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ज्ञानेन्द्र रावत
आजकल बीते माह से राजस्थान में राजनैतिक उठापठक का दौर जारी है। इसके सूत्रधार हैं एक समय कांग्रेस के दिग्गज नेता और देश के आंतरिक सुरक्षा मंत्री राजेश पायलट के होनहार बेटे सचिन पायलट। ईश्वर की कृपा कहें या वंशवाद की अमर बेल का प्रताप अपने पिता की असामयिक सड़क दुर्घटना में मृत्यु के उपरांत कांग्रेस हाईकमान ने विरासत के रूप में उन्हें सांसद बनाया, केन्द्र में मंत्री बनाया, राजस्थान जैसे राज्य का प्रदेश अध्यक्ष बनाया और राज्य विधान सभा चुनाव के बाद राज्य का उप मुख्यमंत्री भी बनाया। लेकिन कहते हैं राजनीति में बफादारी का क्या औचित्य। इसे सही मायने में सच कर दिखाया सचिन पायलट ने।
महत्वाकांक्षा होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन उसकी अति बुरी होती है। फिर उस हालत में जबकि आपको कुछ करे बिना बहुत कुछ हासिल हो गया हो। हां प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सचिन के श्रम का सभी लोहा मानते हैं लेकिन चुनाव बाद ही एकदम राज्य के शीर्ष पद हेतु जोड़तोड़ और हठ बहुत जल्द सब कुछ पा लेने की मानसिकता समझ से परे रही। राजनीतिक विश्लेषकों ने भी इस हठ को उचित करार नहीं दिया। फलतः उन्हें राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन वह चुप नहीं बैठे और बीते डेढ़ बरस से राज्य सरकार के लिए परेशानी-दर-परेशानी खड़ी करते रहे। राज्य में गहलौत सरकार को अस्थिर करने के मौजूदा प्रकरण के पीछे सचिन पायलट की तुरंत सब कुछ पा लेने की अति महत्वाकांक्षा जीती जागती मिसाल है। वह बात दीगर है कि इसे परवान चढ़ाने में राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा ने अहम भूमिका निबाही। भले वह इसे कांग्रेस का आंतरिक मामला करार दे। लेकिन इस सच्चाई को कोई भी झुठला नहीं सकता कि इस सबके पीछे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व का वरदहस्त सचिन पायलट को प्राप्त है। भले सचिन इसे नकारें और यह कहें कि वह भाजपा में नहीं जा रहे लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के परोक्ष सहयोग से कोई इनकार नहीं कर सकता। हरियाणा में होटल में सचिन समर्थक विधायकों की बाड़ेबंदी और हरियाणा पुलिस का उन्हें संरक्षण क्या इसके सबूत नहीं हैं। सबसे बड़ी बात इस पूरे प्रकरण में राज्य के संविधान के रक्षक राज्यपाल की भूमिका भी महत्वपूर्ण और संदिग्ध रही है। सर्वोच्च अदालत के पूर्व निर्णयों के विपरीत आचरण इसका ज्वलंत प्रमाण है। इसे भी झुठलाया नहीं जा सकता। हां इस मुद्दे पर बात अगली कड़ी में।
यहां बात सचिन पायलट की है, यहां सबसे अहम सवाल यह है कि उपमुख्यमंत्री रहते वह राज्य की जनता की सेवा नहीं कर पाये, फिर इसकी क्या गारंटी है कि मुख्यमंत्री बनने पर , जिसके लिए उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व तक की सलाह को दरकिनार कर दिया, कांग्रेस के मुख्यमंत्री के खिलाफ विद्रोह करने को तैयार हो गये, कुछ विधायकों को प्रलोभन दे हरियाणा के होटल में भाजपा की छत्रछाया में रखने को तैयार हो गये, वह राज्य की जनता की मुख्यमंत्री बनकर ही बेहतर सेवा कर पायेंगे। भई अगर सेवा का इतना ही जुनून है तो गांव-गांव जाकर राज्य की पीड़ित, शोषण और उपेक्षित जनता की सेवा करने से उन्हें किसने रोका है। सेवा मुख्य मंत्री बनकर ही की जा सकती है। यह समझ से परे है।
जन सेवा न कर पाने का मलाल कांग्रेस में रहकर मध्य प्रदेश में श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी था। वह भी अपने कुछ विधायकों को लेकर भाजपा में चले गये। सरकार भले कांग्रेस की उन्होंने मध्य प्रदेश में गिरिवर भाजपा की बनवा दी, लेकिन भाजपा में रहकर वह कौन सी जनसेवा करेंगे जो कांग्रेस में नहीं कर पा रहे थे। वह भूल गये कि उनके पिता की असामयिक मौत के बाद उन्हें भी कांग्रेस ने ही सांसद-केन्द्र में मंत्री बनाया था। भाजपा में जाकर भी वह मुख्य मंत्री नहीं बन पाये। फिर सचिन ने यह कैसे सोच लिया कि वह राजस्थान में कांग्रेस से विद्रोह कर भाजपा उन्हें राज्य में मुख्यमंत्री बना देती। वह भूल गये कि कांग्रेस ने उन्हें उस समय राज्य में पार्टी की बागडोर सौंपी थी जबकि बड़े-बड़े कद्दावर नेता उस पद के दावेदार थे। उन्हें इस बात का भी भान नहीं होगा कि राजनीति में केवल जाति का नेता होना काफी नहीं होता। अनुभव और सभी को साथ लेकर चलने की विशेषता भी जरूरी होती है। उन्हें तो दो दशक भी पूरे नहीं हुए हैं राजनीति में। इस पद तक पहुंचने में बरसों लग जाते हैं। वैसे वर्तमान राजनीतिक माहौल में कार्यकर्ता तो केवल दरी बिछाने ,भीड़ इकट्ठी करनेऔर नारे लगाने तक ही सीमित रह गया है। विधायक, सांसद, मंत्री बनना तो उसके लिए आकाश से तारे तोड़ने के समान है। इसके लिए तो विशेषाधिकार केवल शीर्ष नेता पुत्रों के लिए आरक्षित है।
कुलमिलाकर यहां कहने का आशय यह है कि वर्तमान में राजस्थान में जिस तरह की राजनीति देखने को मिल रही है और उसकी सजा राज्य की जनता को भुगतना पड़ रहा है, उसके लिए केवल और केवल सचिन पायलट ही दोषी हैं। इसके लिए इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। हो सकता है उनकी करनी का परिणाम राज्य को राष्ट्रपति शासन के रूप में ना भुगतना पड़े जिसके लिए भाजपा पलक पाँवड़े बिछाने बैठी है।
यह सब कहने का मेरा मतलब यह है कि राजनीति में सब कुछ ऐसे ही नहीं मिल जाता। उसके लिए त्याग, अनुभव और नेता के प्रति बफादारी की भी अहम भूमिका होती है। अच्छा होता यह सब करने से पहले सचिन पायलट ने राजस्थान के महान नेता, शिक्षाविद, उत्तर प्रदेश में मंत्री, मुख्यमंत्री रहे और बाद में राजस्थान के राज्यपाल रहे डा. संपूर्णानंद के जीवन से कुछ सीखा होता। यहां हम प्रख्यात शिक्षाविद, विचारक डा. रामजीलाल जांगिड़ के विचारों को इस आशय से आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं कि राजनीति करने वालों को डा. संपूर्णानंद के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए ना कि केवल अपने स्वार्थ के चलते विश्वास और उपकार को तिलांजलि दे विरोधी के सामने नतमस्तक हो जायें।
डा. जांगिड़ के अनुसार -
डा• सम्पूर्णानंद जी ने काशी के क्वींस (Queen's) कालेज से विज्ञान में स्नातक (बी•एस•सी•) और प्रयाग से एल•टी• की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह वृंदावन के प्रेम महाविद्यालय और बीकानेर (राजस्थान) के डूंगर कालेज के प्रधानाध्यापक बन गए। बीकानेर से नौकरी छोड़ कर वह वर्ष 1921 में काशी लौट आए और हिन्दी मासिक 'मर्यादा' और अंग्रेजी दैनिक 'टुडे' के सम्पादक (31 वर्ष की आयु में ) बन गए। जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आह्वान किया, तब काशी विद्यापीठ स्थापित की गई। सम्पूर्णानंद जी को वहां शिक्षक नियुक्त कर दिया गया। वहीं वह पढ़ाते पढ़ाते सत्याग्रह में भाग लेते और जेल आते जाते रहे।
36 वर्ष की आयु में (वर्ष 1926 में) उन्होंने एम•एल•ए• का पहला चुनाव जीता। ग्यारह साल बाद 47 वर्ष का होने पर उन्हें (वर्ष 1937 में) उत्तर प्रदेश का शिक्षा मंत्री नियुक्त किया गया। पहले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को एम•एल•ए• और मंत्री बनाने के लिए काफी अनुभव प्राप्त करना पड़ता था। हाल में एक अधेड़ (युवा तो रहा नहीं) व्यक्ति केंद्रीय मंत्री, उप मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष रहने के बाद भी 'चांद दे दो' की जो जिद्द पकड़े हुए हैं, उसे सम्पूर्णानंद जी जैसे स्वतंत्रता सेनानी के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। जिन्हें मंत्री पद 47 वर्ष की आयु में मिला। फिर भी वह सत्याग्रह करते रहे, जेल आते जाते रहे। पार्टी के प्रति निष्ठा बनाए रखी। आज़ादी के पहले बने कांग्रेसी मंत्रिमंडल में वह गृहमंत्री, वित्तमंत्री, और सूचना मंत्री भी रहे। उनकी अद्भुत कार्य कुशलता और नेतृत्व की क्षमता से प्रभावित होकर उन्हें आज़ादी के बाद 65 वर्ष की आयु में वर्ष 1955 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चुना गया। वह दो बार मुख्यमंत्री रहे। सात साल मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्हें वर्ष 1962 में उसी राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने शिक्षक के रूप में वर्ष 1921 तक सेवा दी थी।
डा. संपूर्णानंद जी का जीवन राजनीतिज्ञों के लिए प्रेरणा स्रोत तो है ही, प्रकाश स्तंभ भी है। ऐसे थे हमारे राजनेता जिनका नाम इतिहास में सदा याद रखा जायेगा। शायद देश की राजनीति की नयी पीढ़ी उनके जीवन से कुछ सबक ले सके। इस लेख का यही पाथेय है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार, विचारक एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।)