धर्म-कर्म

हज और उसका पैग़ाम

माजिद अली खां
7 July 2022 11:13 AM GMT
हज और उसका पैग़ाम
x

मुहम्मद अली शाह शुएब

क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है कि "और लोगों पर अल्लाह का हक़ है कि जो इस घर (काबा) तक पहुँचने की क़ुदरत रखता हो वो इसका हज करे और जिसने कुफ़्र किया तो अल्लाह तमाम दुनिया वालों से बेनियाज़ है।" (3:97) इस आयत से ये बात मालूम होती है कि अगर कोई ईमानवाला शख़्स हज करने की ताक़त रखता हो और जानते-बूझते हज न करे तो मानो उसने कुफ़्र किया। ये बिलकुल वैसा ही हुक्म है जैसे कि एक हदीस में प्यारे नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया जिसने जान-बूझकर एक वक़्त की नमाज़ छोड़ दी उसने कुफ़्र किया। प्यारे नबी (सल्ल०) की हदीस से हज के बारे में भी इसी तरह की वईद और चेतावनी मिलती है। फ़रमाया नबी (सल्ल०) ने कि: "जो शख़्स सफ़र-ख़र्च और सवारी रखता हो जिससे बैतुल्लाह (काबा) तक पहुँच सके और फिर वो हज न करे (और इसी हाल में उसकी मौत आ जाए) तो उसका इस हालत पर मरना ऐसा ही है जैसे यहूदी या नसरानी होकर मरना।" क़ुरआन मजीद और हदीस की तशरीह हज़रत उमर (रज़ि०) के उस क़ौल (कथन) से भी होती है जिसमे आपने फ़रमाया कि: जो लोग क़ुदरत रखने के बावजूद हज नहीं करते, मेरा जी चाहता है कि उनपर जिज़िया (इस्लामी हुकूमत में ग़ैर-मुस्लिम हज़रात पर उनकी हिफ़ाज़त के लिये लगाया जानेवाला टेक्स) लगा दूँ। वो मुसलमान नहीं हैं, वो मुसलमान नहीं हैं। अगर ग़ौर से देखा जाए तो हज सबसे अफ़ज़ल इबादत है। ये कोई ऐसा फ़र्ज़ नहीं है जिसको चाहो तो कर लो और दिल न चाहे तो न करो। हज से मुताल्लिक़ ये तो वो बातें हैं जिनसे हज की अहमियत और उसकी फ़र्ज़ियत वाज़ेह होती है। अलहम्दुलिल्लाह मुसलमान इस फ़र्ज़ को तसलसुल के साथ (लगातार) करते चले आ रहे हैं। हर साल हज करनेवालों की तादाद में इज़ाफ़ा ही होता चला जा रहा है। लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि जिस तरह तमाम दूसरी इबादात की रूह निकल चुकी है उसी तरह इस अफ़ज़ल इबादत की भी रूह निकल चुकी है और बस अब ढाँचा बाक़ी रह गया है। तवाफ़ और हज के इस ज़ाहिरी ढाँचे (हंगामे) को देखकर अल्लामा इक़बाल को कहना पड़ा कि "है तवाफ़ व हज का हंगामा अगर बाक़ी तो क्या, कुंद होकर रह गई मोमिन की तेग़े-बेनियाम।" हक़ीक़त ये है जिस तरह नमाज़, रोज़ा और दूसरी इबादात एक मक़सद रखती हैं उसी तरह हज भी एक आफ़ाक़ी मक़सद और इंक़िलाबी पैग़ाम रखता है। अगर हज को जाने वाले मुसलमानों की एक चौथाई तादाद भी उस मक़सद और पैग़ाम को समझें और उस साँचे में अपने आपको ढालने की कोशिश करें तो यक़ीन जानिये मुसलमानों की जो इस वक़्त सूरते-हाल है वो बाक़ी न रहे बल्कि वो दुनिया की सबसे ज़्यादा मुहज़्ज़ब और तरक़्क़ी-याफ़्ता क़ौम बन जाएँ। ये उम्मत अपने खोए हुए मक़ाम और मर्तबे को हासिल कर पाए। आइये इस बात को जानने की कोशिश करते हैं कि हज से हमें क्या पैग़ाम मिलता है? हज से आने के बाद एक मोमिन के अन्दर क्या-क्या नज़रियाती और अमली तब्दीलियाँ नुमायाँ नज़र आनी चाहियें। हज मुसलमानों का एक आलमी इज्तिमा है, जो मुसलमानों ये पैग़ाम देता और इस बात का यक़ीन दिलाता है कि तुम एक आलमगीर उम्मत हो जिसे दुनिया की बाउन्ड्रीज़ में क़ैद नहीं किया जा सकता। ये फ़रीज़ा मुसलमानों को इस बात की याद दिलाता है कि दुनिया के इन्सानों ने इन्सानों को जो बाउन्ड्रीज़ में क़ैद कर रखा है ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि इन्सानों को इन्सानों की ग़ुलामी से नजात दिलाकर एक अल्लाह की ग़ुलामी में लेकर आना है और उनपर से बाउन्ड्रीज़ की क़ैद को हटाकर पूरी इन्सानियत को एक करना है।

अहराम

हज करने वाले हर मुसलमान पर ये लाज़िम है कि वो एहराम बांधकर तवाफ़ करे। ये एहराम सबसे पहले तो इस बात को याद दिलाता है कि तुम उस अज़ीम हस्ती अल्लाह के दरबार में हाज़िर हो रहे हो जो पूरी कायनात का मालिक है, लिहाज़ा उसके सामने फ़क़ीराना अन्दाज़ में हाज़िर हो। अब से पहले जो कुछ तुम थे सो थे लेकिन अब तुम कुछ नहीं हो। तुम्हारी कोई हैसियत नहीं है। दुनिया की रंगीनी को छोड़कर दर्वेशाना लिबास में आ जाओ। मोज़े न पहनो, सर भी खुला रखो, ख़ुशबू न लगाओ, बाल न बनाओ और हर क़िस्म की ज़ीनत और बनाव-श्रंगार से परहेज़ करो। औरत-मर्द साथ रहें मगर उस दुनियावी ताल्लुक़ के साथ नहीं बल्कि दर्वेशाना फ़िक्र के साथ। ये सब कराने का मक़सद ये है कि तुम्हारे अन्दर ये कैफ़ियत पैदा हो कि तुम कुछ नहीं हो, महज़ उस अज़ीम हस्ती के बन्दे और ग़ुलाम हो, तुम जिस तरह यहाँ कुछ नहीं हो यहाँ से जाने के बाद भी तुम अपने आपको कोई बड़ी चीज़ न समझना, तुम्हारे दिल के अन्दर किब्र और ग़ुरूर नहीं आना चाहिये, तुम्हारी हालत एक अमन-पसन्द इन्सान की होनी चाहिये, तुम दुनिया की लज़्ज़तों में न घिर जाओ। यानी यहाँ से तुम इस बात का एहसास लेकर लौटो कि अब तुम्हारी ज़िन्दगी ख़ुदा-तरसी की ज़िन्दगी होगी, तुम अमन-पसन्द शहरी और इन्सानियत के ख़ैरख़ाह बनकर अपने घरों को लौटो। ये अहराम हज करनेवाले मुसलमानों को एक और सबक़ ये देता है कि तमाम मुसलमान एक हैं, कोई न छोटा है न बड़ा, न कोई अमीर है न ग़रीब, न औरत होने की हैसियत से कोई कमतर है न मर्द होने की हैसियत से अफ़ज़ल। और जिस तरह तुम्हारे दरम्यान यहाँ कोई फ़र्क़ और भेदभाव नहीं उसी तरह यहाँ से जाने के बाद भी तुम्हारे अन्दर कोई फ़र्क़ और इम्तियाज़ नहीं होना चाहिये। तुम सब एक हो और पूरी इन्सानियत को एक करने की जिद्दोजुहुद में लग जाना है। साथ ही ये अहराम इस बात की याद भी दिलाता है कि मौत का वक़्त क़रीब है। जब मौत आएगी तो इसी तरह तुम दुनिया की रंगीनी को छोड़कर, दुनिया की दौलत और शोहरत को छोड़कर, हर क़िस्म की लज़्ज़ात और शहवात को छोड़कर अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर हो जाओगे। हज करने वाले हर मुसलमान को इस कैफ़ियत के साथ वहाँ से लौटना चाहिये कि अब उसकी ज़िन्दगी आख़िरत ओरिएंटेड ज़िन्दगी होगी। अब उसकी ज़िन्दगी का हर अमल आख़िरत से मुतास्सिर होगा, ज़िन्दगी में जो क़दम भी वो उठाएगा ये सोचकर उठाएगा कि इस क़दम के उठाने से मेरी आख़िरत तो बरबाद नहीं हो जा रही है। ज़रा ग़ौर कीजिये कितना आफ़ाक़ी है ये पैग़ाम! अगर हज करने वाले मुसलमान फ़िक्र की इस पुख़्तगी के साथ लौटेंगे तो क्या वाक़ई समाज में एक नुमायाँ तब्दीली नहीं आएगी? और सबसे बढ़कर तो ये कि मालिके-कायनात की रज़ा और ख़ुशनूदी उन्हें नसीब होगी।

तवाफ़

हमने देखा होगा कि हज के मौक़े पर एक सफ़ेद चादर में लिपटे हुए तमाम हाजी अल्लाह के घर का तवाफ़ करते हुए नज़र आते हैं। ये तवाफ़ इस तरह नज़र आता है मानो किसी शमा के गिर्द परवाने चक्कर लगा रहे हों। ये तवाफ़ इस बात की अलामत है कि मोमिनों का ये गरोह अपने रब अल्लाह से इस क़द्र मुहब्बत करता है जिस तरह परवाना शमा से करता है कि अपनी जान की परवाह किये बग़ैर शमा पर न्योछावर हो जाता है। ऐसा लगता है कि ये दीवाने भी उसी तरह अपने रब अल्लाह की मुहब्बत में न्योछावर हो जाएँगे। इस तरह की फ़िद्वियत और गरवीदगी आपको कहीं दूसरी जगह नज़र नहीं आएगी। ये तवाफ़ इस बात की तरफ़ भी इशारा करता है कि अब ये तवाफ़ करने वाले लोग एक अल्लाह की ज़ात को ही अपनी तमाम सरगर्मियों का मरकज़ व महवर (केन्द्र) बनाएँगे। ज़रा सोचें कि इन तवाफ़ करनेवालों के अन्दर अपने रब अल्लाह पर निसार होने का ये हक़ीक़ी जज़्बा पैदा हो जाए (जो कि नज़र नहीं आता) तो क्या वो अल्लाह इन मुसलमानों को यूँ ही बे-यारो-मददगार छोड़ देगा? हरगिज़ नहीं, हरगिज़ नहीं।

तल्बियः

फिर इस बात पर भी ग़ौर कीजिये कि ये तवाफ़ करने वाले मुसलमान एक ही सदा और नारा लगाते हुए नज़र आते हैं कि 'लब्बैक अल्लाहुम्म लब्बैक, लब्बैक ला शरी-क-ल-क लब्बैक, इन्नल-हम्दा वन्निअ-म-त ल-क वल-मुल-क, ला शरी-क ल-क' "हाज़िर हूँ, मेरे अल्लाह मैं हाज़िर हूँ, हाज़िर हूँ, तेरा कोई शरीक नहीं, मैं हाज़िर हूँ, यक़ीनन तारीफ़ सब तेरे ही लिये है। नेमत सब तेरी है और सारी बादशाही तेरी है। तेरा कोई शरीक नहीं।" इन अलफ़ाज़ पर ग़ौर कीजिये कि इनमें किस बात को दोहराया जा रहा है। सबसे पहले तो इक़रार किया जाता है कि मैं अपने रब अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर हूँ और दुनिया की तमाम लज़्ज़तों और आसाइशों को छोड़कर हाज़िर हूँ। और इस इक़रार के साथ हाज़िर हूँ कि बड़ाई सिर्फ़ उसी एक अल्लाह की है। उसकी बड़ाई में कोई किसी तरह से भी न शरीक है और न हो सकता है। लिहाजा जिस तरह से मैं यहाँ हाज़िर हूँ उसी तरह उस एक ला-शरीक अल्लाह की बड़ाई क़ायम करने के लिये जहाँ कहीं भी ज़रूरत होगी वहाँ हाज़िर हो जाऊँगा। अब तवाफ़ करने वाले मुसलमनों को ये देखना है कि क्या उनकी ख़ुद की ज़िन्दगी में, उनके ख़ानदान में और उनके आस-पास के माहौल में उस एक अल्लाह की बड़ाई क़ायम है? अगर नहीं तो उन्हें चाहिये कि वहाँ से ये अहद करके लौटें कि अब हम सबसे पहले अपने मक़ाम पर एक अल्लाह की बड़ाई क़ायम करने के लिये पूरी जिद्दो-जुहुद करेंगे। सबसे पहले अपनी-अपनी ज़ात पर और फिर अपने घर और ख़ानदान में और फिर ज़िन्दगी के तमाम शोबों में उस एक रब की बड़ाई क़ायम करने की अनथक कोशिश करेंगे।

सई (सफ़ा और मरवा के बीच दौड़ना)

कामिल यकसूई, फ़िद्वियत और गरवीदगी के साथ ख़ुदा के घर का परवानावार चक्कर लगाने के बाद इन मुसलमानों को हुक्म है कि वो सफ़ा और मरवा (दो पहाड़ियों) के बीच दौड़ लगाएँ। ये भी दरअसल एक तरह की प्रेक्टिस है जो इसलिये कराई जाती है कि ईमान का दावा करने वाले ये मुसलमान अपने रब की ख़ुशनूदी की तलब में यूँ ही भाग-दौड़ करते रहेंगे। ये सई (दौड़) हज़रत हाजरा की उस दौड़ की भी याद दिलाती है जो उन्होंने अपने प्यासे बच्चे (इस्माईल) के लिये लगाई थी लेकिन इस दौड़ से उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ; हासिल हुआ तो अल्लाह के फ़ज़ल से। मतलब ये कि हमें अपनी ज़िन्दगी में अपने बच्चों को रोज़ी फ़राहम करने के लिये जी तोड़ महनत तो करनी चाहिये लेकिन भरोसा सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात पर ही होना चाहिये कि मिलता सिर्फ़ अल्लाह के फ़ज़ल ही से है। फिर ये भाग-दौड़ भी दायरे के अन्दर ही होनी चाहिये, उस दायरे के अन्दर जो अल्लाह रब्बुल-इज़्ज़त ने मुतैयन कर दिया है। फिर इस सई (कोशिश और मेहनत) के दौरान जो दुआ मुसलमानों को सिखाई गई है उस पर ग़ौर करेंगे तो बात और वाज़ेह हो जाएगी कि "ख़ुदाया, मुझ से काम ले उसी तरीक़े पर जो तेरे नबी का तरीक़ा है, और मुझे मौत दे उसी रास्ते पर जो तेरे नबी का रास्ता है, और ज़िन्दगी में मुझे बचा उन फ़ितनों से जो सीधे रास्ते से भटकाने वाले हैं।"

मिना, अरफ़ात और मुज़्दल्फ़ा में क़ियाम

इसके बाद मुसलमान को एक फ़ौजी की सी ट्रेनिंग दी जाती है। ये ट्रेनिंग पाँच-छः दिन चलती है। ये मुसलमान को इस बात के लिये आमादा करती है कि अगर अल्लाह की बड़ाई क़ायम करने और उसके दीन को ज़िन्दगी के तमाम शोबों में ग़ालिब करने की ख़ातिर हमें अगर केम्प में जाकर भी रहना पड़े तो हम इसके लिये भी तैयार हैं। इसी केम्प के दौरान वक़्त का लीडर उनको ख़िताब करता है, और मौजूदा हालात से मुसलमानों को आगाह करता है। करने के कामों पर तवज्जोह दिलाता है, इन केम्पों में रह रहे लोगों को आख़िरत की कामयाबी और दुनिया की फ़तह का यक़ीन दिलाया जाता है। लेकिन इन्तिहाई अफ़सोस होता है कि इस वक़्त न उम्मत उम्मते-वाहिदा है और न लीडर इस अज़ीम उम्मत के लोगों को मौजूदा हालात से बाख़बर करते हैं, फिर करने के काम पर तो सिवाय चन्द रुसूमात अदा कर लेने के और कुछ नहीं है।

पत्थर पर कंकरी मारना

उसके बाद हाजियों को हुक्म होता है कि वो मिना की तरफ़ कूच करें और वहाँ अलामती क़िस्म के एक सुतून पर जाकर पत्थर की कंकरियाँ मारें। ये इस बात की अलामत है कि हज करने वाला हर मुसलमान ये अहद करे कि मेरी ज़िन्दगी में अगर दीन की इमारत (इस्लाम) को ढाने के लिये कोई ताक़त मेरे सामने आएगी तो मैं उसे बेझिझक और बेख़ौफ़ होकर भगाने की जिद्दोजुहुद करूँगा। बहुत से शैतान नुमा लोग अल्लाह के दीन को क़ायम करने यानी समाज में शान्ति और सलामती बहाल करने की राह में रुकावट पैदा करने के लिये आएँगे, मुझे उन शैतानी ताक़तों को पूरी तरह नज़रअन्दाज़ (Avoid) करना है। ज़िन्दगी में अल्लाह के अहकामात को पूरा करने के लिये जब मैं कोई क़दम उठाऊँगा तो बहुत-से शैतानी वस्वसे दिल में पैदा होंगे कि मैं उन अहकामात को पूरा न कर पाऊँ, लेकिन इस अमल के ज़रिए मैं अहद करता हूँ कि कभी इस तरह के वस्वसों को दिल में जगह नहीं दूँगा और पुख़्ता इरादों की कंकरियाँ मारकर उनसे छुटकारा पाऊँगा।

ईदुल-अज़हा की पुरख़ुलूस मुबारकबाद! मगर किसको

अहले-ईमान में से जिन हज़रात ने इस ईदे-क़ुर्बां पर हज़रत इबराहीम अलैहिस्लाम की क़ुर्बानियों से भरी ज़िन्दगी को याद करके ये अहद किया हो कि हम भी अल्लाह और उसके दीन के लिए बढ़-चढ़कर क़ुरबानी देंगे, हर तरफ़ से कटकर एक अल्लाह की तरफ़ रुख़ कर लेने वाली दुआ पढ़कर जानवर के गले पर छुरी फेरने वाले हज़रात में से जिस-जिसने अहद किया हो कि हम अल्लाह की ख़ुशी के लिए हर बुरे और ग़लत काम को छोड़कर तक़वा की ज़िन्दगी इख़्तियार करेंगे और सबसे कटकर एक अल्लाह ही के होकर रहेंगे, ईदे-क़ुर्बाँ के इस मौक़े पर जिन लोगों ने अहद किया हो कि हम अल्लाह के दीन को सबसे पहले अपनी ज़िन्दगी में, अपने घर और ख़ानदान में, अपने समाज और देश में और फिर इस रूए-ज़मीन पर क़ायम करने के लिए अपना वक़्त, सलाहियत और दौलत सब कुछ क़ुर्बान कर देंगे, क़ुरबानी करने वाले जिन हज़रात ने अहद किया हो कि हम अल्लाह को राज़ी करने और आख़िरत की कामयाबी के लिए अपनी नफ़सानी ख़ाहिशात, जज़्बात और एहसासात तक को क़ुर्बान कर देंगे, ईमान के दावेदारों में से जिन लोगों ने अहद किया हो कि इन्सानी समाज में अमन और महब्बत, रवादारी और भाईचारा, शान्ति व सलामती क़ायम करने के लिए हम एक-दूसरे के लिए अपनी अना और तकब्बुर को क़ुरबान कर देंगे। अल्लाह के जिन बन्दों ने क़ुरबानी के इस त्यौहार पर ये अहद किया हो कि अल्लाह, उसके रसूल और उसके दीन की मुहब्बत के मुक़ाबले में हम घर, तिजारत, वतन, रिश्ते व क़राबत की तमाम मुहब्बतों को क़ुर्बान कर देंगे। आलमी उम्मत होने का दावा करने वाले मुसलमान गरोह में से जिन्होंने अहद किया हो कि हम रंग, नस्ल, ज़ात, ब्रादरी, लिंग और इलाक़े ग़रज़ हर तरह के फ़र्क़ व तफ़ावुत (भेदभाव) को मिटाकर महज़ अल्लाह की रज़ा के लिये एक हो जाएँगे और अपनी सफ़ों में ऐसा इत्तिहाद क़ायम करेंगे कि किसी को हमारे दरम्यान दरार डालने की हिम्मत न होगी, पूरी इन्सानियत के लिये ख़ैरे-उम्मत का लक़ब पाने वाली उम्मत में से जिन हज़रात ने इस ईद पर ये अहद किया हो कि हम अल्लाह का पैग़ाम अपने क़ौल और अमल से तमाम इन्सानों तक पहुँचाएँगे, उन लोगों को ये ईदे-क़ुर्बां बहुत-बहुत मुबारक हो और जिन लोगों ने जानवर की तो क़ुर्बानी की लेकिन इनमें से किसी बात का भी अहद नहीं किया तो उनसे बस इतना कहना है कि अल्लाह तआला को तुम्हारी इस क़ुरबानी का ख़ून, गोश्त और खालें नहीं पहुँचतीं बल्कि तक़वा पहुँचता है, दिल की वो कैफ़ियत, वो नियत और इरादा, वो जज़्बात और एहसासात पहुँचते हैं जो तुम दिल में अल्लाह, उसके दीन और उसकी मख़लूक़ के लिए रखते हो, अगर महज़ जानवर क़ुर्बान किया और वो तक़वा इख़्तियार नहीं किया जो मतलूब है तो- भाइयो आख़िर इन बेज़ुबान जानवरों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? क्या तुम्हें मरकर अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर नहीं होना है? याद रखना भाइयो, यही बेज़ुबान जानवर जिन्हें तुमने नाहक़ क़त्ल कर डाला है, अल्लाह से गुहार लगाएँगे कि इस शख़्स का मन्शा सिवाए अपनी ज़बान के ज़ायक़े और नुमूदो-नुमाइश के कुछ और नहीं था। उस वक़्त अल्लाह को क्या मुँह दिखाओगे। ज़रा सोचो! क्या उस वक़्त इन बेज़ुबान जानवरों के नाहक़ क़त्ल की सज़ा से बच पाओगे? याद रखना अल्लाह बड़ा इंसाफ़ करने वाला है। लिहाज़ा आओ हम सब अहद करें कि इस ईद पर अल्लाह हमें जो अमल भी करने की तौफ़ीक़ इनायत करे हम उसे पूरे शुऊर के साथ करेंगे, उसकी रूह को सामने रखकर उसके मक़सद को हासिल करने की ग़रज़ से करेंगे। इंशाल्लाह अल्लाह हमारा हामी व नासिर हो और क़ुरबानी व तमाम आमाल को क़बूल फ़रमाए।

माजिद अली खां

माजिद अली खां

माजिद अली खां, पिछले 15 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं तथा राजनीतिक मुद्दों पर पकड़ रखते हैं. 'राजनीतिक चौपाल' में माजिद अली खां द्वारा विभिन्न मुद्दों पर राजनीतिक विश्लेषण पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किए जाते हैं. वर्तमान में एसोसिएट एडिटर का कर्तव्य निभा रहे हैं.

Next Story