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डॉ अभिलाषा द्विवेदी
रामायण के सुन्दर काण्ड की एक चौपाई को लेकर बार-बार विवाद खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। गोस्वामी तुलसीदास के नारी विरोधी होने का दावा करने वालों के लिए यह एक पंक्ति बिना सन्दर्भ प्रसंग मनमानी व्याख्या के लिए अति प्रसिद्ध हो चुकी है। 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥' तुलसीदास पर स्त्री द्वेष का आरोप लगाने वाले लोग आजकल एक बार फिर से इस पंक्ति को चर्चा में ले आए हैं।
इस पूरे विवाद को संकीर्ण दृष्टि से नहीं बल्कि व्यापक दृष्टिकोण से देखने और समझने की आवश्यकता है। कारण यह कि कोई भी बात बिना अपने मूल सन्दर्भ और प्रसंग के अर्थहीन होती है। अतः बिना प्रसंग की व्याख्या के इसका प्रयोग करना स्वयं ही उद्देश्य पर संदेह उत्पन्न करता है।
पूरे विश्व में मानव समूहों के मध्य एक अघोषित संघर्ष चला आ रहा है। जो बाह्य रूप में कभी शक्ति - सत्ता का संघर्ष, कभी सीमाओं का संघर्ष तो कभी सभ्यता का संघर्ष प्रतीत होता है। किन्तु इन सबके मूल में साँस्कृतिक संघर्ष है। जब व्यक्ति अपने साँस्कृतिक पहचान से टूटकर अलग होगा तभी वह दूसरी संस्कृति के समूह में कमतर बनकर सम्मिलित होने को मजबूर होगा। यही खेल वर्षो से चला आ रहा है। जिसके लिए अलग-अलग दांव-पेंच समय-समय पर इनके गेम प्लानर्स द्वारा चलाए जाते हैं।
भारत एक विराट राष्ट्र है। संस्कृति ही राष्ट्र की आत्मा होती है। भारतीय संस्कृति सनातन है। जिसे भारतीय अपने धर्म बोध के साथ जीवन में धारण करते हैं। जहाँ राम चरित भारतीय संस्कृति का आधारिक और सर्व स्वीकार्य चरित है। इसी कारण बाबा तुलसी सनातन की अंतर्दृष्टि हैं। इस समग्र धर्मबोध के उद्भव के प्रेरक और इस प्रकार वे हमारी संस्कृति रक्षक भी हैं। सांस्कृतिक विचार साहित्य की दृष्टि से मध्यकाल में इतना विराट व्यक्तित्व कोई और न था। केशव, वादरायण और शंकराचार्य के बाद तुलसी को युगद्रष्टा ऋषि कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उनके विभिन्न स्त्री सम्मान में लिखी गई पंक्तियों को चालाकी से परे करते हुए सुन्दर काण्ड की इस पंक्ति पर बार - बार विवाद का कारण भी उपरोक्त संघर्ष का ही टूल है।
यदि बात करें साहित्यिक कथा रूपों की तो उसके कथानक में 'सम्वाद' के माध्यम से गति आती है। यह सम्वाद विभिन्न पात्रों के मध्य होता है। जो अपने पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में प्रसंग वश अपनी बात कहते हैं। ऐसे ही वार्तालाप में यह चौपाई भी कही गई है। जहाँ लंका प्रवेश करने हेतु समुद्र पार करने के लिए राम, उनकी सेना और समुद्र के मध्य क्या बात चल रही है, यह प्रसंग है। भगवान राम की सेना को जब तीन दिनों तक समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तब श्रीराम ने समुद्र सुखाने हेतु बाण चढ़ाया। इसके मध्य में काग भुशुंडि का गरुड़ का वार्तालाप भी है।
अंततः, समुद्र भयभीत होकर प्रभु के पैर पकड़ता है और अपना बचाव कहते हुए कहता है कि, आपने मुझे अच्छी सीख दी। हे नाथ! मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिए।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
आगे समुद्र कहते हैं - आपकी प्रेरणा से ही माया ने इन पाँच तत्वों को सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है। इनकी क्रिया स्वभाव से जड़ है।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
आपने मुझे आज यह शिक्षा देकर भला किया। किन्तु यह मर्यादा आपकी ही बनाई हुई है। ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी ये सभी शिक्षा और समुचित देखरेख के पात्र हैं। क्योंकि इन सभी की अपनी मर्यादाएं हैं। उस मर्यादा को पार करना उनके लिए अहितकारी हो सकता है।
यह पूरा प्रसंग समुद्र द्वारा अपनी मर्यादा के विषय में अपना पक्ष रखने का है। यदि समुद्र श्रीराम की सेना को मार्ग नहीं दे रहे तो वह समुद्र की अपनी प्रकृति के कारण उनकी मर्यादा की सीमा की बात है। राम को उस मर्यादा की सीमा को ताड़ना चाहिए।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं सूख जाऊँगा और सेना उस पार उतर जाएगी। किन्तु इसमें मेरी मर्यादा नहीं रहेगी। समुद्र के अत्यंत विनीत वचन को सुनकर कृपालु राम ने मुस्कराकर कहा - हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना उस पार उतर जाए, वह उपाय बताओ।
यह पूरा प्रसंग है। यहाँ एक और बात है कि राम चरित मानस अवधी भाषा में लिखा गया है। निरर्थक उसे हिन्दी में अनूदित कर अनर्थ व्याख्या का प्रयास कुत्सित है। अवधी में ताड़ना का अर्थ ध्यान पूर्वक देखकर समझना या बोध करना के अर्थ में है।
जिन गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस में मर्यादा ही सर्वोच्च है। उनकी इस रचना में स्त्री की मर्यादा, स्त्री सम्मान को लेकर ऐसा भ्रम फैलाना निंदनीय है। गोस्वामी जी के बारे में ऐसी निरर्थक बात करने के पहले यहाँ भी यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इसी काण्ड में सुरसा को भी 'माता' कहकर संबोधित कराया है।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
तब तव बदन पैठिहहुं आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
तुलसी सुरसा सरीखी स्त्री को भी माता से संबोधित करते हैं। हनुमान सुरसा को माता ही कहते रहते हैं।
भारत में जातीय विभेद और लिंग विभेद का छ्द्म विमर्श खड़ा करने वालों को किसी सन्दर्भ प्रसंग या व्याख्या से कोई सरोकार नहीं। उनके लिए नैरेटिव सेटिंग का एजेण्डा जहाँ से पोषित हो सकता है उनके लिए उतना आधा-अधूरा ही तो महत्वपूर्ण है।
और यहां जो यदा कदा होता है तुलसीदास जी ने उसके विषय में भी लिखा है। उन्होंने ऐसे खलों को भी महत्त्व दिया। खलों के उत्पात से भी जनमानस को अंततः लाभ मिलता है।
खल उपहास होई हित मोरा। काक कहहिं कल कंठ कटोरा॥
जैसा कि जब भी खल हमला करते हैं तब रामचरितमानस की विस्तृत व्याख्या होने लगती है और तुलसीदास जी के मर्यादा पुरुषोत्तम चर्चा में आ जाते हैं।
उपरोक्त पंक्ति की जब हम बात करते हैं तो 'ताड़ना' का अवधी के स्थान पर हिन्दी में समान उच्चारित होने वाले शब्द पर बहस करते हैं किन्तु उसी पंक्ति में आए 'अधिकारी' शब्द पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता।
नारी का ध्यान रखने की बात है, उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। जिसकी जैसी प्रकृति होगी उसके लिए उसकी वैसी मर्यादा होगी। उसको यथोचित ताड़ना उसका 'अधिकार' है। किसी का "अधिकारी" होना बड़ी बात है। अधिकारी की अनदेखी नहीं की जा सकती है। अधिकारी का सम्मान रखना पड़ेगा।
लोग ढोल को जोड़कर कहते हैं कि उसे तो पीटा जाता है। आप ढोल को ज़रा पीट कर देखें उससे सुर ताल नहीं निकलेगा। उल्टा फट अवश्य जाएगा। उसे भी ध्यान पूर्वक समझ कर थाप देनी पड़ती है। तब उसका गुण धर्म प्रत्यक्ष होता है। ऐसे ही पशु को आप ध्यान से उसके मनोभाव समझे बिना मार पीट कर देखिये। पशुओं में मनुष्य से कई गुना अधिक ताकत होती है। वो आपका क्या हाल करेगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ भी ताड़ना का अर्थ, पशु की आवश्यकता का ध्यान रखने उसकी देखभाल करने से है। तभी वे हमारे जीवन में सहयोगी होंगे।
गोस्वामी तुलसीदास ने स्त्री के सम्मान में कहीं कोई एक शब्द निरादर का नहीं लिखा। वे लिखते हैं -
एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी॥
देश-दुनिया में ऐसी ढेरों भाषाएं हैं जिन के शब्द एक जैसे उच्चारित होते हैं किन्तु अर्थ में भेद है। अवधी भाषा में देसज बोली के अपने भावार्थ हैं।
किन्तु हमारे सुन्दर साँस्कृतिक राष्ट्र को अस्थिर करने हेतु तथाकथित दलित और स्त्री विमर्श की आड़ में जो विष घोलने का प्रयास होता रहता है, उसे समझना आवश्यक है। इन भ्रामक व्याख्यानों और चर्चाओं को भारत के लोग नकार देते हैं। अपनी साँस्कृतिक पहचान पर गौरव भाव बना रहे, इसके लिए अपनी संस्कृतिक चेतना के सूत्र धारों के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान होना महत्वपूर्ण है।
तुलसीदासजी ने भी संदेह का नाश करने और विषाद का दमन करने की बात से सुंदर कांड को विश्राम दिया है। अंतिम छन्द इस प्रकार है -
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
समुद्र अपनी बातें स्पष्ट रखकर अपने भवन को गए, श्री रघुपति को उनका मत बहुत भला लगा। यह चरित्र कलियुग के कलुष को हरने वाला है।
आगे तुलसीदास जी कहते हैं कि - इसे तुलसी ने अपनी मति के अनुरूप गाया है। संसार की आशा विश्वास में लगा सठ मन उन सबका त्याग कर श्री रघुपति के गुण गुनें, तो संशय का शमन होगा, विषाद का दमन होगा और सुख होगा।