धर्म-कर्म

देश भर में दशहरा बड़ी धूमधाम से क्यों मनाया जाता है, जानिए असली कारण

Shiv Kumar Mishra
25 Oct 2020 4:23 PM IST
देश भर में दशहरा बड़ी धूमधाम से क्यों मनाया जाता है, जानिए असली कारण
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दशहरा माने पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और अंत:करण - को शक्ति देनेवाला, अर्थात देखने की शक्ति, सूँघने की शक्ति, चखने की शक्ति, स्पर्श करने की शक्ति, सुनने की शक्ति – पाँच प्रकार की ज्ञानेंद्रियों को जो शक्ति है.

पं, वेदप्रकाश पटैरिया शास्त्री जी (ज्योतिष विशेषज्ञ)

दशहरा एक दिव्य पर्व है । सभी पर्वों की अपनी-अपनी महिमा है किंतु दशहरा पर्व की महिमा जीवन के सभी पहलुओं के विकास, सर्वांगीण विकास की तरफ इशारा करती है । दशहरे के बाद पर्वो का झुंड आयेगा लेकिन सर्वांगीण विकास का श्रीगणेश करता है दशहरा।

दशहरा दश पापों को हरनेवाला, दश शक्तियों को विकसित करनेवाला, दशों दिशाओं में मंगल करनेवाला और दश प्रकार की विजय देनेवाला पर्व है, इसलिए इसे 'विजयादशमी' भी कहते है । यह अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय, दुराचार पर सदाचार की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता की विजय, अन्याय पर न्याय की विजय, तमोगुण पर सत्वगुण की विजय, दुष्कर्म पर सत्कर्म की विजय, भोग-वासना पर योग और संयम की विजय, आसुरी तत्वों पर दैवी तत्वों की विजय, जीवत्व पर शिवत्व की और पशुत्व पर मानवता की विजय का पर्व है । आज के दिन दशानन का वध करके भगवान राम की विजय हुई थी।

महिषासुर का अंत करनेवाली दुर्गा माँ का विजय-दिवस है – दशहरा । शिवाजी महाराज ने युद्ध का आरंभ किया तो दशहरे के दिन । रघु राजा ने कुबेर भंडारी को कहा कि 'इतना स्वर्ण मुहरें तू गिरा दे, ये मुझे विद्यार्थी (कौत्स ब्राम्हण) को देनी है, नही तो युद्ध करने आ जा । कुबेर भंडारी ने, स्वर्ण भंडारी ने स्वर्णमुहरों की वर्षा की दशहरे के दिन ।

दशहरा माने पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और अंत:करण - को शक्ति देनेवाला, अर्थात देखने की शक्ति, सूँघने की शक्ति, चखने की शक्ति, स्पर्श करने की शक्ति, सुनने की शक्ति – पाँच प्रकार की ज्ञानेंद्रियों को जो शक्ति है तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार - चार अंत:करण चतुष्टय की शक्ति इन नौ को सत्ता देनेवाली जो परमात्म-चेतना है वह है आपका आत्मा-परमात्मा । इसकी शक्ति जो विद्या में प्रयुक्त हो तो विद्या में आगे बढते है, जो बल में आगे बढते है, योग में हो तो योग में आगे बढते है और सबमें थोड़ी-थोड़ी लगे तो सब दिशाओं में विकास होता है ।

एक होता है नित्य और दूसरा होता है अनित्य, जो अनित्य वस्तुओं का नित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आध्यात्मिक किंतु जो नित्य वस्तु चैतन्य का अनित्य वस्तु के लिए उपयोग करता है वह होता है आधिभौतिक । दशहरा इस बात का साक्षी है कि बाह्य धन, सत्ता, ऐश्वर्य, कला-कौशल्य होने पर भी जो भी नित्य सुख की तरफ लापरवाह हो जाता है उसकी क्या गति होती है । अपने राज्य की सुंदरियाँ, अपनी पत्नी होने पर भी श्रीरामजी की सीतादेवी के प्रति आकर्षणवाले का क्या हाल होता है ? हर बारह महीने बाद दे दियासलाई....अनित्य की तरफ आकर्षण का यह मजाक है । एक सिर नही दस-दस सिर हो, दो हाथ नहीं बीस-बीस हाथ हों तथा आत्मा को छोड़कर अनित्य सोने की लंका भी बना ली, अनित्य सत्ता भी मिल गयी, अनित्य भोग-सामग्री भी मिल गयी उससे भी जीव को तृप्ति नही होती… और.. और.. और .....की भूख लगी रहती है ।

जो नित्य की तरफ चलता है उसको श्रीराम की नाई अंतर आराम, अंतर्ज्योति, अंततृप्ति का अनुभव होता है और जो नित्य को छोड़कर अनित्य से सुख चाहता है उसकी दशा रावण जैसी हो जाती है | इसकी स्मृति में ही शायद हर दशहरे को रावण को जलाया जाता होगा कि अनित्य का आकर्षण हमारे चित्त में न रहे । शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है और रोज हम मौत की तरफ आगे बढे जा रहे है । कर्तव्य है धर्म का संग्रह और धर्म के संग्रह के लिए मनुष्य-जीवन ही उपयुक्त है ।

जीवन जीना एक कला है । जो जीवन जीने की कला नहीं जानता वह मरने की कला भी नहीं जानता और बार-बार मरता रहता है, बार-बार जन्मता है । जो जीवन जीने की कला जान लेता है उसके लिए जीवन जीवनदाता से मिलानेवाला होता है और मौत, मौत के पार प्रभु से मुलाकात करानेवाली हो जाती है । जीवन एक उत्सव है, जीवन एक गीत है, जीवन एक संगीत है । जीवन ऐसे जीयो की जीवन चमक उठे और मरो तो ऐसे मरो की मौत महक उठे ....आप इसीलिए धरती पर आये हो ।

आप संसार में पच मरने के लिए नहीं आये है । आप संसार में दो-चार बेटे-बेटियों को जन्म देकर सासू, नानी या दादा-दादी होकर मिटने के लिए नहीं आये है । आप तो मौत आये उसके पहले मौत जिसको छू नहीं सकती, उस अमर आत्मा का अनुभव करने के लिए आये है और दशहरा आपको इसके लिए उत्साहित करता है ।

मरो–मरो सब कोई कहे मरना न जाने कोई ।

एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई ।

'दशहरा' माने दश पापों को हरनेवाला । अपने अहंकार को, अपने जो दस पाप रहते है उन भूतों को इस ढंग से मारो कि आपका दशहरा ही हो जाय । दशहरे के दिन आप दश दु:खों को, दश दोषों को, दश आकर्षणों को जितने की संकल्प करो ।

दशहरे का पर्व आश्विन शुक्लपक्ष की दसमी को तारकोदय के समय 'विजय' नाम के मुहूर्त में होता है, जो की संपूर्ण कार्यों में सिद्धिप्रद है, ऐसा 'ज्योतिनिर्बन्ध' ग्रंथ में लिखा है ।

अश्विनस्य सिद्धे पक्षे दशम्यां तारकोदये । स कालो विजयगेहा सर्वकार्यार्थसिद्धये

एक होती है आधिभौतिक सिद्धिप्रदता, दूसरी आधिदैविक और तीसरी होती है आध्यात्मिक । मैं तो चाहता हूँ, आपकी आध्यात्मिक सिद्धि भी हो, आधिदैविक सिद्धि भी हो और संसार में भी आप दीन-हीन होकर, लाचार-मोहताज होकर न जीये उसमे भी आप सफल हो । ऐसे आपके तीनों बल - भाव बल, प्राणबल और क्रिया बल विकसित हो ।

आप सामाजिक उन्नति में विजयी बने, आप स्वास्थ्य में विजयी बने, आप आध्यात्मिक उन्नति में विजयी बने, आप राजनैतिक उन्नति में विजयी बने । मैं भगवान श्रीकृष्ण को ज्यादा स्नेह करता हूँ । श्रीकृष्ण कमाल में भी आगे है और धमाल में भी आगे हैं । वे कमाल भी गजब का करते है और धमाल भी गजब का करते है । घर में थे तो क्या धमाल मचा दी और युद्ध के मैदान में अर्जुन को क्या कमाल का उपदेश दिया ! आचार्य द्रोण के लिए 'नरो वा कुंजरो वा' कहलवाने के लिए युधिष्ठिर को कैसी कमाल के युक्तियाँ देते है ! श्रीकृष्ण का जीवन विरुद्ध जीवन से इतना संपन्न है कि वे कमाल और धमाल करते है तो पुरे-का-पूरा करते है । विजयादशमी ऐसा पर्व है कि आप कमाल में भी सफल हो जाओ और धमाल में भी सफल जो जाओ ।

राजा को अपनी सीमाओं के पार कदम रखने की सम्मति देता है आज का उत्सव । जहाँ भी आतंक है या कोई खटपट है वहाँ आज के दिन सीमा लाँघने का पर्व माना जाता है ।

किसी भी प्रकार की समस्या समाधान के लिए पं. वेदप्रकाश पटैरिया शास्त्री जी (ज्योतिष विशेषज्ञ) जी से सीधे संपर्क करें = 9131735636

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