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भगवान कृष्ण का किसी के गर्भ में न जाने का संकल्प तोड़ने की कथा
जब शुकदेव गोस्वामी जी ने परीक्षित महाराज को कथा सुनाते हुए कहा कि हे राजन आपको लगातार चार दिन हो गए है, आप बिना किसी आराम के और बगैर किसी खान-पान के कथा का श्रवण कर रहे है, अब आप कुछ विश्राम कर लीजिए। परीक्षित महाराज हाथ जोड़कर रोने लगे और कहा महाराज मैं उस भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं को विस्तार से सुनना चाहता हूं, जिन्होंने मेरी मां के गर्भ में मेरे प्राणों की रक्षा की, जिन्होंने महाभारत के युद्ध में मेरे पूर्वजों की रक्षा की। कृपा करके आप मुझे विस्तार से उनकी लीलाओं का वर्णन कीजिए।
शुकदेव जी ने बताया कि जब परीक्षित महाराज अपनी मां उत्तरा के गर्भ में थे, तो अश्वथामा ने उन पर ब्रह्म अस्त्र का प्रयोग गर्भ को नष्ट करने के लिए किया। तो माता उत्तरा के गर्भ में भयंकर जलन होने लगी, तब माता उत्तरा भगवान कृष्ण की शरण में आई और कहने लगी कि हे प्रभु मेरे गर्भ की रक्षा करो। हे प्रभु मेरे गर्भ में ये जो बालक है, ये पांडव वंश का इकलौता वारिस है। तब भगवान श्री कृष्ण ने उत्तरा की करुण पुकार सुन कर सूक्ष्म रूप से उनके गर्भ में प्रवेश करके पांडवों के एक मात्र वंशधर की ब्रह्मास्त्र से रक्षा की किंतु जन्म के समय बालक मृत पैदा हुआ।
यह समाचार सुन कर भगवान श्रीकृष्ण ने सूतिकागृह में प्रवेश किया। भगवद्भक्ति और विश्वास की अनुपम प्रतीक सती उत्तरा पगली की भांति मृत बालक को गोद में उठाकर कहने लगी, ''बेटा! त्रिभुवन के स्वामी तुम्हारे सामने खड़े हैं। तू धर्मात्मा तथा शीलवान पिता का पुत्र है। यह अशिष्टता अच्छी नहीं। इन सर्वेश्वर को प्रणाम कर। सोचा था कि तुझे गोद में लेकर इन सर्वाधार के चरणों में मस्तक रखूंगी, किंतु सारी आशाएं नष्ट हो गईं।''
भक्तवत्सल भगवान ने तत्काल जल छिड़क कर बालक को जीवनदान दिया। सहसा बालक का श्वास चलने लगा। चारों ओर आनंद की लहर दौड़ गई। पांडवों का यही वंशधर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।उस गर्भ में ही परीक्षित महाराज को भगवान श्री कृष्ण ने दर्शन दिए थे।