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क्या पायलट राजस्थान में दिला सकते हैं कांग्रेस को जीत?
राजस्थान में चुनाव प्रचार थम गया है. चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में गुर्जर वोटरों को लेकर घमासान देखने को मिला. राजस्थान में गुर्जरों की आबादी करीब 6-7% है, इनका प्रभाव 40 सीटों पर देखने को मिलता है, खासकर पूर्वी राजस्थान में. गुर्जर सालों से बीजेपी के पारंपरिक वोटर माने जाते हैं. हालांकि, 2018 में सचिन पायलट के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को देखते हुए गुर्जरों ने कांग्रेस को समर्थन दिया था. कांग्रेस गठबंधन ने 100 सीटों पर जीत हासिल की थी, जिनमें से 42 पूर्वी राजस्थान की थीं.
कांग्रेस ने 2018 में पायलट को सीएम पद देने से इनकार कर दिया था. इसके बाद फिर जुलाई 2020 में पायलट की बगावत के बाद उन्हें पहले डिप्टी सीएम फिर प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. कांग्रेस के इन फैसलों से गुर्जरों के एक बड़े वर्ग को निराशा हुई. वहीं, इस बार भी पायलट को सीएम फेस घोषित नहीं किया गया, न ही कांग्रेस पार्टी के अभियान में उन्हें प्रमुखता दी गई. दूसरी ओर सीएम अशोक गहलोत लगातार पायलट पर टिप्पणी करते रहे हैं, जिससे मामला और उलझता नजर आ रहा है.
22 नवंबर को एक रैली को संबोधित करते हुए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर सचिन पायलट को उनके पिता को 'एक परिवार' के खिलाफ सच बोलने के लिए दंडित करने का आरोप लगाया. पीएम मोदी का इशारा 1999-2000 के संगठनात्मक चुनावों में सोनिया गांधी के खिलाफ राजेश पायलट के उतरने की घटना की ओर था. पीएम मोदी संदेश देना चाहते थे कि कांग्रेस ने न सिर्फ सचिन पायलट बल्कि पूरे गुर्जर समुदाय के साथ अन्याय किया है, और सबसे पुरानी पार्टी को गुर्जर विरोधी के तौर पर पेश किया.
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए सचिन पायलट ने पीएम पर निशाना साधा और कहा कि पार्टी और जनता के अलावा किसी को उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने कहा कि उनके पिता जीवन भर एक समर्पित कांग्रेसी रहे और पीएम के बयान तथ्य से बहुत दूर थे, उनका उद्देश्य केवल लोगों का ध्यान भटकाना है.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इस बहस में शामिल हो गए और दावा किया कि प्रधानमंत्री राज्य के गुर्जर समुदाय को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने दावा किया कि भाजपा शासन के दौरान फरवरी 2008 की झड़पों के दौरान गुर्जरों पर 22 बार गोलियां चलाई गईं, जिसमें 72 लोग मारे गए. उस वक्त बीजेपी की वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री थीं.
गुर्जरों का कितना प्रभाव?
गुर्जर 40 सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं, खासकर अजमेर, टोंक, करौली, अलवर, धौलपुर, दौसा और सवाई माधोपुर जिलों में. 2008 और 2013 में इन सीटों पर बीजेपी आगे थी, जबकि 2018 में कांग्रेस ने इन सीटों पर बढ़त हासिल की.
2008 में बीजेपी को 18, कांग्रेस को 14 सीटों पर जीत मिली. जबकि 8 सीटें अन्य के खाते में गईं. इसके बावजूद इस चुनाव में कांग्रेस राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 2013 में बीजेपी ने 29, कांग्रेस ने 8 सीटों पर जीत हासिल की. जहबकि अन्य को 3 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव में बीजेपी ने राज्य की 80% सीटों पर जीत हासिल की.
2018 में इन 40 सीटों में से कांग्रेस को 24 पर जीत मिली. जबकि 11 बीजेपी के खाते में गईं. अन्य ने 5 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने में सफल रही.
गुर्जर बाहुल्य सीटों में 16 सीटें मेवाड़ क्षेत्र में और 24 ढूंढाड़ में हैं. मेवाड़ भाजपा का गढ़ माना जाता है. पार्टी पिछले दो चुनावों में इस क्षेत्र में आगे रही है. यहां तक कि 2018 में भी, जब वह राज्य में कांग्रेस से हार गई थी. 2013 और 2018 दोनों में मेवाड़ में गुर्जर-प्रभावित सीटों पर भाजपा ने 14 और 10 सीटें हासिल कीं.
ढूंढाड़ क्षेत्र की बात करें, तो 2013 में यहां की गुर्जर बाहुल्य सीटों पर बीजेपी का प्रभाव दिखा था. वहीं 2018 चुनावों में यह कांग्रेस के खाते में चला गया. कांग्रेस ने ढूंढाड़ की गुर्जर-प्रभावित सीटों में 18 सीटों पर जीत हासिल की. जबकि बीजेपी ने सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल की. बीजेपी को 2013 की तुलना में 14 सीटों का नुकसान हुआ. जबकि 2 सीटें अन्य के खाते में गईं.
गुर्जर प्रभाव वाली 40 सीटों में से आठ शहरी इलाकों में और 32 ग्रामीण इलाकों में हैं. इन सभी सीटों पर समुदाय का रुझान एक जैसा दिखा. भाजपा ने 2013 में 6 शहरी और 23 ग्रामीण सीटों पर जीत हासिल की. वहीं, 2018 में कांग्रेस ने 4 शहरी और 20 ग्रामीण सीटों पर जीत हासिल की.
2018 में, कांग्रेस ने 12 गुर्जर उम्मीदवार और भाजपा ने 9 उम्मीदवार उतारे. जबकि कांग्रेस के सात उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. इनका स्ट्राइक रेट 58 प्रतिशत था. यह कांग्रेस में सभी जातियों की तुलना में सबसे अच्छा था. लेकिन बीजेपी का कोई भी गुर्जर उम्मीदवार नहीं जीता. 2023 के चुनाव में कांग्रेस ने 10 और बीजेपी ने 11 गुर्जर उम्मीदवारों को टिकट दिया है.
गुर्जर-मीणा प्रतिद्वंद्विता से उलझा मामला
गुर्जरों ने पारंपरिक रूप से भाजपा का समर्थन किया है, जबकि मीणा समुदाय कांग्रेस पार्टी का समर्थन करता आया है. दोनों समुदायों के बीच लंबे वक्त से मनमुटाव चल रहा है. यह 2006 से और भी बदतर हो गया है जब गुर्जरों ने एसटी दर्जे की मांग की.
राजस्थान में गुर्जर और मीणा आबादी लगभग बराबर है. माना जाता है कि प्रतिद्वंद्विता के चलते दोनों समुदाय किसी एक पार्टी को वोट नहीं देते. 40 गुर्जर-प्रभावित सीटों में से 16 पर मीणाओं की भी अच्छी-खासी आबादी है. 2008 में इन 16 सीटों में कांग्रेस 6 सीटों पर आगे थी. जबकि 2013 में बीजेपी को 16 में से 10 पर जीत मिली थी. 2018 में कांग्रेस ने 16 में से 11 सीटें हासिल की थीं.
कांग्रेस ने 33 एसटी उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जबकि 25 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं, अन्य आठ सीटों पर मीणा समुदाय के उम्मीदवार उतारे गए हैं. कांग्रेस की कोशिश गुर्जर वोट को बनाए रखने के साथ मीणा वोटरों को भी खुश करने की है.
बीजेपी भी किरोड़ी लाल मीणा को मैदान में उतारकर मीणाओं को लुभाने की कोशिश कर रही है. इससे गुर्जरों के बीच बीजेपी की पहुंच पर भी असर पड़ सकता है. एक चैनल पर जनमत सर्वे करने वाली सर्वे कंपनी के सूत्रों के मुताबिक, लगभग 60% गुर्जर भाजपा और 40% कांग्रेस पार्टी का समर्थन कर सकते हैं.
ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कर्नाटक में लिंगायतों की तरह बीजेपी से बदला लेंगे गुर्जर? या क्या सचिन पायलट कांग्रेस के लिए गुर्जरों को एकजुट रख सकते हैं?