धर्म-कर्म

2 सितम्बर से 17 सितम्बर तक पितृपक्ष पर विशेष, श्राद्ध कर्म की प्रासंगिकता का सवाल

Shiv Kumar Mishra
6 Sep 2020 2:30 PM GMT
2 सितम्बर से 17 सितम्बर तक पितृपक्ष पर विशेष, श्राद्ध कर्म की प्रासंगिकता का सवाल
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‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्। तथा ‘श्रद्धार्थमिद श्राद्धम्’, ‘‘श्रद्धया कृतं संपादितमिदम्’, ‘श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छाद्धम्’ अर्थात अपने पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते हैं या यूं कहें कि इसे श्राद्ध शब्द से ही जाना जाता है।



ज्ञानेन्द्र रावत

श्राद्ध को पितृ यज्ञ कहा गया है। कहते हैं कि श्रद्धा से ही श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति होती है।'श्रद्धया इदं श्राद्धम्। तथा 'श्रद्धार्थमिद श्राद्धम्', ''श्रद्धया कृतं संपादितमिदम्', 'श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छाद्धम्' अर्थात अपने पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते हैं या यूं कहें कि इसे श्राद्ध शब्द से ही जाना जाता है।

'श्रद्धया पितृम उद्दिश्य विधिन क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्।' अथवा पितरों के उद्देश्य से विधि पूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। यदि महर्षि बृहस्पति तथा श्राद्धतत्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के कथनानुसार - 'संस्कृत व्यज्जनाद्यं च पयोम धुघृतान्वितम्। 'श्रद्धया दीयते यस्माच्छाद्ध तेन निगद्यते', अर्थात जिस कर्मविशेष में दुग्ध, घृत और मधु से युक्त सुसंस्कृत (भली भांति अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाये, उसे ही श्राद्ध कहते हैं। ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि देश, काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धापूर्वक पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मण को जो भी दिया जाये, उसे श्राद्ध कहते हंै। यही श्राद्ध का लक्षण है। कूर्मपुराण में भी कहा गया है कि 'योडनेन विधिना श्राद्धं कुयार्द वै शान्तमानसः। व्यपतकल्मषों नित्यं याति नावर्तते पुनः। अर्थात जो प्राणी विधिपूर्वक शान्त मन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार चक्र में नहीं आता। इसीलिए कहा गया है कि पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों में, पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पकता, श्राद्धतत्व और पितृदयिता आदि अनेकानेक गं्रथों में मिलता है। महर्षि पाराशर के अनुसार-'देश काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत्। तिलैर्दभैंश्च मंत्रैश्य श्राद्धं स्वाच्छद्धया युतम'। अर्थात देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मंत्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाये, वही श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई भी कल्याणकारी उपाय श्राद्ध करने वाले के लिए इस संसार में नहीं है। महर्षि सुमन्तु भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि 'श्राद्धात् परतरं नात्यच्छे्यस्करमुदाहृ तम्। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्ध कुर्याद्विचक्षणः।।' अर्थात इस जगत में श्राद्ध से बढ़कर श्रेष्ठ अन्य कोई भी कल्याण प्रद उपाय नहीं है। अतः बुद्धिमामान मनुष्य का यह परम् कर्तव्य है कि वह यत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करे।

ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि मनुष्य को स्वयं कल्याण हेतु तथा अपने पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इससे न केवल पितर ही तृप्त होते हैं बल्कि सच तो यह है कि सम्पूर्ण जगत को संतुष्टि प्राप्त होती है। 'यो वा विधानतः श्राद्धं कुर्यात स्वाविभवोचितम्। आब्रह्मस्तम्बपर्यंत जगत् प्रीणाति मानवः।। ब्रह्मेन्द्ररूद्रनासतयसूर्यानल सुमारूतान्। विश्वेदेवान् पितृगणन् पर्यग्निमनुजान् पशून।। सरीसृपान पितृगणान् यच्वान्यम्दूत संघितान्। श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन प्रीणयत्य खिलं जगत।। जो मनुष्य अपने वैभवानुसार श्राद्ध करता है, वह साक्षात् ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त प्राणियों को तृप्त करता है। ऐसा मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रूद्र, नासत्य (अश्विनी कुमार), सूर्य, अनल (अग्नि), वायु, विश्वेदेव, पितृगण, मनुष्यगण, पशुगण, समस्त भूतगण तथा सर्पगण को भी संतुष्ट करता हुआ संपूर्ण जगत को संतुष्ट करता है। विष्णु पुराण की मानें तो उपरोक्त के साथ आठों वसु, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप और ऋषिगण आदि समस्त भूत प्राणी तृप्त होते हैं। (विष्णु पुराण 3/14/1-2) इसलिए गृहस्थ का यह दायित्व है कि वह हव्य से देवताओं का, काव्य से पितृगणों का तथा अन्न से अपने बन्धुओं का श्रद्धापूर्वक सत्कार एवं पूजन करे। इससे मनुष्य को परलोक में पुष्टि, विपुलयश-कीर्ति तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।

श्राद्ध के स्थान के बारे में मनुस्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि-'अवकाशेषु चोक्षेषु नदीतीरेषु चैव हि। विविक्तेषु च तुष्यंति दत्तेन पितरः सदा।। अर्थात जहां तक श्राद्ध के स्थान का सम्बंध है, वह शून्य स्थान हो, गोशाला हो, नदीतट हो अथवा एकांत स्थान में श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट होते हैं। और सबसे बड़ी अहम बात यह है कि श्राद्ध भूमि दक्षिण की ओर ढालवाली तथा गोमय आदि से लीपकर पवित्र बनायी गई होनी चाहिए। जब बात पितरों को श्राद्ध की प्राप्ति कैसे होती है, की आती है, तो इस बारे में शास्त्रों में यथा मार्कण्डेयपुराण, वायु पुराण और श्राद्ध कल्पलता में स्पष्ट उल्लेख है। कहा गया है कि नाम गोत्र के सहारे विश्वेदेव एवं अग्निष्वात् आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितरों को प्राप्त करा देते हैं। यदि पिता देवयोनि में हैं तो दिया गया अन्न उनको वहां अमृत रूप से प्राप्त होता है। मनुष्य योनि में अन्न रूप में तथा पशुयोनि में तृण रूप में, नागादि योनि में वायु रूप में, यक्षयोनि में पान रूप में तथा अन्य योनियों में उन्हें श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्ति कर पदार्थांे के रूप में प्राप्त होकर तृप्त करती हैं। नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पूर्वक दिए गए पदार्थों को भक्तिपूर्वक उच्चारित मंत्र द्वारा उनके पास पहुंच जाती है। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को क्यांे न पार कर ले, तृप्ति उसके पास पहुंच ही जाती है। इसमें दो राय नहीं।

असलियत यह है कि श्राद्ध तत्व से परिचित होना एवं उसके अनुष्ठान के लिए तत्पर रहना मनुष्य के लिए अतिआवश्यक है। सभी जानते हैं कि मृतक अपना स्थूल शरीर इस महायात्रा में साथ नहीं ले जा सकता है, उस दशा में पाथेय यानी अन्न जल कैसे साथ ले जा सकता है। उसे तो वही मिलता है जो उसके सगे-सम्बंधी श्राद्ध तर्पण विधि से जो कुछ देते हैं। यह श्राद्ध ही है जो अपने अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देता है। यह कुल परंपरा को पुत्र प्रदान कर न केवल अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्य का अंबार लगाता है, शरीर में बल-पौरुष का संचार कर पुष्टि प्रदान करता है और यश कीर्ति का विस्तार कर सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है। इस तरह श्राद्ध कर्म वह क्रिया है, मनुष्य द्वारा किया गया वह पुनीत कार्य है, जो सांसारिक जीवन को सुखमय बनाने के साथ ही, परलोक सुधार कर अंत में मुक्ति प्रदान करता है। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित है कि -'आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च। प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः।।'' अर्थात अपने प्रियजनों के द्वारा किये गए श्राद्ध कर्म से प्रसन्नचित्त संतुष्ट हो पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, राज्य, सुख, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं। अत्रि संहिता में कहा गया है कि -'पुत्रों वा भ्रातरो वयापि दौहित्रः पौत्रकस्तया। पितृकार्ये प्रसक्ता ये यान्ति परमां गतिम्।।' अर्थात जो पुत्र, भ्राता, पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकार्य (श्राद्धानुष्ठान) में श्रद्धावनत् हो संलग्न रहते हैं, वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं। उसमंे तो यहां तक वर्णित है कि जो श्राद्ध के विधि-विधान को जानता है, उसके अनुसार श्राद्ध करता है और ऐसा करने की सलाह देता है एवं श्राद्ध का अनुमोदन करता है, इन सभी को श्राद्ध का पुण्य फल सदैव मिलता है। बृहस्पति द्वारा कहा भी गया है- 'उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मृतौ।।'

यही कारण है कि शास्त्रों ने मृत्यु उपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है। सबसे पहले शव यात्रा के तहत छह पिंड देने की व्यवस्था है। इससे भूमि के अधिष्ठात् देवता तो प्रसन्न होते ही हैं, भूत-पिशाचों द्वारा होेने वाली बाधाओं का भी निराकरण होता है। इसके साथ ही दशमात्र में दिए जाने वाले दस पिंडों से जीव को आतिवाहिक सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है। इसके बाद आगे यानी आने वाले समय में उसे भोजन-अन्न-जल (पाथेय) की जरूरत पड़ती है जो उत्तम षोडसी में दिए जाने वाले पिंडदान से ही उसे प्राप्त होता है और यदि सगे-सम्बंधी, परिजन, पुत्र-पौत्रादि ऐसा न करें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत दारूण दुख प्राप्त होता है। इसीलिए कहा गया है कि श्रद्धा, विधि-विधान से परिजनों द्वारा किए श्राद्ध से ही पितर संतुष्ट होते हैं और सुख-सम्पत्ति, धन-धान्य से युक्त होने का अपने परिजनों-संतानों को आर्शीवाद देते हैं। इसलिए श्राद्ध कर्म की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद् हैं।

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