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राजस्थान सियासी संग्राम: कोई भी अदालत गहलोत को कुर्सी से नही हटा सकती, जानिए क्यों?
महेश झालानी
जब भी कोई जंग छिड़ती है तो उसका ज्यादातर परिणाम समझौता होता है। राजस्थान में छिड़ी कांग्रेस की सियासी जंग का अंतिम परिणाम क्या होगा, इस पर अनेक राजनीतिक पंडित अपने अपने कयास लगा रहे है। मेरा मानना है कि पायलट गुट इसी तरह अड़ा रहा तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग सकता है या फिर होगा आपसी समझौता। यह समझौता किन शर्तो पर होगा, फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
सचिन पायलट के पास कोई और विकल्प हो तब भी - और न हो तब भी, बेस्ट ऑप्शन नयी पार्टी बनाना ही है। बशर्ते ये बीजेपी के साथ सचिन पायलट ने भीतर ही भीतर कोई डील कर रखी हो। लेकिन जिस दृढ़ता से पायलट खेमा इनकार कर रहा है कि वे भाजपा में नही जा रहे है। इसका मतलब स्पस्ट है कि यह गुट अंततः समझौता चाहता है। इस समझौते के तहत अशोक गहलोत की बलि भी चढ़ सकती है। अलबत्ता तो गहलोत इसके लिए किसी भी कीमत पर सहमत नही होंगे । एक मिनट को गहलोत मान भी जाते है तो वे अपना उत्तराधिकारी शांति धारीवाल को बनाना चाहेंगे। जबकि पायलट खेमा चाहेगा कि परसादीलाल मीणा या बीड़ी कल्ला में से कोई एक व्यक्ति मुख्यमंन्त्री की कुर्सी पर आसीन हो।
सचिन पायलट को स्पीकर के नोटिस पर हाई कोर्ट जाना चाहिये था या नहीं, यह आज भी बहस का विषय है। कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सचिन पायलट को स्पीकर सीपी जोशी के एक्शन का इंतजार करना चाहिये था, फिर कोर्ट का रूख करते तो अच्छा होता। सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट का फैसला भले ही फौरी तौर पर पायलट के समर्थन में आ गया हो, लेकिन इससे पायलट गुट को फायदा क्या होगा ? पायलट गुट का बुनियादी मकसद गहलोत को उनकी हैसियत बताना था। पायलट इसमें काफी हद तक सफल रहे है।
सचिन पायलट गुट के सभी विधायक अब भी कांग्रेस में ही है। इस प्रकार पायलट गुट ने बड़ी चतुराई से समझौते का रास्ता खोल रखा है। पायलट गुट की दलील है कि उनकी पार्टी या पार्टी आलाकमान से कोई अदावत नही है। अदावत है तो केवल गहलोत से है। इन्होंने उप मुख्यमंत्री सहित अनेक विधायको का एसओजी व एसीबी का नोटिस भेजकर सार्वजनिक रूप से अपमान किया है। अफसरों को पायलट की जासूसी पर लगाकर गहलोत ने घृणित कार्य किया है।
पायलट गुट के पास आखिरी विकल्प बचा हहै कि वह गांधी परिवार के दरबार में हाजिरी लगाकर आगे भी पार्टी में बने रह सकते हैं। अगर सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा को अपनी बात नहीं समझा पाने में सचिन पाटलट नाकामयाब रहते है तो वे अपने साथी विधायको के साथ बीजेपी भी ज्वाइन कर सकते हैं और अपनी नयी पार्टी भी लांच कर सकते हैं। लेकिन इसकी संभावना कम नजर आती है। क्योंकि पायलट को शामिल करने से भाजपा को कोई लाभ नही मिलने वाला है। वे मुख्यमंन्त्री से कम किसी पद के लिए राजी नही होंगे। अगर यही पद मिलता है तो उनके लिए कांग्रेस में रहना आज भी फायदे का सौदा है। दस-पन्द्रह दिनों में पायलट ने अपने राजनीतिक कद से लोगो को भलीभांति अवगत करा दिया है ।
भाजपा को मरा सांप गले मे लटकाने का कोई शौक नही है। कोशिश करके पायलट अधिकतम 20-22 विधायको का बंदोबस्त कर सकते है। जैसे तैसे भाजपा ने पायलट तथा अन्य निर्दलीयों की मदद से सरकार बना भी ली तो वह पायलट को मुख्यमंन्त्री क्यों बनाएगी ? अगरचे बना भी दिया तो छह महीने बाद पायलट ना घर के रहेंगे ना घाट के। इनको मक्खी की तरह बाहर निकालकर किसी भाजपा नेता की ताजपोशी की जा सकती है।
भाजपा में एक और अहम किरदार वसुंधरा राजे भी है। इनके होते हुए ना तो पायलट मुख्यमंन्त्री बन सकते है और न ही गजेंद्र सिंह शेखावत। शीर्ष नेताओं ने मैडम की उपेक्षा कर किसी को मुख्यमंन्त्री बना भी दिया तो सियासी लड़ाई का मंच कांग्रेस ना होकर बीजेपी होगा। वसुंधरा को करीब 32 विधयकों का समर्थन हासिल है । वह बगावत कर बीजेपी में दो फाड़ करने की हैसियत रखती है। पायलट भी इस स्थिति से बखूबी वाकिफ है। इसलिए हमेशा उनकी ओर से यही बयान आया कि वे कांग्रेस में है तथा भाजपा नही जा रहे है। अरे भाई, जाओगे तो तब, जब तुम्हे कोई लेगा।
नयी पार्टी बनाने का पायलट को फायदा भी है और नुकसान भी है। राजनीति का जो दस्तूर रहा है वही सचिन पायलट के लिए अपना मुकाम हासिल करने का मौका भी साबित हो सकता है। सचिन पायलट के पास फिलहाल तीन विकल्प हैं पहला - कांग्रेस में बने रहें. दूसरा - बीजेपी ज्वाइन कर लें और तीसरा- अपनी नयी पार्टी बना लें। पहले तो सचिन पायलट की कोशिश यही है कि अपनी छवि पर पड़ें छीटों के दाग धो लें। सरकार गिराने की डील में शामिल होने से लेकर, अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को निकम्मा, नकारा और कांग्रेस की पीठ में छुरा भोंकने वाला न जाने क्या क्या कह रखा है. सचिन पायलट ने आरोपों को खारिज करते हुए दुख जताया है। साथ ही, सचिन पायलट ने ₹35 करोड़ की रिश्वत की पेशकश का आरोप लगाने वाले कांग्रेस विधायक को लीगल नोटिस भी भेज दिया है।
अगरचे गहलोत ने पायलट के खिलाफ ओछे और घटिया शब्दो का इस्तेमाल नही किया होता तो संभवतः अब तक दोनों के बीच सम्मानजनक समझौता हो भी जाता। लेकिन गहलोत ने बौखलाहट में अपने करेक्टर के विपरीत पायलट के लिए निकम्मा, नकारा तथा बिकाऊ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर आग में घी डालने का कार्य किया। अगर गहलोत थोड़ा संयम बरतते तो अब तक दोनों गले मिल चुके होते। सलाहकारों के चक्कर मे फंस कर गहलोत ने स्वयं अपने रास्ते मे कांटे बिछा दिए।
जहाँ तक पायलट का सवाल है, उन्हें इस प्रकार मानेसर के होटल में जाकर बगावत डंका नही बजाना चाहिए था। मानेसर जाने से उनकी विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा है । लोग यह मानकर चल रहे है कि पायलट बीजेपी के रिमोट से संचालित हो रहे है । मान लिया कि उनको गहलोत की कार्यशैली से गुरेज था। लेकिन इसका यह मतलब तो नही कि रूठकर मानेसर पड़ाव डाल दिया जाए । जब परिवार में झगड़ा होता है तो उसका निपटारा भी परिवार के भीतर ही होता है न कि पड़ोसी के घर। मानेसर जाने से पायलट की छवि खलनायक जैसी होगई है।
अगर उन्हें विरोध करना था और अशोक गहलोत से नाराजगी थी तो वे अपने समर्थकों के साथ पीसीसी या एआईसीसी पर भी तो धरना दे सकते थे। मानेसर जाना उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी जिसका जल्दी से प्रायश्चित नही हो सकता है। हर किसी के जहन में एक ही सवाल है कि आखिरकार मानेसर के होटलों का ख़र्चा वहन कौन कर रहा है। बीजेपी या कॉरपोरेट हाउस ? इसका जवाब पायलट और फेयर माउंट में बाड़ेबंदी करने वाले अशोक गहलोत को देना ही होगा।
बीजेपी में जाने की बात मैं ऊपर बता चुका हूँ। पायलट के पास फिलहाल एक ही विकल्प है समझौते का। आलाकमान भी टकराहट के बजाय समझौते के मूड में है। इसके अलावा पायलट समर्थक विधायक भी चाहते है कि लड़ाई बहुत आगे तक बढ़ चुकी है। अब इसका समापन होना ही चाहिए। अनिश्चितकाल के लिए मानेसर के होटल को अपना ठिकाना नही बनाया जा सकता है। उधर राहुल और प्रियंका भी समझौते के पक्ष में है। हालांकि पायलट द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने से वे अवश्य खफा थे। लेकिन अब उंन्होने भी मान लिया है कि बातचीत के अलावा कोई बेहतर विकल्प नही है। समझौते में पी चिदम्बरम व भंवर जितेंद्र सिंह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते है। पहले भी भंवर की समझाइश पर पायलट ने उप मुख्यमंत्री पद स्वीकार किया था। समझौते के बाद उनका मुख्यमंन्त्री बनने की भी संभावना हो सकती है, लेकिन लड़ाई से नही।
अपनी पार्टी बनाने का मौका तो ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास भी था, लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई। हो सकता है अपने पिता माधवराव सिंधिया के अनुभव देखते हुए वो कोई जोखिम उठाने को तैयार नही हुए हो। माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस से अलग होकर 'मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस' के नाम से अपनी अलग पार्टी भी बना ली थी, लेकिन बाद में वो कांग्रेस में लौट गये। इनकी पार्टी फ्यूज बल्ब साबित हुई। ऐसा हश्र नई पार्टी का नही हो जाये, इसलिए उन्होंने बीजेपी जॉइन की। चूँकि सिंधिया ठन ठन गोपाल थे, इसलिए बीजेपी जॉइन करना उनके लिए उचित था। लेकिन पायलट के पास डिप्टी सीएम के अलावा पीसीसी चीफ का भी पद था जो उन्हें वापिस भी मिल सकता है।
सचिन पायलट वैसे तो साफ तौर पर कह चुके हैं कि वो बीजेपी नहीं ज्वाइन करने जा रहे हैं। जब भी मौका मिल रहा है ये भी कह रहे हैं कि वो अब भी कांग्रेस में ही हैं। वो अपने ऊपर लग रहे आरोपों का बड़ी ही संजीदगी के साथ जवाब देते हुए पूरा बचाव कर रहे हैं। गहलोत के खिलाफ भी बस इतना ही कहा है कि उनकी सरकार के पास बहुमत नहीं है। वो कोई निजी फायदे की लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि राजस्थान की जनता के साथ किये गये वादों की खातिर आवाज उठा रहे हैं।
सचिन पायलट कैंप से जो बातें छन छन कर सामने आ रही हैं, उनसे तो यही मालूम होता है कि 18 के अलावा कांग्रेस में ऐसे कई विधायक और भी हैं जो सचिन पायलट के साथ हैं। लेकिन वो किसी भी सूरत में बीजेपी में नहीं जाना चाहते। ये वे विधायक हैं जिनकी पूरी जिंदगी कांग्रेस में बीत चुकी है और अब उनको अपनी विरासत की भी फिक्र है। आखिर पायलट भी तो पिता की विरासत की बदौलत ही तो राजनीति आये और यहां तक पहुंचे हैं। ये बुजुर्ग विधायक सचिन पायलट के साथ नयी पार्टी बनने पर कांग्रेस छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन सचिन पायलट के साथ बीजेपी में जाने से बेहतर कांग्रेस को ही मानते हैं।
सचिन पायलट के अलग पार्टी बनाने की सूरत में अगर समर्थक विधायकों की संख्या ज्यादा हो जाती है तो उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ेगी और अशोक गहलोत सरकार को वो आसानी से गिरा सकते हैं। बाद में सचिन पायलट के पास कम से कम दो विकल्प तो होंगे ही - या तो बीजेपी के सपोर्ट से खुद सरकार बना लें या फिर बीजेपी की सरकार को सपोर्ट कर दें. बीजेपी का मिशन भी पूरा हो जाएगा और सचिन पायलट भी अपने सम्मान को पहुंची चोट की भरपायी कर सकते हैं। लेकिन ये सब कयासबाजी है। हकीकत से पर्दा उठने में अभी समय लग सकता है।
मान लिया कि सारे निर्णय हाईकोर्ट, सप्रीम कोर्ट या अंतरराष्ट्रीय कोर्ट से पायलट के समर्थन में आ भी जाते है तो इससे होगा क्या ? ज्यादा से ज्यादा उनकी सदस्यता बरकरार रह सकती है। तो वह आज भी बरकरार है। पार्टी ने उन्हें पद से हटाया है, प्राथमिक सदस्यता समाप्त नही की है। फिर कोर्टबाजी क्यों ? दुनिया की कोई भी कोर्ट गहलोत को तब तक कुर्सी से बेदखल नही कर सकती, जब तक बहुमत उनके पास है। वर्तमान में बहुमत गहलोत के पक्ष में है। इसलिए वे राज्यपाल पर विधानसभा का सत्र बुलाने पर दबाव डाल रहे है।
राज्यपाल फिर लौटा सकते है फाइल
राजभवन में कल मुख्यमंन्त्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में विधायकों द्वारा की गई नारेबाजी और हुड़दंग से बेहद खफा है। इस नारेबाजी के कारण राज्यपाल की नजरों में गहलोत की छवि पर दाग लग गए है। गहलोत ने खुद के लिए केवल दस मिनट का समय मांगा था। जिसे राज्यपाल ने स्वीकार भी कर लिया। लेकिन गहलोत अकेले आने के बजाय पूरी बारात ले आये और इन्होंने मुख्यमंन्त्री की अगुवाई में जमकर नारेबाजी की।
राज्यपाल को गहलोत की यह बात बेहद अखर गई कि प्रदेश की जनता राजभवन को घेर लेगी। ऐसे में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने पर उनकी कोई जिम्मेदारी नही होगी। मुख्यमंन्त्री का यह कथन बहुत ही गैर जिम्मेदाराना था । राज्यपाल ने इस बयान को कॉफी गंभीरता से लिया है। इसके अलावा राज्यपाल इस बात से भी बेहद नाराज हुए कि कई विधायको और मंत्रियों ने मास्क नही लगा रखा था। साथ ही सिविल लाइंस क्षेत्र में धारा 144 लागू होने के बाद भी इतने लोग राजभवन में घुस कैसे गए, गंभीर प्रश्न है। राज्यपाल की ओर से कल की विस्तृत रिपोर्ट केंद्र को भिजवा दी गई है।
ज्ञात हुआ है कि राज्यपाल फिलहाल विधानसभा का सत्र बुलाने के मूड में नही है। सत्र बुलाने का औचित्य उनके समझ मे नही आ रहा है। राज्यपाल का मानना है कि गहलोत उनके कंधे पर बंदूक रख बहुमत सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है। जब किसी ने लिखित में उनके बहुमत को चुनौती दी ही नही है तो सत्र बुलाने का औचित्य ? विशेष परिस्थितयो में सत्र बुलाया जा सकता है तो विशेष परिस्थितियों में इसे टालने का भी राज्यपाल को अधिकार है।
यह लेख राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार महेश झालानी जी द्वारा लिखा गया है और यह उनकी खुद की समीक्षा है.