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यह श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को होता है। क्योंकि श्रावणी से राजा का और फाल्गुनी से प्रजा का अनिष्ट होता है। व्रती को चाहिए कि उस दिन प्रातः स्नान आदि करके वेदोक्त विधि से रक्षाबंधन, पित्र तर्पण, और ऋषि पूजन करें। रक्षा के लिए किसी विचित्र वस्त्र या रेशम आदि की रक्षा बनावें।उसमें सरसों, सुवर्ण, केसर, चन्दन, अक्षत, और दूर्वा, रखकर रंगीन सूत के डोरे में बांधे अपने मकान के शुद्ध स्थान में कलशादि स्थापना करके उस पर उसका यथा विधि पूजन करें। फिर उसे मित्रादि के दाहिने हाथ में..
येन बद्धोबलि राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
इस मंत्र से बांधे बाँधने से वर्ष भर तक पुत्र पौत्रादि सहित सभी सुखी रहते हैं।
य: श्रावणे विमलमासि विधानविज्ञो
रक्षाविधानमिदमाचरते मनुष्य:।
आस्ते सुखेन परमेण स वर्षमेकं
पुत्रप्रपौत्रसहित: ससुहृज्जन: स्यात।।
कथा यों है कि एक बार देवता और दानवों में 12 वर्ष तक युद्ध हुआ, पर देवता विजयी नहीं हुए, तब बृहस्पति जी ने सम्मति दी कि युद्ध रोक देना चाहिए। यह सुनकर इन्द्राणि ने कहा कि मै कल इन्द्र को रक्षा बाँधूंगी, उसके प्रभाव से इनकी रक्षा रहेगी और यह विजयी होंगे।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को वैसा ही किया गया और इन्द्र के साथ संपूर्ण देवता विजयी हुए।
श्रवण पूजन -
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को नेत्रहीन माता पिता का एकमात्र पुत्र श्रवण (जो उनकी दिन रात सेवा करता था) एक बार रात्रि के समय जल लाने को गया वहीं कहीं हिरण की ताक में दशरथ जी छुपे थे उन्होंने जल के घड़े के शब्दको पशु का शब्द समझ कर बाण छोड़ दिया जिससे श्रवण की मृत्यु हो गई ।यह सुनकर उसके माता-पिता बहुत दुखी हुए। तब दशरथ जी ने उनको आश्वासन दिया और अपने अज्ञान में किए हुए अपराध की क्षमा याचना करके श्रावणी को श्रवण पूजा का सर्वत्र प्रचार किया। उस दिन से संपूर्ण सनातनी श्रवण पूजा करते हैं। और उक्त रक्षा सर्वप्रथम उसी को अर्पण करते हैं।
ऋषि तर्पण- (उपाकर्पमद्धति आदि)--
यह भी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को किया जाता है इसमें ऋग, यजु, साम के स्वाध्यायी ब्राम्हण, क्षत्रिय, और वैश्य जो ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, किसी आश्रम के हो अपने-अपने वेद कार्य और क्रियाा के अनुकूल काल में इस कर्म को संपन्न करते हैं ।इसका आद्योपान्त पूरा विधान यहां नहीं लिखा जा सकता और बहुत संक्षिप्त लिखने से उपयोग में ही नहीं आ सकता है। सामााऩ्य रुप से यही लिखना उचित है कि उस दिन नदी आदि के तटवर्ती स्थान में जाकर यथा विधि स्नान करें ।कुशा निर्मित ऋषियों की स्थापना करके उनका पूजन, तर्पण, और विसर्जन करें और रक्षा पोटलिका बना कर उसका मार्जन करे। तदनंन्तर आगामी वर्ष का अध्ययन क्रम नियत करके सायं काल के समय व्रत की पूर्ति करें। इस में उपाकर्पमद्धति आदि के अनुसार अनेक कार्य होते हैं। वे विद्वानों से जानकर यह कर्म प्रतिवर्ष सोपवीती प्रत्येक द्विज को अवश्य करना चाहिए। यद्यपि उपाकर्म चातुर्मासमें किया जाता है और इन दिनों नदियाँ रजस्वला होती हैं, तथापि
उपकर्माणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च।
चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते।।
इस वशिष्ठ वाक्य के अनुसार उपाकर्म में उसका दोष नही माना जाता।
ज्योतिषाचार्य पं गणेश प्रसाद मिश्र लब्धस्वर्णपदक शोध छात्र, ज्योतिष विभाग ,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय