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जब श्राद्ध के दिनों में दानवीर कर्ण हुए फिर से जिंदा जानिए धर्मशास्त्र के अनुसार
गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनेक विधियों से पित्तरों की शांति की जाती है। वेदों के अनुसार इस सृष्टि का निर्माण ब्रह्मा जी ने किया था। उसके परिचालन में देव, ऋषि एवं पित्तर अपने-अपने कार्य को सम्पूर्ण करते हैं। प्रत्येक मनुष्य के अंदर अपने पूर्वजों (पितरों) के गुणयोग (अंश) होते हैं। जब पिता द्वारा जीव माता के गर्भ में जाता है तो उसमें 84 अंश (गुण) होते हैं जिसमें 26 गुण (अंश) तो शुक्र पुरुष के स्वयं के भोजनादि द्वारा उपार्जित होते हैं। शेष 58 गुण पितरों के द्वारा प्राप्त होते हैं। ऋषि पराशर जी ने मानव की आयु कलयुग में कम से कम 120 वर्ष बताई थी।
जो पुरुष अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं, उनको इसी जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध कर्म करने वाले गृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णु लोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महाभारत में एक प्रसंग आता है कि मृत्यु के उपरांत दानवीर कर्ण को चित्रगुप्त ने मोक्ष देने से इंकार कर दिया था। तब कर्ण ने चित्रगुप्त से कहा कि मैंने अपनी सारी सम्पदा दानपुण्य में ही समर्पित की है फिर मुझ पर यह कैसा ऋण शेष रह गया है? तब चित्रगुप्त ने बतलाया ''राजन आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुकता कर दिया, अब आप पर पितृ ऋण शेष है। आपने अपने जीवन काल में संपदा एवं सोने का ही दान किया, अन्न का दान नहीं किया। जब तक आप इस ऋण को नहीं उतारते आपको मोक्ष मिलना संभव नहीं।''
इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को व्यवस्था दी कि आप 16 दिन के लिए पृथ्वी लोक में जाइए। अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों को प्रसन्न करने के लिए श्राद्ध तर्पण कीजिए तथा दान विधिवत करके आइए तभी आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी। दानवीर कर्ण ने ऐसा ही किया। तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि अमावस्या के दिन पितृगण वायुरूप में घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे अपने परिजनों से श्राद्ध की इच्छा और अन्न जल की अभिलाषा रखते हैं। उससे संतृप्त होना चाहते हैं। सूर्यास्त के बाद वे निराश होकर लौट जाते हैं। पितृ इतने दयालु होते हैं कि कुछ भी पास न हो तो दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके आंसू बहा देने से ही तृप्त हो जाते हैं। इस समय सूर्य कन्या राशि में स्थित होते हैं। इस अवसर पर चंद्रमा भी पृथ्वी के काफी करीब होता है। चंद्रमा से थोड़ा ऊपर पितृ लोक माना गया है। सूर्य राशियों पर सवार होकर पितृ पृथ्वी लोक में अपने पुत्र-पौत्री के यहां आते हैं तथा अपना भाग लेकर शुक्ल प्रतिपदा को सूर्य राशियों पर सवार होकर वापस अपने लोक लौट जाते हैं।
महाभारत में वर्णन है कि पिहोवा कुरुक्षेत्र की आठ कोस की भूमि पर बैठकर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। गंगा पुत्र भीष्म पितामह की सद्गति भी पृथुदक में हुई थी। पिहोवा में प्रेत पीड़ा शांत होती है। अकाल मृत्यु होने पर दोष निवारण के लिए पिहोवा में कर्मकांड करवाने की परम्परा है। ऐसा करने से मृतक प्राणी अपगति से सद्गति को प्राप्त हो जाता है।