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शनिदेव का नाम सुनते ही लोगों के मन में दशहत का माहौल पैदा हो जाता है परन्तु शनिदेव हमेशा अहित नहीं करते। अगर शनिदेव किसी के ऊपर मेहरबान हो गए तो उसके वारे-न्यारे हो जाते हैं। शनिदेव सृष्टिकर्ता के इशारों पर चलने के लिए मजबूर हैं। वे स्वयं किसी का अहित नहीं करते। शनि के अधिदेवता प्रजापिता ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण कृष्ण, वाहन गिद्ध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। शनि भगवान, सूर्य तथा छाया संवर्णा के पुत्र हैं।
शनि की दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के श्राप के कारण है। ब्रह्म पुराण के अनुसार बचपन से ही शनि देवता भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वह श्रीकृष्ण के अनुराग में निमग्न रहा करते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया। इनकी पत्नी सती-साध्वी और परम तेजस्विनी थी। एक रात वह ऋतु-स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा से इनके पास पहुंची पर ये श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न थे।
इन्हें बाह्य संसार की सुधि ही नहीं थी। पत्नी प्रतीक्षा करके थक गई। उनका ऋतुकाल निष्फल हो गया। इसलिए उसने क्रोधित होकर शनिदेव को श्राप दे दिया कि आज से जिसे तुम देख लोगे, वह नष्ट हो जाएगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने अपनी पत्नी को मनाया। पत्नी को भी अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ किंतु श्राप के प्रतिकार की शक्ति उसमें न थी। तभी से शनि देवता अपना सिर नीचा करके रहने लगे क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि इनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।