धर्म-कर्म

जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़ी कुछ रोचक बातें, और क्या हैं पौराणिक कथा

जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़ी कुछ रोचक बातें, और क्या हैं पौराणिक कथा
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देव शिल्पी विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप में वहां आकर राजा की इच्छानुसार प्रतिमा निर्माण का प्रस्ताव रखा और कहा कि 'मैं एक एकांत बंद कमरे में प्रतिमा निर्माण करुंगा तथा मेरी आज्ञा न मिलने तक उक्त कमरे का द्वार न खोला जाए अन्यथा

ओडिशा का 'पुरी क्षेत्र' जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख-क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीजगन्नाथ की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहां के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्रीजगन्नाथ हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है।

पौराणिक कथा

एक समय द्वारिकापुरी में माता रोहिणी से श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी व अन्य रानियों ने राधारानी व श्रीकृष्ण के प्रेम-प्रसंगों एवं ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जिस पर माता ने श्रीकृष्ण व बलराम से छिपकर एक बंद कमरे में कथा सुनानी आरंभ की और सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने को कहा, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् श्रीकृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा के द्वारा अंदर जाने से रोकने पर श्रीकृष्ण व बलराम को कुछ संदेह हुआ और वे बाहर से ही अपनी सूक्ष्मशक्ति द्वारा अंदर की माता द्वारा वर्णित ब्रजलीलाओं को श्रवण करने लगे।

कथा सुनते-सुनते श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत भाव एवं प्रेम उत्पन्न हुआ तथा उनके हाथ व पैर सिकुडऩे लगे। वे तीनों राधा रानी की भक्ति में इस प्रकार भाव-विभोर हो गए कि स्थायी प्रतिमा के समान प्रतीत होने लगे। अत्यंत ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे।

श्री सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे और भगवान के इस रूप को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रीहरि से कहा कि हे प्रभु! आप सदा इसी रूप में पृथ्वी पर निवास करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कलियुग में इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र (पुरी) में प्रकट होने की सहमति प्रदान की। कलियुग आगमन के पश्चात् एक समय मालव देश के राजा इंद्रद्युम्न को समुद्र में तैरता हुआ लकड़ी का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मिला। राजा के मन में उस टुकड़े को निकलवा कर भगवान श्रीहरि की मूर्ति बनवाने की इच्छा जागृत हुई।

उसी समय देव शिल्पी विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप में वहां आकर राजा की इच्छानुसार प्रतिमा निर्माण का प्रस्ताव रखा और कहा कि 'मैं एक एकांत बंद कमरे में प्रतिमा निर्माण करुंगा तथा मेरी आज्ञा न मिलने तक उक्त कमरे का द्वार न खोला जाए अन्यथा मैं मूर्ति-निर्माण बीच में ही छोड़कर चला जाऊंगा"। राजा ने शर्त मान ली, किन्तु कई दिन व्यतीत होने पर भी जब बढ़ई की ओर से कोई समाचार न मिला तो राजा ने द्वार खोलकर कुशलक्षेम लेने की आज्ञा दी।

जब द्वार खोला गया तो बढ़ई रूपी विश्वकर्मा अंतर्धान हो चुके थे और वहां लकड़ी की तीन अपूर्ण मूर्तियां मिलीं। उन अपूर्ण प्रतिमाओं को देखकर राजा अत्यंत दु:खी हो श्रीहरि का ध्यान करने लगे। राजा की भक्ति-भाव से प्रसंन होकर भगवान ने आकाशवाणी की 'हे राजन! देवर्षि नारद को दिए वरदान अनुसार हमारी इसी रूप में रहने की इच्छा है, अत: तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवा दो"।

अंतत: राजा ने श्रीहरि की इच्छानुसार नीलाचल पर्वत पर एक भव्य मंदिर बनवाकर वहां तीनों प्रतिमाओं की स्थापना करवा दी। जिस स्थान पर मूर्ति निर्माण हुआ था, वह स्थान गुण्डिचाघर कहलाता है, जिसे ब्रह्मलोक और जनकपुर भी कहते हैं। ये तीन मूर्तियां ही भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा जी के स्वरूप हैं।

भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व है। इसमें भाग लेने के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुँचते है। इस रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की प्रतिमाओं को तीन अलग-अलग दिव्य रथों पर नगर भ्रमण कराया जाता है।

आज हम आपको इस रथयात्रा से जुड़ी कुछ रोचक बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार है-

1. भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, व सुभद्रा के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते है क्योंकि ये लकड़ी हल्की होती है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में भी बड़ा होता है। यह यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है।

2. भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। इस रथ के सारथी का नाम दारुक है।

3. भगवान जगन्नाथ के रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाशव है, इनका रंग सफ़ेद होता है। रथ के रक्षक पक्षीराज गरुड़ है।

4. भगवान जगन्नाथ के रथ पर हनुमानजी और नृसिंह का प्रतिक चिन्ह होता है। यह स्तम्भ रथ की रक्षा का प्रतिक है।

5. रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है।

6. भगवान जगन्नाथ के रथ में 16 पहिए होते है, ऊँचाई साढ़े 13 मीटर होती है। लगभग 1100 मीटर कपडा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

7. बलराम जी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर महादेवजी का प्रतीक चिन्ह होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी का नाम मताली है।

8. सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। इनके रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते है।

9. भगवान जगन्नाथ के रथ के घोड़ों का रंग सफ़ेद, सुभद्रा के रथ के घोड़ों का रंग कॉफी व बलरामजी के रथ के घोड़ों का रंग नीला होता है।

10. भगवान जगन्नाथ के रथ का शिखर लाल-हरा, बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला व सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल-ग्रे रंग का होता..।



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