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लक्ष्मणगढ (सीकर) क्षेत्र से लगातार तीन चुनाव जीतकर डोटासरा बड़े नेता बने, लगातार चार चुनाव हारकर भी महरिया मैदान में डटे
अरविन्द चोटिया। लक्ष्मणगढ़ विधानसभा क्षेत्र में 2008 का चुनाव आज के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंदसिंह डोटासरा के राजनीतिक करियर का टर्निंग पोइंट था। इस चुनाव में डोटासरा महज 34 वोट से जीतकर विधायक बने थे। इस चुनाव में उन्हें महज 31534 वोट मिले थे। 31500 वोट उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय दिनेश जोशी को और 28500 वोट कॉमरेड विजेंद्र मील को मिले थे। इस चुनाव में बीजेपी के मदन सेवदा जमानत जब्त करा बैठे थे। 2013 के चुनाव ने डोटासरा को नेता बना दिया।
इस बार बीजेपी ने यहां से उन्हीं सुभाष महरिया को मैदान में उतारा जो अब फिर से डोटासरा के सामने खड़े हैं। और निर्दलीय दिनेश जोशी भी मैदान में थे। इस बार फर्क यह आया कि बीजेपी के महरिया करीब 45000 वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रहे, निर्दलीय दिनेश जोशी ने भी वोट बढ़ाकर 43500 कर लिए लेकिन डोटासरा ने यह चुनाव करीब 11000 वोटों से जीतकर खुद को नेता के तौर पर स्थापित कर लिया। यह चुनाव मोदी लहर का था। कांग्रेस के 21 ही विधायक थे और डोटासरा उनमें से एक थे। इसी चुनाव में महरिया के भाई नंदकिशोर महरिया पड़ोस की फतेहपुर सीट से निर्दलीय जीतकर आए। ठीक ऐसे ही हालात इस बार भी हैं। 2018 के चुनाव में लगातार निर्दलीय ताल ठोक रहे दिनेश जोशी को इस बार बीजेपी ने टिकट दे दिया लेकिन डोटासरा ने इस बार जीत का अंतर दुगुने से भी ज्यादा कर लिया। 99000 से ज्यादा वोट लेकर वे तीसरी बार विधानसभा पहुंचे।
होने को महरिया बड़े नेता हैं लेकिन कहते हैं- बड़ा नेता वही जो चुनाव जीत सके। महरिया ने लोकसभा के तीन चुनाव लगातार जीते भी हैं लेकिन 2004 का लोकसभा चुनाव आखिरी था। जब उन्हें जीत मिली थी। इसके बाद के 19 बरसों में वे जीत का मुंह देखने को तरस गए। वे भाजपा के टिकट पर भी लड़ चुके, निर्दलीय भी और कांग्रेस के टिकट पर भी। लेकिन चुनाव नहीं जीत पा रहे। अब फिर उन पर बाहरी का टैग है। हवाओं का रुख भी देखिए। लक्ष्मणगढ़ के एक तरफ सीकर है, एक तरफ नवलगढ़ है, एक तरफ धोद है और एक तरफ सुजानगढ़। यानी कांग्रेस बहुल सीटों से घिरा हुआ क्षेत्र।
फिर लक्ष्मणगढ़ का भीतरी द्वंद्व देखिए। महरिया को टिकट मिलने से स्थानीय भाजपाई कतई खुश नहीं हैं। परंपरागत उम्मीदवार दिनेश जोशी और पिछले पांच साल से तैयारी कर रहीं अलका शर्मा भी ताल ठोक सकती हैं। एक फैक्ट और जुड़ा हुआ है महरिया के साथ। 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने महरिया के लिए की रैली में ही जाटों को ओबीसी में शामिल करने की घोषणा की थी। बीजेपी के कोर वोटर मूल ओबीसी में तो इसकी नाराजगी दिखती है लेकिन जाटों के बीच कैसे वे इसे कैश कर सकते हैं, यह देखने वाली बात होगी क्योंकि ओबीसी आरक्षण का मुद्दा इस बार गरमाया हुआ है।
लगातार तीन बार विधायक रहने से गोविंदसिंह डोटासरा के अब काग्रेस के बड़े नेता हैं। इसका फायदा भी है तो नुकसान भी। फायदा ये है कि उन्होंने काम काफी करवाए हैं और नुकसान ये कि लोगों को लगता है उनमें घमंड आ गया है। (घमंड/अहंकार बड़ी चीज है इस इलाके में) कई इलाकों से शिकायत यह कि उन तक सीधी पहुंच नहीं है। दो युवा नेता उनकी मुश्किल बढ़ा सकते हैं। इनमें से एक हैं कॉमरेड विजेंद्र ढाका और दूसरे हैं विजयपाल बगड़िया। ढाका और बगड़िया छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं जबकि बगड़िया जिला परिषद सदस्य भी हैं। अलका शर्मा आरएलपी या बीएसपी के झंडे तले मैदान में उतर सकती हैं।