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ब्यावर में विधायक के टिकट की लंबी कतार, जैसे पार्षद का हो रहा चुनाव!
देश के पांच राज्यों में इस वर्ष के अंत तक विधानसभा के चुनाव की तैयारी जोर-जोर से चल रही है। समझा जाता है की दो से चार दिनों के बीच में इन राज्यों में आचार संहिता लागू हो सकती है मतलब यह है कि चुनाव कार्यक्रम घोषित हो सकता है। आचार संहिता लगने के पहले राजस्थान सरकार ने तो घोषणाओं का इस तरह अंबार लगा दिया है "जैसे जो मांगेगा वही मिलेगा"।
बात करें तो सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जहां पिछली सरकारों ने कई दशकों में दो से चार-पांच जिले ही नए बनाए वही गहलोत सरकार में पिछले तीन-चार महीना में ही 22 नए जिले बना डाले। और यह नई कहा जा सकता की आचार संहिता से पहले एक दो जिले और घोषित कर दिया जाए जिले घोषित हो या ना हो लेकिन एक दो संभाग तो घोषित होने की पूरी संभावना बनी हुई है। गहलोत सरकार ने घोषणाओं की इतनी लड़ी लगा दी जिससे हर वर्ग को किसी ने किसी रूप में सौगात देने की कोशिश की गई है। वहीं भाजपा में भी कांग्रेस की कर साजिश को अपने पक्ष में करने के लिए कोई कौर कसर नहीं छोड़ रखी है इसी को लेकर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संगठन के अध्यक्ष और कई कद्दावर केंद्रीय मंत्री दो से तीन की संख्या में राजस्थान के किसी ने किसी स्थान पर पहुंच रहे हैं।
अभी भाजपा और कांग्रेस की इस चुनावी मैराथन दौड़ के माध्यम से सरकार बनाने की कोशिश के बीच चाहे कांग्रेस हो या फिर भारतीय जनता पार्टी हर पार्टी में विधायक का सपना देखने वालों की लंबी कतार देखने को मिल रही है। राजनीतिक से जुड़े लोगों का मानना है कि टिकट जाने वालों की इतनी लंबी फेहरिस्त होने अपने जीवन काल में पहली बार देखने को मिल रही है। अगर बात करें ब्यावर की तो ब्यावर में तो होर्डिंग्स के अंबार लगे हुए हैं। जिसमें हर टिकट जाने वाला हाथ जोड़कर दिखाई पड़ रहा है। क्या शहरी क्षेत्र और क्या ग्रामीण क्षेत्र ब्यावर विधानसभा में टिकट जाने वालों की लंबी चौड़ी कवायद से तो अब आमजन में यह चर्चा होने लगी है कि कितने टिकट जाने वालों की फेहरिस्त तो पार्षद के चुनाव में भी देखने को नहीं मिलती।
चूंकि जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा इस चुनावी रण को मुकाबला की टक्कर में जाकर खड़ा करना चाहती है उस दोनों ही पार्टी के टिकटार्थी चाहते हैं कि उन्हें टिकट मिल जाए तो विधायक बनना पक्का है। कुछ लोगों को छोड़कर जो लोग टिकट की लाइन में है उन्हें अब यह कौन समझाए यह रेल या बस का टिकट नहीं है। यह बात अलग है की कुछ गिने-चुने नेता टिकट के लिए गंभीर है। तो अधिकांश चर्चा में रहने के लिए आगे आ रहे हैं। अब जरा मसूदा विधान सभा की तरफ नजर डालें तो मसूदा क्षेत्र में पिछले डेढ़ साल से सोशल मीडिया पर शुरू हुई स्थानीय वाद की कवायद ज्ञापन और चुनौतियां तक पहुंच गई है। मसूदा क्षेत्र में गांव नारायण सिंह मसूदा के बाद में मसूदा विधानसभा से बाहरी क्षेत्र के कांग्रेस और भाजपा के विधायक बन जाने के आक्रोश को इस बार स्थानीय वाद के नारे साथ में बल पकड़ता दिखाई पड़ रहा है। स्थानियावाद की आवाज सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्र के गुर्जर नेता ने व्हाट्सएप के माध्यम से एक ग्रुप बनाकर लगभग सवा डेढ़ साल पहले शुरू की थी जो धीरे-धीरे आज के बहुत बड़ी ताकत का रूप ले चुका है। कांग्रेस से ज्यादा भाजपा ने स्थानीय वाद को बड़ा मुद्दा बनाया हुआ है।
अगर विधायक का टिकट चाहने वालों की तरफ थोड़ा ध्यान दिया जावे तो यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि कांग्रेस से ज्यादा भाजपा की टिकट जाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। भाजपा का लगभग हर नेता विधायक के टिकट की कतार में देखा जा सकता है। भाजपा का टिकट चाहने वालों में शहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्र से पहली बार स्थानीय नेताओं के टिकट के चाहने वालों की देखने में आ रही है। भाजपा के कुछ नेताओं ने समूह के रूप में भी भाजपा के दिग्गज नेता होते के बाद पहुंचा दी है इस बार यदि स्थानीय वाद की मांग को महत्व नहीं दिया गया तो नतीजा कुछ भी हो सकता है। और इसी को लेकर कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही पार्टियों लगभग इस मूड में आ गई है की स्थानीय जिताऊ और टिकाऊ नेता को ही प्रत्याशी बनाया जाए।
टिकट वाले स्थान या किसी एक ही नेता को मिलेगा लेकिन यह कोई डंके की चोट पर नहीं कह सकता की किसी को भी टिकट मिलने पर दूसरे टिकट चाहने वाले पुणे टिकट नहीं मिलने की स्थिति में भी क्या वे प्रत्याशी का समर्थन करेंगे। फिलहाल देखने वाली बात यह होगी कि जिसे टिकट मिलता है और क्या समीकरण बैठता है?!