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ज्ञानेन्द्र रावत
हमारा देश प्राचीनकाल से ही उत्सव प्रिय है। हमारे यहां उत्सवों की बहुलता सभी धर्मों, जातियों, संप्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में परिलक्षित होती है। जीवन में जिस प्रकार मनुष्य क्रीड़ा, हास्य-विनोद और व्यंग से अछूता नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार उत्सव, पर्व, त्यौहार जीवन में एकरसता से मुक्ति पाने के लिए अति आवश्यक हैं जो व्यक्ति के लिए भार मुक्त होने में सहायक सिद्ध होते हैं। वैदिक काल में यज्ञों की प्रधानता, उपनयन, पुत्र जन्म, विवाह, राजसूय एवं अश्वमेघ यज्ञ आदि समारोहों और यात्रा-पर्वों ंमें घर-परिवार, मित्र-बांधव, समाज के अन्य वर्गों के शामिल होने, नृत्य आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि धर्म के साथ-साथ अन्य निमित्तों के माध्यम से भी हमारे यहां पर उत्सव मनाये जाते थे। होली कहें या होलिकोत्सव जिसका ऋतु परिवर्तन से घनिष्ठ संबंध है, भी एक ऐसा ही विशिष्ठ पर्व है जो हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता का परिचायक है। यथार्थ में यह पर्व बसंत और शस्य दोनों के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला पर्व है जो बसंतोत्सव के उल्लास की परिणिति है। इसमें प्राचीनकाल से ही एकता में अनेकता के दर्शन होते हैं।
हमारे यहां होली के इस पर्व का वर्णन कवियों ने वह चाहे रसखान हों, सूरदास हों, रहीम हों, पद्माकर हों, नंद दास हों, तुलसीदास हों, या गोविंददास या फिर कोई अन्य, महाभारत हो या रामायण, नैषध हो, गाथा सप्तशती हो या आर्या सप्तशती या संस्कृत साहित्य का सबसे प्राचीन नाटक मृच्छकटिक हो, श्रीहर्ष कृत प्रियदर्शिका हो या फिर राजशेखर की कर्पूर मंजरी हो, में हास-परिहास एवं व्यंग-विनोद, हंसोड़ों की परंपरा का बड़ा ही रस-स्निग्ध उदाहरण मिलता है। होली की चर्चा हो और उसमें ब्रज की होली की बात ना हो तो सारी चर्चा बेमानी सी लगती है। दरअसल ब्रज की होली सारे भेदभाव मिटाकर हर्ष और उल्लास के साथ सबमें समरस होने का संदेश देती है। जहां तक रसखान का सवाल है, उनके अनुसार- गिरधर गोपाल के गांव की होरी की छटा ही निराली है। उन्होंने कहा भी है कि 'मानुष हों तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।' अर्थात मनुष्य होकर गोकुल गांव के ग्वालों के बीच बसना चाहिए। यह उनके गिरधर के गोकुल के प्रति असीम प्रेम का परिचायक है।
रसखान की मानें तो उनके गिरधर के गोकुल की होरी देखते ही बनती है। समूचे गोकुल में होरी की धूम है। अनुराग और सुहाग से भरी फाग खेली जा रही है। कुंकुम और केसर के रंगों से भरी पिचकारियां चारो ओर रंग ही रंग बिखेर रही हैं। जैसे ही माधव आते हैं, किसी नई-नवेली को गले से लगा लेते हैं। फिर उसके गालों पर गुलाल मलकर उसे बिदा करते हैं। ऐसा लगता है कि वहां ब्रज की किशोरियों का अंग-अंग श्याम रस में डूबा हो। वहां उन्हें मान-अपमान की सुध ही नहीं है। श्याम की बांकी चितवन ने उनके तन के ताप को हर लिया हो। गुलाल की धुंध में उनकी दुति दामिनी की तरह दमक रही है। ठीक उसी भांति जिस तरह सावन के महीने में आकाश में छाई लालिमा के बीच चारो दिशाएं दमकती हैं। सब श्याम रंग में रंगे उनके प्रेम रस में अपनी सुध-बुध खो आकंठ डूबे हैं। जो जहां है, वहीं ठिठक कर रह गया हो। सब के सब श्याम रंग में विलीन हो चुके हैं। चारो ओर गोविंद गोविंद की ही धूम है। रसखान ने उस समय का जो अप्रतिम वर्णन किया है, वह अद्धितीय है, अनुपम है, अनूठा है। उसकी छटा देखते ही बनती है। गोकुल की होरी का कविवर रसखान द्वारा किया चित्रण प्रेम रंग का सजीव कहें या जीवंत परिचायक है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। उनके अनुसार-'गोरज बिराजै भाल लहलही वनमाल, आगे गैयां पाछे ग्वान गावें मृदुतान री। जैसी ध्वनि मधुर-मधुर बांसुरी की, तैसी बंक चितवनि मंद-मंद मुसकान री। कदम विटप के निकट तटनी के तट, अटा चढि़ देखि पीत पट फीरान री। रस बरसावेैं तन तपन बुझावै, नैन -प्राननि रिझावै वह आवै रसखान री।।' रसखान तो कृष्ण की लकुटी और कामरिया पर तीनों लोकों का राज्य न्योछावर करने को तत्पर दिखते हैं। उनकी आंखों में ब्रज के वन, बाग, उपवन, वाटिका और तड़ाग ऐसे बसे हुए हैं कि उन पर वह समस्त सुखों, सिद्धियां और निधियों को समर्पित कना चाहते हैं।
महाकवि सूरदास अपनी रचना 'सूरसागर' में पंद्रह दिन तक होली मनाने के लिए कहते हैं। उनके अनुसार-''कछु दिन ब्रज औरौ रहौ, हरि होरी है। पंदह्र तिथि भरि बरनि हौ, हरि होरी है।'' सूर 'सारावली' में तो होली का चित्ताकर्षक वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि गोपियां बन-ठनकर नंद के द्वार पर आ जाती हैं 'सब बन ठनि आयीं ब्रज की बाल।' सुन्दर साड़ी एवं कंचुकी पहने, नयनों में काजल डाले, नख-शिख तक सोलहों श्रृंगार किए ब्रज की ललनाएं कुमुद कुमारी दीख रही हैं-'सारी पहरि सुरग, कसि कंचुकि, काजरि दै दै नैन...।' पुराणों के अनुसार फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन ढुंढा राक्षसी को निकालने के लिए रंगोत्सव एवं हास्य-विनोद के पर्व मनाने का रिवाज था। उसमें हास-परिहास एवं गाली-गलौज की भी छूट थी। भविष्येत्तर पुराण में उल्लेख है कि- 'नाना रंग मयैर्व स्त्रश्चंदनागरू मिश्रिते, अबीरं च गुलालं च मुखे ताम्बूलं भक्षताम्। वं शोर्त्थ ,जलयत्रं व चर्मयंत्रं करैधृतम, गालिदानं तथा हास्य जजनानर्तन स्फुटम्।।' इस पर्व को मनाने के लिए भांति-भांति के सुन्दर , रंगीन वस्त्र पहनें। अबीर-गुलाल और चंदन एक-दूसरे को लगावें। हाथों में बांस अथवा चमड़े की पिचकारियां लेकर एक-दूसरे के घर जायें और रंग डालें। गालियां दें, हास्य-विनोद में जुट जायें। पुरुषों के साथ स्त्रियां भी इस हंसी-मजाक में शामिल हों और नाच-रंग के साथ हंसें और हंसावें।
संभवतः सूरदास इसी भावना के साथ ओत-प्रोत होकर 'सारावली' में कहते हैं-
'गोपी-ग्वाल मिले इक सारी, बचन नहीं बिनु दीन्हें गारी।
आनि अचानक अंखियां मींचें, चंदन बन्दन उपर खींचे।
हाथिनि लिए कनक पिचकारी तकि तकि छिरकन मोहन प्यारी।।
फिर तो गोपिकाओं में से कोई मुख चूमती है, कोई गाल छूती है, कोई काजल लगाती है, कोई मुरली बजाती है, कोई वस्त्र छीनती है और कोई अंखिया मिलाकर देखने को कहती है, कोई प्रेमभरी गाली देती है और कृष्ण सोने की पिचकारी में रंग भरकर गोपी प्यारी पर डाल रहे हैं। सूरदास कृष्ण पर गोपियों द्वारा किए गए लाठी प्रहार का वर्णन करते हुए कहते हैं कि- 'उन जेरी धरे ग्वार, बांसनि इन पटी मार।' इसके बाद 'फगुआ' मंगा दिये जाने पर वे कहते हैं- 'फगुआ लै लालन छिटकाये, हंसन गुलाल ग्वाल लंह आए।' यह तो सूरदास की विचार दृष्टि में ब्रज की होली का चित्रण है, अब भक्त मीरा के अनुसार होली का वर्णन इस प्रकार है जो होली के आनंद की तुलना परम प्रभु परमात्मा से मिलने वाले आनंद की गीत के माध्यम से करती हैं-
'रंग में होरी कैसे खेलूंरी, सांवरिया के संग।
एक तो आयी राधे प्यारी गोपियां लीनी संग।
ग्वाल-बाल संग लिए कृष्णजी, 'मीरा' के आनंद।ं'
माधुरी के अनुसार-' इहि विधि हिलमिल खेलिए, फागु बड़ौ त्यौहार।' अर्थात होली का त्यौहार बड़ा ही महत्वपूर्ण है, इसलिए हिलमिलकर खेलिए। कवि चतुर्भुज दास के अनुसार-'मगन भए डोलन जित तित हो गिनत न राजा राए।'
अब तुलसीदास जी की दृष्टि में होली देखिए-
'राजा दशरथ द्वारा मची है होरी।
किण रे हाथ कनक डफ बाजे, किण रे हाथ झांझाी जोड़ी।
रामजी रे हाथ कनफ उफ बाजे, भरत रे हाथ झांझारी जोड़ी।
किणरे हाथ कनक पिचकारी, किण रे हाथ अबीर झोली।
लक्षमन रे हाथ कनक पिचकारी, शत्रुघ्न े हाथ अबीर झोली।
तुलसीदास आस रघुबर की, चिरजीवो भैया री जोड़ी।।'
कविवर रहीम 'रहीम रत्नावली' में कहते हैं कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लोग घरों में होली रखते हैं। उनके अनुसार-'होरी पूजन सजनी, जुर नर नारि।' कवि पद्माकर भी घर के दरवाजे पर होरी रखने का वर्णन करते हैं-'जोरि जो धरि है बेदरद के दुआरे होरी।' मिथिला में प्रचलित परंपरा अनुसार वहां के लोग जलता हुआ सवत में जौ और गेंहूं की बालियां भूनकर खाते हैं। यह परंपरा आपसी प्रेम और सौहार्द की प्रतीक है। इस पर्व को बासंती, आसाड़ी के नाम से भी जाना जाता है। वात्सायन के कामसूत्र में तो इस पर्व का होलका के नाम से उल्लेख है। पूर्णिमा के अगले दिन प्रथमा को जिसे धुलेंडी भी कहा जाता है, को लोग टेसू के फूलों से बने रंग से पिचकारियों के माध्यम से एक दूसरे को रंग से सराबोर किए जाने का वर्णन मिलता है। श्री हर्ष की रत्नावली में तो इसका विशद वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस दिन बालक-बालिकाएं पिचकारियों द्वारा इतना रंग छोड़ते थे कि आंगन, गली, बाजार रंगीन कीचड़ से भर जाते थे। उसमें कहा गया है कि-'सद्यः सांद्र विमर्द कंदर्भ कृत क्रीड़े क्षण प्रांगणे।'
कहते हैं प्रेम की गाली तो प्रेम से भी मीठी होती है। किंतु प्रेम कीचड़ तो नहीं होना चाहिए जो दास कबीरा की 'जतन से ओढ़ी चादर' को मैल में न लपेटे और प्रेम, हर्ष, उल्लास के इस पर्व को घृणा, वैमनस्य, ईर्ष्या और भेदभाव के संकीर्ण व अमानवीय व्यवहारों का शिकार न बनाये। यथार्थ में होली का यह पर्व विश्व-बंधुत्व की भावना में उत्तरोत्तर प्रगति लाने का पर्व है। चुंकि हास्य-विनोद, परिहास जीवन का अति सहज मनोभाव है, इसलिए हास्य, परिहास, हर्ष, उल्लास और आनंद का दूसरा नाम 'होली' ह,ै यह हमें सदैव स्मरण रखते हुए इस महा पर्व की महत्ता को बनाये रखने का हरसंभव प्रयास करना चाहिए।