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शकील अख्तर
जम्मू कश्मीर के लोग उस समय हंस रहे थे जब कपिल सिब्बल वहां कह रहे थे कि गुलामनबी आजाद के अनुभव का उपयोग नहीं हो रहा! लोग कह रहे थे कि अभी दो हफ्ते भी पूरे नहीं हुए और बेरोजगारी कसकने लगी। 15 फरवरी को आजाद का राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हुआ और 27 फरवरी को सिब्बल उनकी वकालत करते हुए जम्मू में भाषण दे रहे थे कि कांग्रेस आजाद के अनुभव और स्किल (कौशल) का उपयोग नहीं कर रही है। खुद आजाद ने कहा राज्यसभा से रिटायर हुआ हूं, राजनीति से नहीं।
लोग हैरान थे कि इतनी जल्दी कांग्रेस कहां से उन्हें वापस संसद सदस्य बना सकती है? सिर्फ एक ही सूरत थी राज्यसभा में मनोनयन। मगर वह प्रधानमंत्री मोदी ही कर सकते हैं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी नहीं। परिस्थितयां न होने के कारण सोनिया गांधी तो उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी को भी राज्यसभा का सदस्य नहीं बना पाईं, कि उनके आवास की समस्या हल
हो सकती। प्रियंका को प्राइवेट मकान में जाना पडा। राजनीति में लोग जानते हैं कि निजी मकान से राजनीति सक्रियता कितनी मुश्किल होती है। कार्यकर्ताओं का आना, स्टाफ का बैठना, मीटिंग सब मुश्किल हो जाता है।
खैर, तो बात हो रही थी जम्मू में 23 से 7 रह गए असंतुष्टों के सम्मेलन की। पिछले साल शुरुआत इन्होंने की थी पार्टी में चुनाव कराने की मांग के साथ। जो मान ली गई और जून में कांग्रेस के संगठन के चुनाव हैं। लेकिन अब ये लोकतंत्र की बड़ी मांग से इस पर आ गए कि आजाद का यूज करो और अभी सांसद नहीं बना सकते तो संगठन में लो। घोर आश्चर्य! अभी चुनाव की बात कर रहे थे और अभी फिर बिना चुनाव के मनोनयन की बात करने लगे। लगता है बिना पद के कुछ लोग कुछ दिन भी नहीं रह सकते। कांग्रेस के और दूसरी पार्टियों के भी देश भर में ऐसे हजारों कार्यकर्ता हैं, जिन्हें कभी कोई पद नहीं मिला लेकिन उनकी निष्ठा में कभी कोई कमी नहीं आई।
वाकई कभी कभी तो कांग्रेस गजब पार्टी लगती है। हमारे देश, समाज की तरह भारी विविधताओं और अन्तरविरोधों से भारी पार्टी। असंतुष्ट कहां से चले थे और कहां आकर गिरे! पूरी सर्दियां सड़कों पर बिता कर, अब गर्मियों में भी वहीं डटे किसान का दर्द नहीं है, पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव है उसकी बात नहीं है, पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी जिन्होंने 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता से सत्ता छीनकर इन कांग्रेसियों को दे दी थी उनकी अस्वस्थता की फिक्र नहीं है, बस केवल और केवल अपने लिए पदों और प्रतिष्ठा की चिन्ता है।
कांग्रेस ने क्या नहीं दिया? आजाद के जिस एक्सपियरेंस की बात कर रहे हैं वह भी कांग्रेस ने ही दिया। इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी ने जम्मू कश्मीर के आदमी को महाराष्ट्र सहित दूसरे राज्यों से संसद में भेजा।
जम्मू कश्मीर से पहली बार राज्यसभा में 1996- 97 में फारुक अब्दुल्ला की मदद से गए। आज ये सब भूल गए। मगर जम्मू कश्मीर की जनता को याद है। १९८९ से जब कश्मीर में आतंकवाद शुरू हुआ। तब कहां थे? जनता को उस समय आपके अनुभव और कौशल की जरूरत थी। मगर आपको अपना अऩुभव और कौशल तो कहीं और दिखाना था! वह दिखाया आपने तत्कालीन मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला को। जहां से आपको सीधे राज्यसभा मिली।
आजाद पूरे कैरियर सरकार और संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर रहे। अभी लास्ट यूपीए सरकार में पूरे दस साल मंत्री रहे। उसके बाद राज्यसभा में विपक्ष के नेता। कैबीनेट मंत्री के समकक्ष सारी सुविधाएं। साथ ही महासचिव उत्तर प्रदेश के फिर हरियाणा के प्रभारी। ये सब कम है? तो कांग्रेस को कहना चाहिए की जनाब माफ करो! अलग अलग नाम लिखने से कोई फायदा जितने भी असंतुष्ट बने हैं इनमें से किस को क्या नहीं मिला? और सब अनुकंपा में।
आनंद शर्मा कह रहे थे कि हम छात्र संगठन के माध्यम से आए हैं। हां उस समय आज की तरह छात्र और युवा संगठन में चुनाव नहीं होते थे। मनोनयन होता था। उस मनोनयन के जरिए आए हैं। जनता के बीच कौन सा चुनाव जीता है? अपने गृह राज्य हिमाचल प्रदेश की जमीन से जुड़ी राजनीति में क्या योगदान रहा है? आश्चर्य की बात है कि जम्मू में जमा इन सात से सबने सोनिया गांधी के समय अनुकंपा नियुक्तियां पाईं। मगर आज वे उनकी अस्वस्थता और अध्यक्ष पद छोड़ने के समय भी उन्हें मानसिक प्रताड़ना दे रहे हैं।
क्या इनका कोई गेम अब छुपा रह गया? क्या यह साफ नहीं है कि जम्मू में एक एनजीओ के मंच से सम्मेलन करके वे किसे कमजोर और किसे मजबूत कर रहे हैं? प्रधानमंत्री मोदी को आजाद इतने अच्छे क्यों लग रहे हैं? और आजाद के साथ जमा बाकी लोगों को अपना भविष्य कहां उज्जवल दिख रहा है? क्या अरुण जेटली की कमी पूरी करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को एक बड़ा वकील नहीं चाहिए? और वकील साहब को वापस अपना प्रभामंडल बनाने के लिए सत्ता का समर्थन नहीं चाहिए?
ये सब सीन इन्दिरा गांधी के शुरुआती दौर की तरह ही हैं। उनके भी कदम कदम पर कांग्रेसियों ने ही अवरोधक खड़े किए थे। 1966- 67 में इन्दिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजा, रानियों के प्रिविपर्स और प्रिविलेज खत्म करने, राष्ट्रपति का नाम तय करने हर प्रगतिशील फैसले पर पुराने कांग्रेसी नेता जो नेतृत्व की लड़ाई में इन्दिरा गांधी से हार गए थे ऐसे ही सवाल उठाते रहते थे और इन्दिरा से लड़ने वाले दूसरे दलों को मजबूत करते रहते थे।
बस फर्क यह है कि इन्दिरा गांधी ने बर्दाश्त नहीं किया और असंतुष्टों पर करारे पलटवार किए। बैकफुट पर जाकर विकेट में घुसना सबसे खराब होता है। हिट विकेट होने से बेहतर है स्टेप आउट होकर मारने की कोशिश में स्टंप होना!
राहुल और प्रियंका अगर यह नहीं समझेंगे तो कांग्रेस के नुकसान को बढ़ाते रहेंगे। साथ ही अपने इकाबाल को कम करते रहेंगे। उनके सामने प्रधानमंत्री मोदी हैं। जिन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। उन्होंने
अवसरवादी कांग्रेसियों की शिनाख्त कर ली है। वे उन्हें ललचाते रहते हैं। और जरूरत के हिसाब से उपयोग करते रहते हैं। मध्य प्रदेश में जब सरकार बनाना थी तो सिंधिया को तोड़ लिया। उसी लालच में सचिन पायलट भी आए मगर इसका फायदा वसुधंरा को नहीं हो जाए इसलिए सचिन को अधपर (बीच में) में छोड़ दिया। सचिन ने जैसा वहां और फिर वापस आकर कांग्रेस में अपमान सहा वह बेमिसाल है। मगर असंतुष्ट कांग्रेसियों ने उससे भी सबक नहीं लिया। हां खुद को थोड़ा ज्यादा भक्त बताने की कोशिश जरूर की। इसीके तहत सबने जम्मू में केसिरया साफे बांधे। मोर लायल देन द किंग। भाजपा वालों से भी ज्यादा वफादार दिखने की कोशिश!
फिर भी आजाद को लगा कि शायद कुछ कमी रह गई है तो सम्मेलन के अगले दिन रविवार को उन्होंने सीधे ही प्रधानमंत्री मोदी की तारीफों के पुल बांध दिए। कांग्रेस को मजबूत करने के लिए! क्योंकि आखिर यह जम्मू सम्मेलन कांग्रेस को मजबूत करने के लिए ही तो था!