खड़ी होगी और लोकतंत्र की असली मालिक जनता इसे देश के लिए एक श्राप समझेगी। कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने भी टिप्पणी करते हुए कहा था कि नुपुर शर्मा के बयान ने देश को बड़ा नुकसान पहुंचाया है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है की ऐसी परिस्थितियां क्या एकदम पैदा हो गई या धीरे-धीरे सुलगती हुई आग शोला बन गई। अगर ईमानदारी के साथ इस पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि पिछले काफी अर्से से ऐसी कोशिशें सरकार, विशेष एजेंडे वाले राजनीतिक दल और मीडिया के गठजोड़ से की गई हैं कि देश का माहौल सांप्रदायिकता में खराब से खराब तर हो जाए और अल्पसंख्यकों खासतौर से मुसलमानों को डराना, धमकाना उन्हें हतोत्साहित करना यहां तक कि मॉब लिंचिंग में मारना एक रिवाज के तौर पर प्रचलित हो जाए और उस पर बहुत ज्यादा अफसोस या चर्चा की जरूरत भी ना समझी जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा वह ठीक कहा लेकिन इसके लिए अकेले नूपुर शर्मा को जिम्मेदार ठहराना ही इंसाफ नहीं है बल्कि यह भी देखना है कि आखिर देश का मीडिया और उस पर होने वाली चर्चाओं के विषय क्या होते हैं और एंकर किन मुद्दों पर ज्यादा चर्चाएं कर रहे हैं। हालांकि यह सब देखना सरकार का विषय है और उसकी अव्वलीन जिम्मेदारी है कि किसी भी सूरत में मीडिया में ऐसे कंटेंट ना परोसे जाएं जो भविष्य में देश या किसी समाज को नुकसान पहुंचा सकें।
सुप्रीम कोर्ट हर चीज तो नहीं देख सकता लेकिन इसके अलावा किसी से उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि केंद्र पर सत्तासीन लोग तो अपने उसी एजेंडे पर चुनाव जीत कर आए हैं जिसमें माहौल को सांप्रदायिक बनाना अतिआवश्यक है। टीवी मीडिया के ज्यादातर चैनल जिन्हें गोदी मीडिया की संज्ञा दे दी गई है वह गोदी मीडिया नहीं बल्कि अडानी-अंबानी के भोंपू बने हुए हैं। जो ऐसी नफरतें फैलाकर लोगों का ध्यान भटका कर अडानी-अंबानी के देश को हानि पहुंचाने वाले एजेंडे की तरफ ध्यान देने से जनता को रोक देते हैं। यदि सुप्रीम कोर्ट नूपुर शर्मा पर ध्यान केंद्रित ना कर टीवी मीडिया में फैलाई गई नफरत पर ध्यान केंद्रित कर दे और मीडिया को आदेशित कर दे कि ऐसी कोई चर्चा या बहस नहीं होगी जिसमें कोई धार्मिक या जातीय विषय शामिल हो उस पर सख्त कार्रवाई की जाएगी और सरकार उस चैनल या मीडिया समूह का लाइसेंस रद्द कर उस पर मुकदमा दर्ज करेगा तो काफी हद तक माहौल अच्छा होना शुरू हो जाएगा।
बीमारी का इलाज जब तक नहीं हो सकता जब तक उसके कारणों और लक्षणों की पहचान ना हो जाए। देश में बने इस सांप्रदायिक माहौल के लक्षण और कारणों की पहचान हो चुकी है जरूरत तो सिर्फ उन लक्षणों और उन पहचानो पर चोट करने की है जो यह काम बखूबी अंजाम दे रहे हैं। दिल्ली से सटे शहर गुड़गांव में कल उदयपुर की घटना के बाद प्रतिक्रियात्मक जुलूस में जो नारे लगाए गए हैं क्या उस पर हरियाणा सरकार कोई कार्रवाई कर सकती है।
क्या इन नारों से दोबारा माहौल खराब नहीं होगा आखिर राज्य सरकारें ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं करती जबकि इलाहाबाद में एक घर पर बुलडोजर इसलिए चला दिया जाता है कि उस घर के मालिक पर एक प्रदर्शन में हिस्सा लेने का झूठा आरोप था। जब सरकारें खासतौर से भाजपा सरकारें है हर कार्यवाही धार्मिक भेदभाव से करेंगी तब कैसे मुमकिन होगा कि देश की व्यवस्था सही चल पाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम कर दिया लेकिन अब सरकारों, राजनीतिक दलों और जनता की अपनी जिम्मेदारी है कि वह इस घातक बीमारी से देश को और खुद को बचाएं। बदलते वैश्विक परिदृश्य और आर्थिक मंदी के दौर में भारत बहुत दिनों तक सांप्रदायिक माहौल को नहीं झेल सकेगा, शायद ही नादान कुछ अकल से काम लें।