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राजस्थान चुनाव विश्लेषण ; दो नेतृत्व, एक दस्ताने-पेड पहन कर खुद मैदान में, दूसरा थर्ड अम्पायर
मुकेश माथुर
हम उस दौर में हैं जहां चुनाव अब जमीन से ज्यादा मीडिया-सोशल मीडिया के क्लाउड में लड़ा जा रहा है। इन बादलों में कौनसी पार्टी कितनी उमड़-घुमड़ रही है और रोज की सुर्खियों में, आम आदमी के इनबॉक्स में कौन ज्यादा दिख रहा है यह महत्वपूर्ण हो गया है। लाज़मी है कि राजनीतिक दल हमसे ज्यादा इस बात को समझते होंगे। अब सवाल उठता है कि अपनी विज़िबिलिटी बनाए रखने में कौन आगे है? भाजपा या कांग्रेस? कुछ दृश्यों में जवाब निहित है।
#दृश्य_एक: मुख्य चुनाव आयुक्त ने चुनाव की तारीख घोषित की। भाजपा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। अध्यक्ष सीपी जोशी, प्रतिपक्ष के नेता राजेन्द्र राठौड़ और उपनेता सतीश पूनिया मौजूद थे। राठौड़ ने कहा, देव उठेंगे और जनता मतदान कर असुर रूपी सरकार का मान मर्दन करेगी। प्रेस कॉन्फ्रेंस कांग्रेस भी कर सकती थी। गहलोत सरकार के कामों को बुलंदी से बताती। फिर लौटने का विश्वास दिलाती। ऐसा नहीं हुआ।
#दृश्य_दो: किरोड़ी लाल मीणा मीडिया से मिले फिर उनके पीछे-पीछे ईडी और इनकम टैक्स वाले लॉकर खंगालने गणपति प्लाजा पहुंचे। नाटकीय घटनाक्रम। चुनाव में हर दिन नए नैरेटिव गढ़ने होंगे, दूसरों के नैरेटिव की काट लानी होगी, कभी विक्टिम कार्ड खेलना होगा, कभी हमले करने होंगे। किसी भी तरह चर्चा में बने रहना होगा, दिखते रहना होगा। किरोड़ी प्रहसन में कांग्रेस को ठीक से दिखना चाहिए था क्योंकि पार्टी जो कहती आई है कि जांच एजेंसियां इशारे पर काम करती हैं, उसका साक्षात उदाहरण उस दिन प्रकट हुआ था। कहां थी कांग्रेस? सीएम को ही हर चीज पर बयान देना है तो आचार संहिता लगने के बाद भी सरकार को ही आगे बढ़ाइए, संगठन की क्या जरूरत?
हालत यह है कि पार्टी के प्रवक्ता पैनल डिस्कशन में मुद्दों पर पार्टी का पक्ष रखने के लिए जो स्क्रिप्ट तैयार करके शीर्ष नेताओं को भेजते हैं उस पर हां-ना तक नहीं आती।
कांग्रेस की दूसरी दिक्कत और भी गंभीर है। गहलोत-सचिन एक हैं, या चुनाव के लिए एकजुट हैं, पार्टी इसका संदेश ही कार्यकर्ता तक नहीं पहुंचा पा रही हैं। खिंचाव साफ दिखता है। शुक्रवार को चुनाव समिति की बैठक के बाद पत्रकारों से बातचीत होनी थी। अध्यक्ष डोटासरा ने सचिन को साथ आने को कहा, वे नहीं आए। पत्रकारों से बात डोटासरा-गहलोत ने ही की। कभी किसी मंच पर सचिन-गहलोत साथ होते भी हैं तो साथ न होने जैसे ही होते हैं। क्या पार्टी के पास इस आधारभूत मुद्दे पर कोई प्लान नहीं है? चुनाव में 42 ही दिन बाकी हैं और एका एक ही बात पर लग रहा है- तुम तुम्हारी लड़ाई लड़ो, मैं अपनी लड़ता हूं।
मध्यप्रदेश में खुद को झोंक रहे शीर्ष नेताओं ने भी लगता है राजस्थान के मामले में जैसे सीएम गहलोत को कह दिया हो- आप यहां तक लेकर आए हो, आगे भी आप ही लेकर जाओ। ऐसा कहना आलाकमान के लिए सुविधाजनक है, कांग्रेस के लिए हानीकारक।
41 सीटों वाले ट्रेलर को देख कर भाजपा के शीर्ष नेता सकते में हैं। कोर कमेटी की बैठक में एक ने कहा- नेतृत्व ने स्ट्रेटजी बदल दी है, हमें तो जो बताया जा रहा है उसमें जुटना है। फिलहाल असंतुष्टों से उनके घर जाकर मिलने का टास्क है। बातों-बातों में शीर्ष नेताओं को समझ में आ गया कि तनाव लेने से कुछ नहीं होगा सो हंसी-मजाक में पूरी बैठक गुजरी। लोग पूछ रहे हैं कि वसुंधरा राजे क्या करेंगी, इस बैठक में राजे ने बाकियों से पूछा- मुझे कुछ करना है तो बताइए?
इस बीच दोनों पार्टियों में कुछ नाम अजीब कश्मकश में फंसे हैं। गजेन्द्र सिंह- सीएम के मजबूत उम्मीदवार लेकिन वर्तमान सीएम के सामने लड़ने न लड़ने का प्रश्न। राजेन्द्र राठौड़-चूरू ही या कहीं और? लालचंद कटारिया- झोटवाड़ा या आमेर? लड़ना भी चाहते हैं कि नहीं? अशोक लाहौटी- टिकट या टिकट नहीं? राजवी परिवार- अभी संभावना बाकी? सिद्धि कुमारी- टिकट या टिकट नहीं? फेहरिस्त में एक और नाम दिव्या मदेरणा का था- भाजपा? लेकिन दिव्या ने साफ कह दिया है- कांग्रेस।
कुल मिला कर चुनाव घोषणा के बाद पहले हफ्ते की बड़ी तस्वीर यह है कि एक नेतृत्व ऐसा जो दर्शक की भूमिका में है और देखना चाहता है कि स्थानीय लीडरशिप क्या करती है। दूसरा ऐसा जिसने स्थानीय नेताओं की सारी महत्वाकांक्षाएं और मैं, मेरा, मेरे लिए वाले सारे सवाल हाशिए पर रख कर अपने हिसाब से चीजें संचालित करनी शुर कर दी है।