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क्यों नहीं बनी 'इंडिया गठबंधन' की सरकार? चौकाने वाला खुलासा
कुछ लोग इस बात का जश्न मना रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला और अब उसकी सरकार गठबंधन के सहयोगी दलों पर आश्रित रहेगी। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि गठबंधन के साथी दलों के दबाव में वह उस तानाशाही तरीके से काम नहीं कर पाएगी जिसमें वह अपने सांसदों की भी राय नहीं लेती थी। किंतु हकीकत तो यह है कि हमें नरेन्द्र मोदी और उनकी मार्का राजनीति को पांच साल तो झेलना ही पड़ेगा। काफी सम्भावना है कि वे और अमित शाह अपने तौर तरीकों से सहयोगी दलों को ‘अनुशासित‘ रखेंगे और किसी समझौते के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ेंगे। देखा जाए कि यदि विपक्ष अपनी भूमिका ठीक तरीके से निभाता तो क्या नतीजे भिन्न हो सकते थे?
पिछले वर्ष पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के पहले से ही विपक्षी दल तानाशाही भाजपा सरकार को हराने के लिए एक मंच पर आ गए थे। इस गठबंधन का नाम इण्डिया दिया गया और जोर-शोर के साथ इसकी शुरुआत हुई। किंतु कुछ दिनों बाद होने वाले विधान सभा चुनावों में ही कांग्रेस ने गठबंधन धर्म का पालन नहीं किया। फिर नीतीश कुमार और जयंत चैधरी गठबंधन से निकल गए। शिव सेना को तोड़ने के बाद भाजपा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रस पार्टी को भी तोड़ने में सफल हुई। प्रकाश अम्बेडकर अपने दल वंचित बहुजन अघाड़ी के साथ इण्डिया गठबंधन के बाहर हो गए। अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी व कांग्रेस पार्टी ने क्रमशः पश्चिम बंगाल, पंजाब व केरल में गठबंधन तोड़ कर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया तो समाजवादी पार्टी जो कुछ दिनों पहले तक आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के नेता चंद्रशेखर आजाद के साथ सभाएं कर रही थी ने अचानक च्रद्रशेखर का साथ छोड़ दिया। एकता कायम न रख पाने से इण्डिया, बहुजन समाज पार्टी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर पाने में असफल रही जिसने इण्डिया की सीटें कम करने में अहम भूमिका निभाई।
यह मानते हुए कि यदि बसपा व आसपा (कांशीराम) को जितने मत मिले, यदि वे इण्डिया बठबंधन में होते तो उनके सारे मत इण्डिया को मिलते और दूसरे स्थान पर आए उम्मीदवार को ही उम्मीदवार बनाया जाता तो समाजवादी पार्टी को 12 और जगहों पर विजय प्राप्त होती - अकबरपुर, अलीगढ़, बिजनौर, डोमरियागंज, फर्रुखाबाद, हरदोई, मेरठ, मिर्जापुर, मिश्रिख, फूलपुर, शाहजहांपुर व उन्नाव। यदि बसपा का समर्थन कांग्रेस पार्टी को मिलता तो कांगेस को उत्तर प्रदेश में 4 और जगहों - अमरोहा, बांसगांव, देवरिया व फतेहपुर सीकरी, मध्य प्रदेश में सतना व छत्तीसगढ़ में कांकेर में विजय प्राप्त होती। मध्य प्रदेश में कांगे्रस एक भी सीट न प्राप्त कर पाने की बदनामी से बच सकती थी। यदि इण्डिया गठबंधन मिलकर छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ता और बसपा का उसे साथ मिल जाता तो बस्तर में भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मत मिला कर कांग्रेस को यहां भी विजय प्राप्त होती। तृणमूल कांग्रेस बसपा का समर्थन प्राप्त कर उ.प्र. में भदोही में विजय हासिल कर पश्चिम बंगाल के बाहर जीतने का गौरव प्राप्त कर सकती थी।
पं. बंगाल में यदि गठबंधन साथ चुनाव लड़ता तो कांगे्रस पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) व रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के समर्थन से तृणमूल कांग्रेस छह अन्य जगहों - बालूरघाट, बिशनुपुर, मलदाहा, पुरुलिया, रायगंज व तमलूक में भी विजय प्राप्त कर सकती थी।
यदि महाराष्ट्र में इण्यिा गठबंधन प्रकाश अम्बेडकर को साथ में रख पाता तो कांग्रेस पार्टी को अकोला में विजय मिली होती व उद्धव ठाकरे की शिव सेना को बुलढाना, हटकननगले और मुम्बई पश्चिम में विजय प्राप्त करती और इन तीनों जगहों पर एकनाथ शिंदे की शिव सेना पराजित होती।
यदि कांग्रेस ने पंजाब में आम आदमी पार्टी का साथ दिया होता तो आप को भटिण्डा व फरीदकोट में विजय हासिल होती। और केरल में भाजपा एकमात्र विजय से वंचित रहती यदि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस पार्टी का साथ मिला होता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की झोली में एक और सीट आ जाती।
संक्षेप में यदि इण्डिया ने ठीक से गठबंधन बना कर उ.प्र., प. बंगाल, महाराष्ट्र, छत्तीगढ़, केरल व मध्य प्रदेश में चुनाव लड़ा होता तो राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की 31 सीटें कम हो जाती जिनमें अकेले भाजपा को 27 सीटों का नुकसान होता। शिव सेना की 3 सीटें और राष्ट्रीय लोक दल की एक सीट कम हो जातीं। इससे राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की कुल सीटें 292 से घटकर सरकार बनाने के लिए बुहमत प्राप्त करने की संख्या 272 के नीचे पहुंच जातीं और भाजपा को बहुमत जुटाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती।
इसके विपरीत यदि पंजाब की दो सीटों को मिला लिया जाए तो इण्डिया गठबंधन को 33 सीटों का इजाफा होता और उसके पास राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन की 261 की तुलना में 265 सीटें होतीं। सांगली से स्वतंत्र उम्मीदवार विशाल पाटिल का इण्डिया को समर्थन प्राप्त होने के बाद इण्डिया गठबंधन बहुमत से सिर्फ 6 सीटें कम रह जाती।
दोनों गठबंधनों के बहुमत प्राप्त न कर पाने की स्थिति में अब छोटे दलों जैसे युवजन श्रमिक रैयथू कांग्रेस पार्टी, आसपा (कांशीराम), अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलीमीन, शिरोमणि अकाली दल, भारत आदिवासी पार्टी, जोरम पीपुल्स मूवमेण्ट, आदि व 7 स्वतंत्र उम्मीवारों पर निर्भर करता कि वे बहुमत पूरा करवा कर किसकी सरकार बनवा देते। यदि इन छोटे दलों व स्वतंत्र उम्मीदवारों का वैचारिक रुझाान देखा जाए तो राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन के बजाए इण्डिया आसानी से सरकार बना लेता।
अतः इण्डिया की सरकार न बन पाने की पूरी जिम्मेदारी इण्डिया के नेताओं को लेनी होगी और खासकर कांग्रेस पार्टी को क्योंकि उसने भारत जोड़ो न्याय यात्रा गठबंधन के नेताओं के साथ मिलकर नहीं निकाली या चुनाव से पहले गठबंधन के नेताओं के साथ साझा सभाएं नहीं कीं। जिस तरह की राहुल गांधी व अखिलेश यादव की संयुक्त सभाएं आधा चुनाव बीतने के बाद होने लगीं थीं ये चुनाव से बहुत पहले, अन्य दलों को साथ लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में होनी चाहिएं थीं।
कुछ लोग इण्डिया गठबंधन की सफलता के लिए जो श्रेय कांग्रेस पार्टी को दे रहे हैं वह उसकी हकदार नहीं है। कांग्रेस की 99 सीटों की तुलना में गठबंधन के सिर्फ तीन दलों समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस व द्रमुक मुन्नेत्र कड़घम ने ही 88 सीटें प्राप्त कर ली हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जिन राज्यों में लड़ने वाली सीटों में से आधे या आधे से ज्यादा सीटों पर विजय पाई उसमें केरल, महाराष्ट्र, तमिल नाडू, पंजाब व हरयाणा ही शामिल हैं। उसका सबसे बढ़िया प्रदर्शन केरल में रहा जहां उसे 14 सीटें मिलीं। अतः हम कह सकते हैं कि उसका प्रदर्शन ज्यादातर राज्यों में सामान्य ही रहा। भाजपा के 36.56 प्रतिशत मतों की तुलना में उसे 21.19 प्रतिशत ही मत मिले। 36 राज्यों या केन्द्र शसित प्रदेशों में से 13 से उसका लोक सभा में कोई भी प्रतिनिधि नहीं है। भारत के सबसे पुराने और देश के दूसरे सबसे बड़े दल पर सवाल खड़े होते हैं।
यह स्पष्ट है कि कांग्रेस के सामान्य प्रदर्शन और बसपा द्वारा इण्डिया गठबंधन और खासकर सपा को पहुंचाया गये नुकसान ने इण्डिया गठबंधन को सरकार बनाने से वंचित कर दिया और इण्डिया गठबंधन नरेन्द्र मोदी के तानाशाही शासन को हटाने के जिस उद्देश्य से बनाया गया था उसमें नाकामयाब रहा।
लेखकः दिवेश रंजन एवं संदीप पाण्डेय
लेखक परिचयः दिवेश रंजन मेघालय स्थित एक चुनाव विशेषज्ञ हैं एवं संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के महासचिव हैं।