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महाराजा रंजीत सिंह का जन्म 13 सितम्बर 1780 को ननिहाल के बदरू खां कस्बे के एक छोटे किला में हुआ। कुछ लोगों के अनुसार 2 या 13 नवम्बर को गुजरांवाला में। उनके बचपन के बारे में इतना ही मिलता है कि कम उम्र में उन्हें चेचक की बीमारी हुई जिसे एक आंख की रोशनी चली गयी और उसके गहरे गड्ढों से उनका चेहरा हमेशा के लिए खराब हो गया। पढने - लिखने के लिए उनके पास कोई समय नहीं था। शायद मां- बाप की इस ओर ज्यादा रुचि भी नहीं थी। उनका अधिकांश समय तैराकी , घुड सवारी , शिकार तलवार और निशाने बाजी में ही बीतता। यह कहा भी जाता है कि वह घर से पैसे ले जाकर साथ के गरीब बच्चों में बांट देते थे। वह गुरुमुखी की वर्ण माला के ज्ञान से आगे नहीं बढ पाये। हालांकि , बाद में वह पूरे जीवन ज्ञान - पिपाशु बने रहे। बिना औपचारिक पढाई के ही फारसी में सरकारी पत्राचार और आदेशों को देख कर अंदाज से समझ लेते तथा किसी तरह हस्ताक्षर बना लेते थे।
12 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता का स्थान लिया और पहली लडाई जीती। प्रारंभिक विजयों से उत्साहित उनके पिता महा सिंह ने अपने माझा क्षेत्र की सभी सिख मिसलों में अपना वर्चस्व स्थापित करने का निर्णय किया। उनकी बढती शक्ति , प्रभाव और महात्वाकांक्षा से सशंकित उनके और उनके पिता के सहयोगी रहे शक्तिशाली कन्हैया मिसल के प्रमुख जै सिंह ने दूरी बना ली। 1784 को दीपावली के अवसर पर अमृतसर स्वर्ण मंदिर में दोनों लोग त्योहार मनाने आए। जै सिंह ने भगतिया , नाचने वाला लडका , कह कर महा सिंह का अपमान किया। मजीठा के पास दोनों में युद्ध हुआ और जै सिंह को पराजित होकर ब्यास के पार भागने को मजबूर होना पडा। वह नयी सेना लेकर लौटे और नौशेरा में महा सिंह पर हमला किया । जै सिंह फिर पराजित हो कर बटाला की ओर चले गए। उनके इकलौते बेटे गुरु बख्स सिंह इस लडाई में मारे गए। गुरु बख्स सिंह की विधवा और सदा कौर ने राजनीतिक चातुर्य दिखाते हुए अपने वृद्ध श्वसुर जै सिंह को राजी कर अपनी इकलौती बेटी महताब कौर का विवाह महा सिंह के बेटे रंजीत सिंह के साथ तय करा दिया। रंजीत सिंह की यह शादी जब हुई तब वह 14- 15 साल के थे। इसके तीन - चार साल उन्हों ने दूसरी शादी की।
पंजाब में एक से बढ कर एक कई बहादुर , बुद्धिमान और नारियां हुईं हैं , रानी सदा कौर का नाम उनमें प्रमुख है। उन्हों ने अपने साहस और सूझबूझ से खालसा साम्राज्य के निर्माण में बडी भूमिका निभायी। रंजीत सिंह को लाहौर विजय से लेकर महाराजा बनाने तक में उनकी प्रमुख उनकी प्रमुख भूमिका रही। उन्हों ने घोडे और हाथी पर सवार होकर रंजीत सिंह के साथ कई युद्धों में भाग लिया और उनकी विजय में सहायक हुईं।
महताब कौर रंजीत सिंह की प्रथम महारानी हुईं और शादी के बाद रानी सदा कौर उनके साथ गुजरांवाला आकर किशोर दामाद की राज्य विस्तार में मदद करने लगीं। इस शादी के राजनीतिक परिणाम यह हुए कि कन्हैया मिसल से दुश्मनी खत्म हो गयी और रंजीत सिंह की शुकरचरिया मिसल और ताकतवर हो गयी । लेकिन , महारानी महताब कौर के रिश्ते महाराजा रंजीत सिंह से सहज नहीं रहे। वह महाराजा की कुरूपता से ज्यादा यह नहीं भूल पायीं कि उनके पिता की हत्या उनके पति के पिता ने की थी। महाराजा के दूसरी शादी कर लेने के बाद वह अपनी मां के साथ ज्यादातर बटाला में ही रहीं।
1792 में 28 साल की उम्र में महा सिंह की मृत्यु हुई । उन्हों ने कर अदा करने से इंकार कर देने पर साहिब सिंह भांगी पर चढाई कर दी । साहिब सिंह सोढरन किले में शरण ले रखी थी। महा सिंह ने किले पर घेरा डाला लेकिन अचानक पेचिश से पीडित हो जाने से वह 12 वर्षीय बेटे रंजीत सिंह को मिसल का प्रमुख बना और सेना की कमान सौंप कर गुजरांवाला वापस लौट आए। इससे उत्साहित भांगी सरदार सोबरन सिंह की मदद को सोढरन दौडे लेकिन रंजीत सिंह ने उनके पहुंचने के पूर्व ही घात लगा कर हमला कर दिया और विजयी होकर गुजरांवाला लौटे। लेकिन , वह पिता को नहीं देख पाए। महा सिंह की मृत्यु हो चुकी थी।
रंजीत सिंह एक जानलेवा हमले में बाल बाल बचे थे। चथा वंश के मुखिया हशमत खां ने पुरानी दुश्मनी का बदला लेने के लिए शिकार से लौटते समय किशोर रंजीत सिंह का सफाया करने की योजना बनायी। वह जानता था कि रंजीत हमेशा अपनी टीम के आगे चलते हैं। लौटने के रास्ते में वह एक जगह घात लगा कर छिप गया। रंजीत सिंह जैसे ही उस जगह से गुजरे उसने उछल कर हमला किया। तेजी से मुड कर रंजीत सिंह तो बच गए लेकिन उसकी तलवार के जोरदार वार से जीन और लगाम कट गयी। रंजीत सिंह ने अपना घोडा धीमा किया और तपनी तलवार निकाल कर एक ही वार से हशमत खां का सर धड से अलग कर दिया। कैप्ेन अमरिंदर सिंह ने ' The last Sun Set ' में यह घटना सन 1790 में हुई बतायी है जिसके अनुसार रंजीत सिंह की उम्र तब दस वर्ष की होगी। लेकिन मुझे यह कुछ साल बाद की लगती है।
वरिष्ठ पत्रकार शम्भु दयाल बाजपेयी

शिव कुमार मिश्र
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