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13 नवम्बर छठ पर्व पर विशेष, सूर्य की उपासना का महान पर्व है 'छठ' -ज्ञानेन्द्र रावत
हर साल दीपावली के छठवें दिन मनाया जाता है छठ का त्योहार। दरअसल यह पर्व सूर्योपासना का ही प्रमुख पर्व है। इसकी शुरूआत कब और कैसे हुयी, इसका उल्लेख न किसी दर्शन में और न किसी श्लोक में ही मिलता है। माना जाता है कि स्त्रियों के हृदय में इसकी आस्था स्वयंभू की तरह अपने आप उभरी। पहले यह केवल बिहार से बनारस तक ही मनाया जाता था। छठ के गीतों से इसकी पुष्टि होती है लेकिन अब यह पर्व कमोवेश समूचे उत्तर भारत में बड़े धूमधाम और श्रद्धा से मनाया जाता है। कारण स्पष्ट है कि देश में जहां-जहां बिहार के लोग हैं, वहां पर इस पर्व की छटा देखते ही बनती है। हर शहर-गांव में इस पर्व के लिए खासतौर से घाट बनाए जाते हैं। यही नहीं इसकी तैयारियां दीपावली से पहले से ही शुरू हो जाती हैं। हर परिवार में छठ की तैयारियां जोर-शोर से होने लगती हैं। ठेकुआ, सिंदूर, डलिया, सूप, नारियल, रसियाव यानी गुड़ और चावल की खीर, घीया, भात, चने की दाल की अंतहीन सूची इस माहौल को भर देती है। इस माहौल में घर-घर में पवनी है जो पवित्रता से छठ का त्योहार मनाती है। सूर्यदेव को अध्र्य देने हेतु गंगा की ओर चलती है। रास्ते में हजारों-हजार महिलाओं और पुरुषों का झुंड गंगा किनारे पहुंचने की बेताबी लिए आगे बढ़ रहा है।जहां हजारों-हजार पवनियां, स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, उमड़-घुमड़ ही गंगा को देखते हैं। परिवार के पुरुष रास्ता बनाकर पवनी से अध्र्य दिलवाने ले जा रहे हैं। पवनी परिवार के मंडप के नीचे धीेरे-धीरे दौरी उठा अध्र्य देने के लिए आगे बढ़ रही है। सभी रास्ता देने के लिए बेचैन हैं। सबसे बड़ी बात यह कि कोई रास्ता काटना नहीं चाहता। और फिर अध्र्य देना प्रारंभ होता है। सभी गंगा के बीच खड़े होकर एकाग्र मानस से सूर्य को नमस्कार करते हैं और अध्र्य दे अपने को धन्य मानते हैं।
गौरतलब है कि अध्र्य देकर लौट रहे लोगों के चेहरे पर व्रत के उपवास की गरिमा है। वह बात दीगर है कि पानी के बिना उनके होठों पर पपड़ी भी पड़ गई है। लेकिन इसके बावजूद निष्ठा के तप से उनका जीवन ओतप्रोत है और होंठ थिरक-थिरक कर गीत गा रहे हैंः
''चारो पहर रति जल थल सेवली चरण तोहारे,
छठी माता दर्शन देहि, अपान दीनानाथ,
ससुरा में मांगिला, धन, अन, सोनवा,
नहिरा में सहोदर जेठ माई मांगीला,
घोड़वा चढ़न के बेटा मांगीला, नेपुर सबद्ध पुतोह।
अपना ले मांगिला अवध सिनोरवा, जनम जनम अहिवात।''
असलियत तो यह है कि अधिकतर महिलाएं ही छठ का व्रत करती हैं लेकिन मनौती मांगने की खातिर पुरुष भी निष्ठा से इस व्रत को करते हैं। विशेषता यह कि त्योहार की पवित्रता की रक्षा स्त्रियां ही करती हैं। छठ व्रत एक ऐसी साधना है जहां 'पवनी' अपने आप पुजारिन भी है और गृहिणी भी। इस व्रत में कोई पंडित पूजा कराने नहीं आता। पूजा का सारा का सारा काम पवनी ही करती है। दिवाली की तीसरी रात से ही गीतों की सुर लहरी सुनाई देने लगती हैः
''नारियल से फरले थउद से , ओपर सूगा मंडराए,
मारबो ए सुगवा धनुक से, सुगा गिरिहैं,
मुरझाय सुगिनी जे रोएली वियोग से,
धादित झोहू न सुहाए।''
देखा जाये तो गुस्सा और झुंझलाहट भी है उस आवाज में। सुग्गा ने छठ के लिए जो नारियल जोगा कर रखा था उसमें चैंच मारकर छेद कर दिया था। जी चाहा था कि मार डालूं। पर एक सुगनी भी तो है, सूगा के वियोग में तड़पने के लिए। इसलिए सूर्य से पवनी मनौती मांगती है कि सुगनी को वियोग से बचालो।
दीपावली के तीसरे दिन से ही पवनी छठ का व्रत शुरू करती हैं। उस दिन कोसी भरने की निष्ठा से ओतप्रोत नहा-धोकर तैयारी में लग जाती हैं। घर-परिवार के सभी लोग बाजार जाकर गेंहंू,फल,कंदमूल,सूप,दौरी,नारियल,सिंदूर आदि लाकर इकटठा करते हैं। पहले दिन अखा चावल का भात, चने की दाल तथा घीये की सब्जी बनती है। खाने में प्याज और लहसुन का लेशमात्र भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। पवनी की मदद को घर-परिवार की ही नहीं, बल्कि आस-पड़ोस की औरतें भी जुट जाती हैं। पवित्रता इतनी कि पवनी का घर मंदिर बन जाता है। 90 साल की पवनी भी दुल्हन की तरह लहलहा उठती है। सब पास-पड़ोस की औरतें पवनी से कहती हैं-'मइया, तुम आराम से बैठो। हम सब कर लेंगे सब कुछ।' और फिर यह कहकर गाना गाना शुरू कर देती हैं। ''रुनकी झुनकी बेटी मांगिला, पड़ल पंडितवा दमाद, सबका बैठन के बेटा मांगिला, गोड़वा लगावन के पतोहू।''
सूर्य देवता से विनती है कि रुनकी-झुनकी बेटी दो और पंडित यानी विद्वान दामाद देना। और मेरे देवता, बेटा देना तो ऐसा कि सबसे मिलकर रहे, प्यार बांटे और जब उसकी शादी हो तो पतोहू ऐसी मिले जो प्रणाम करती रहे और मैं आर्शीवाद देती रहूॅं। दरअसल इस व्रत का सारा दारोमदार पवनी पर ही होता है। दिवाली के छटे दिन तक पूजा का सारा काम पवनी ही करती है। पहले दिन एक बार खाया, दूसरे दिन पूरी तरह उपवास किया और जब चांद निकला तो पवनी ने रोटी और रसियाव यानी गुड़, चावल और दूध का प्रसाद ग्रहण किया। उसके बाद शुरू हुआ उसका निर्जल व्रत 36 घंटे के लिए। इस दौरान वह आराम से लेटेगी नहीं। क्योंकि कल शाम के लिए अध्र्य हेतु रात को ही पकवान बनाकर डलिया और सूप जो सजाना है। पांच डलिया, जिसमें पांच-पांच ठेकुआ, कंदमूल आदि सजाकर पवनी गंगा तट जाकर पड़ोसियों के साथ कोसी भरेगी सूर्य के लिए उनके डूबने के पहले। जब पवनी शाम को सूर्य को पहला अध्र्य देने जाती है तोे हर रास्ता ताल और लय से सराबोर हो जाता है और गंगा के दोनों किनारे रंग और खुशबू से झूम उठते हैं। दूसरे दिन फिर आने का वचन देकर सारा शहर इंतजार करेगा सूर्य देवता का कल सुबह तक, जब पवनी उगते सूरज को अध्र्य देकर अपने व्रत का अंत करती है।
सच तो यह है कि इस मौके पर बिहार की तो बात ही निराली है, जहां शहर हो या गांव हर जगह इसकी गरिमा और निखर जाती है। गंगा किनारे तो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है वहां। बहनें अपने भाई से कहती हैं-''मोरे भइया, जाला महंगा, ले ले अइह गेंहूॅं के मोटरिया।'' औरतें कोसी भरने जाती हैं तो सूर्य की पूजा करते-करते छठ को मइया के नाम से पुकारने लगती हैं। एक अनबूझ सी पहेली उनके गानों से निकलती है। इस बारे में जब औरतों से पूछते हैं कि सूर्य तो पुरुष हैं, ब्रह्मचारी है, फिर मां के रूप में उनकी अभ्र्यथना क्यों हो रही है? वे कहती हैं कि गंगा स्वयं मां का स्वरूप हैं और जब सूर्य का प्रतिबिम्ब मां की गोद में देखते हैं, तब हमें सूर्य में भी मां की गरिमा का बोध होता है। कितना सीधा सादा सा उत्तर मिलता है उनसे, पर देखिए कितनी गहराई में मानव मन की संवेदना सजा कर रखी है उन्होंने, जिन्होंने दो दिनों से उपवास करने के बाद भी उनके चेहरे पर कोई थकान तक नहीं दिखाई दे रही। ऐसा लगता है जैसे कोहबर में बैठी दुल्हन की मुस्कान वहां मौजूद सभी पवनियों के चेहरे पर थिरक रही है और कानों में गीत गूंज रहा हैः
'' ओ गंगा मइया तोरे चुनरी चड़इबो,
आदित से कर दे मिलनवा ओ मइया।''