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कष्ट की निवृत्ति के लिए करें अनन्तव्रत, खुशहाल जिंदगी बिताएं
यह व्रत भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को किया जाता है। जो इस वर्ष रविवार 23 सितम्बर को पड़ रहा है। व्रती को चाहिए कि उस दिन प्रातः स्नानादि करके
'ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्तप्रीतिकामनया अनन्तव्रतमहं करिष्ये'
ऐसा संकल्प करके वास स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करें। यदि बन सके तो एक स्थान को या चौकी आदि को मंडप रूप में परिणत करके उसमें भगवान की साक्षात् अथवा दर्भ से बनाई हुई सात फणों वाली शेष स्वरुप अनन्त की मूर्ति स्थापित करें। उसके आगे 14 गांठ का अनन्त दोरक रखें और नवीन आम्र पल्लव एवं गंध, पुष्प, धूप, दीप, और नैवेद्यादि से पूजन करें । पूजन में पंचामृत, पंजीरी, केले, और मोदक आदि का प्रसाद अर्पण करके
'नमस्ते देव देवेश नमस्ते धरणीधर।
नमस्ते सर्वनागेन्द्र नमस्ते पुरुषोत्तम।।'
से नमस्कार करे और
' न्यूनातिरिक्त परिस्फुटानि यानीहि कर्माणि मया कृतानि।
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व. प्रयाहि तुष्ट: पुनरागमा।।
इससे विसर्जन करके
'दाता च विष्णुर्भगवाननन्त: प्रतिग्रहीता च स एव विष्णु:।।
तस्मात्वया सर्वमिदं ततं च प्रसीद देवेश वरान् ददस्व।।
से बायन करके कथा सुने और जिसमें नमक ना पड़ा हो ऐसे पदार्थों का भोजन करें ।कथासार यह है कि प्राचीन काल में सुमन्तु ब्राम्हण की सुशीला कन्या कौण्डिन्य को व्याही थी। उसने दीन पत्नियों से पूछकर अनन्त व्रत धारण किया। एक बार कुयोगवश कौडिन्य मे अनन्त के डोरे को तोड़ कर आगमें पटक दिया उस से उसकी संपत्ति नष्ट हो गई। तब वह दुखी होकर अनन्त को देखने वन में चला गया। वहाँ आम्र, गौ, वृष, खर, पुष्करिणी और वृद्ध ब्राम्हण मिले। ब्राम्हण स्वयं अनन्त थे। वे उसे गुहा में ले गए वहां जाकर बतलाया कि वह आम वेद पाठी ब्राह्मण था। विद्यार्थियों को न पढ़ाने से आम हुआ। गौ पृथ्वी थी, बीजापहरण से गौ हुई। वृष धर्म, खर क्रोध और पुष्करिणी बहने थी। दानादि परस्पर लेने देने से उस पुष्करिणी हुई ।और बृद्ध ब्राह्मण मैं हूँ। अब तुम घर जाओ। रास्ते में आम्रादि मिले उनसे संदेशा कहते जाओ और दोनों स्त्री पुरुष व्रत करो सब आनंद होगा। इस प्रकार 14 वर्ष या (यथा सामर्थ्य) व्रत करें। नियत अवधि पूरी होने पर भाद्र पद शुक्ल 14 को उद्यापन करें। उसके लिए सर्वतोभद्रस्थ कलश पर कुश निर्मित या सुवर्णमय अनन्त की मूर्ति और सोना चांदी ताँबा रेशम या सूत्र का (14 ग्रंथ युक्त) अनंत दोरक स्थापन करके उनका वेद मंत्रों से पूजन और तिल, घी, खाँड, मेवा एवं ही आदि से हवन करके गोदान, शय्यादान, अन्नदान ( 14 घट, 14 सौभाग्य द्रव्य, और 14 अनंत दान,) कर के १४ युग ब्राह्मणों को भोजन करावें और फिर स्वयं भोजन करके व्रत को समाप्त करें।
ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद मिश्र लब्धस्वर्णपदक, शोध छात्र, ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय