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आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बीजेपी पर ठीकरा फोड़ने से कांग्रेस अपनी खोई प्रतिष्ठा ला पाएगी ? हकीकत यह है कि जो हालत आज कम्युनिस्ट पार्टी की है, उससे बदतर हालत कांग्रेस की है । कांग्रेस 2024 का चुनाव जीतने का ख्वाब देख रही है । महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जिस तरह पार्टी में घमासान और मारधाड़ मची हुई है उसको देखकर लगता नही है कि तब तक कांग्रेस का वजूद बरकरार भी रहेगा । अशोक गहलोत से लेकर सचिन पायलट तक सभी बुलडोजर लेकर पार्टी के अस्तित्व को मिटाने में सक्रिय है । गांधी परिवार के शहजादे राहुल और शहजादी प्रियंका तो पहले से इस कार्य को अंजाम देने में जुटे हुए है ।
अपनी नाकामयाबियों पर पर्दा डालने की गरज से कांग्रेसियो द्वारा आजकल बीजेपी को गाली देना एक परम्परा बन गई है । ऐब करे कांग्रेसी और गाली बीजेपी को, यह कोई न्यायसंगत बात नही है । हाल ही में राजस्थान कांग्रेस की घटना से बीजेपी का दूर दूर तक कोई ताल्लुक नही है । न तो बीजेपी की ओर से जयपुर में पर्यवेक्षक भिजवाए गए और न ही शांति धारीवाल को भड़काने बीजेपी का कोई नेता उनके घर गया । फिर सारा ठीकरा बीजेपी के सर पर क्यो ? हकीकत यह है कि तमाम कांग्रेसी मिलकर अपने ही हाथों पार्टी की कब्र खोदने पर आमादा है । ऐसे में बीजेपी पर ठीकरा फोड़कर कांग्रेसी अपनी काली करतूतों से बच नही पाएंगे । यह जनता है जो सब जानती है ।
हकीकत यह है कि कांग्रेस में आलाकमान नामक व्यक्ति का पूरी तरह वजूद समाप्त हो चुका है । तभी तो पिछले पचास साल से एक लाइन के प्रस्ताव को पारित कराने की परंपरा को अशोक गहलोत ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया । भले ही वे कितनी सफाई दे या माफी मांगे, पर्दे के पीछे से पूरी फिल्म का निर्देशन वही कर रहे थे । निर्देशन के अलावा उन्होंने माफी मांगने का भी जोरदार अभिनय किया । निश्चित रूप से इस साल का बेस्ट एक्टर और डायरेक्टर का फ़िल्म फेयर, नेशनल और ऑस्कर अवार्ड उन्हें ही मिलना चाहिए ।
बाईगॉड गहलोत ने जिस मासूमियत से माफी मांगी, फ़िल्म देखने वाले दर्शक आंसू बहाने के लिए विवश होगये । इसे कहते है जीवंत अभिनय । अनुपम खैर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी और परेश रावल जैसे अभिनेताओं को गहलोत से सीखना चाहिए कि आखिर अभिनय होता क्या है ? आज दिलीप कुमार, संजीव कुमार या राजू श्रीवास्तव जिंदा होते तो गहलोत के अभिनय को देखने के बाद इन्हें अपना उस्ताद बना लेते । खैर ! भाड़ में जाए प्रतिष्ठा । कुर्सी तो बच ही गई । राजनीति में प्रतिष्ठा और शर्म नामक कोई शब्द होता है क्या ?
कांग्रेसियो को थोड़ी बहुत पार्टी की चिंता है तो बजाय बीजेपी को गाली देने के, खुद का आत्मविश्लेषण करना होगा । इस हकीकत से इनकार नही किया जा सकता है कि कुछ लोग इतने सत्तालोलुप है कि वे मरते दम तक कुर्सी से चिपके रहना चाहते है । उनकी आखिरी ख्वाहिश भी यही है कि उनका दम ही कुर्सी पर निकले । दूसरी ओर सचिन पायलट जैसे कुछ ऐसे भी नेता है जो कुर्सी पाने के लिए बावले हो रहे है । वे यह क्यो भूल जाते है कि कुर्सी पाने के लिए "रगड़ाई" जरूरी है । बिना रगड़ाई के कुर्सी मांगना मुनासिब नही है ।
एक सवाल आज सबसे महत्वपूर्ण यह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव सम्पन्न होंने के बाद आखिर गांधी परिवार का होगा क्या ? यद्यपि आलाकमान का रुतबा पहले ही गांधी परिवार गंवा चुका है । राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद सोनिया, राहुल और प्रियंका की हैसियत क्या होगी, यह मौजू सवाल है । सोनिया के हाथ से अध्यक्ष पद छिन जाएगा और खड़गे होंगे नए राष्ट्रीय अध्यक्ष । ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आलाकमान की कुर्सी पर कौन आसीन रहेगा - खड़गे या सोनिया ? यदि सोनिया रहती है तो किस हैसियत से ? जिस तरह कांग्रेसियो में "उठाने" की आदत पड़ गई है, उसको देखकर नही लगता कि कांग्रेस कभी गांधी परिवार से मुक्त हो पाएगी ।
इस हकीकत से इनकार नही किया जा सकता है कि कांग्रेसियो में दासता की प्रवृति खून में समा चुकी है । हर कांग्रेसी को सम्मानजनक तरीके से सोनिया के साथ साथ राहुल और प्रियंका का भी नाम लेना जरूरी है । गलती से तीनों में से किसी एक का नाम छूट गया तो उस कांग्रेसी का कैरियर चौपट होना लाजिमी है । कोई बता सकता है कि राहुल गांधी ने किस हैसियत से अशोक गहलोत को सीएम पद छोड़कर अध्यक्ष का चुनाव लड़ने का निर्देश दिया । सवाल यह भी महत्वपूर्ण है कि राहुल से इजाजत मांगने गहलोत क्यो गए थे, क्या राहुल पार्टी के अध्यक्ष है ?
एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि राहुल और प्रियंका ने किस हैसियत से कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब के सीएम की कुर्सी से हटाया ? सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब चुनाव की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है तब उस पद की सारी शक्तियां उस पद को धारित करने वाले व्यक्ति से हस्तांतरित होकर निर्वाचन अधिकारी में निहित हो जाती है । उल्लेखनीय है कि अध्यक्ष के निर्वाचन की 22 सितम्बर को अधिसूचना जारी की गई और 24 सितम्बर से नामांकन दाखिल करना प्रारम्भ हुआ ।
जब चुनाव की प्रक्रिया प्रारम्भ ही हो चुकी थी तो सोनिया ने किस हैसियत से राजस्थान में सीएम बदलने के लिए पर्यवेक्षक भेजे, है कोई पूछने वाला या बताने वाला ? सोनिया का यह फैसला पूरी तरह गैरकानूनी और लोकतंत्र के विपरीत है । इसके अलावा गहलोत ने सोनिया से माफी मांगी, वह भी दासता की पराकाष्ठा है । जब सोनिया को पर्यवेक्षक भेजने का कोई कानूनी अधिकार ही नही था तो किस बात की मॉफी ? वे एक सम्मानित महिला तो हो सकती है । लेकिन चुनाव की घोषणा होने के बाद कोई नीतिगत या महत्वपूर्ण फैसला लेने का कोई कानूनी या नैतिक अधिकार नही है ।
खड़गे का निर्वाचित होना सौ फीसदी तय है । अध्यक्ष बनने के बाद आलाकमान कौन रहेगा, खड़गे या सोनिया ? अथवा राहुल और प्रियंका पहले की तरह घोंचा करते रहेंगे ? इस हकीकत से कोई भी इंकार नही कर सकता है कि खुद कांग्रेसी गांधी परिवार से इतने आतंकित और भयभीत है कि तीनों में से कोई भी पादता है तो सभी कांग्रेसी पाद को बदबूदार बताने के एक स्वर में सुगन्धित बताने की होड़ में सक्रिय हो जाते है । किसी भी कांग्रेसी में इतनी हिम्मत नही है कि गांधी परिवार के सडांध मारते पाद को बदबूदार बता या कह सके ।
कांग्रेसियों की इसी दासता और गांधी परिवार की तानाशाही के चलते काँग्रेस का यह दुर्गति हुई है । कांग्रेस एक राजनीतिक दल रहने के बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई है । खुदा बचाए इन कांग्रेसियो को जिनमे संजय गांधी तक को अपने बूढ़े कंधों पर उठाने की पुरानी आदत है । सत्ता पाने के लिए व्यक्ति को इतना नीचे भी गिरना पड़ता है क्या ? आपके कमेंट आमंत्रित है ।