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महिलाओं को मायके में ही मजबूत बनाने से बढ़ेगा उनका महत्व - डॉ सुजाता चौधरी
प्रसून लतांत
अपने देश में स्त्रियां आज भी पुरुषों के बराबर नहीं हो पाई हैं। स्त्रियों को जब तक पुरुषों के बराबर महत्व नहीं दिया जाएगा,तब तक उसके सशक्तिकरण की बात अधूरी ही रहेगी। और जहां तक महात्मा गांधी के सपनों के भारत में स्त्रियों की जगह बताई गई है उसे हासिल करने के लिए स्त्रियों को काफी संघर्ष करना होगा। महात्मा गांधी पुत्र और पुत्रियों को हर तरह से बराबर मानते थे। वे कहते थे कि पुत्रियों को पुत्रों के बराबर महत्व मिले। दोनों में से किसी को भी कम अधिकार नहीं होने चाहिए। लेकिन भारतीय समाज चाहता ही नहीं कि पुत्रियों को पुत्रों के बराबर का अधिकार मिले। मौजूदा समय में लोगों में जागरूकता आईं है, स्त्रियां पुरुषों के वर्चस्व वाले सभी क्षेत्रों में कामयाबी हासिल कर रहे हैं,लेकिन जहां तक समाज में और घर में समानता की बात है वह सिर्फ किताबों की बातें हैं। हालांकि शिक्षा के प्रचार प्रसार और स्त्रियों के हित में बने कानूनों की वजह से पुत्र और पुत्रियों को समान महत्व मिलने लगा है लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है।
प्रख्यात गांधीवादी लेखिका और समाज सेविका डॉ सुजाता चौधरी अपने देश में स्त्रियों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करती हुई कहती हैं कि बेटियों को आज भी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा नहीं मिलता। जो बेटी हिस्सा लेती है या लेने की कोशिश करती है उसकी आज भी समाज में आलोचना की जाती है। इसी तरह भ्रूण हत्या में भी कमी नहीं आईं है। इसमें बहुत बढ़ोतरी हो रही है। बहु विवाह कम हो रहे हैं, विधवा विवाह भी होने लगे हैं। समाज जागरूक हो रहा है लेकिन भारतीय संविधान के मुताबिक महिलाएं पूरी तरह से सशक्त नहीं हो पाई है।
डॉ सुजाता का कहना है कि बेटियों का महत्व उसके मायके में ही बढ़ाना होगा, क्योंकि भेद भाव की शुरुआत मायके से ही होती है। बेटियों को बड़ी होते ही यह कहा जाने लगता है कि उसे जो कुछ करना है ससुराल में करना। मानो बेटी का जन्म अपने मायके के लिए नहीं, बल्कि ससुराल में बहु बनने के लिए ही हुआ है। माता पिता अपने बेटों के भविष्य बनाने के लिए सब कुछ करते हैं लेकिन अपनी बेटियों के भविष्य के लिए कुछ भी नहीं करना चाहते हैं। उनके भविष्य को उसकी ससुराल वालों पर छोड़ दिया जाता है। मायके में बेटियों की उपयोगिता बढ़ाने के बारे में कभी नहीं सोचा जाता है। थोड़े बहुत जागरूक लोग अपनी बेटियों को पढ़ाने लिखाने को तैयार हुए हैं लेकिन वे उनकी सुरक्षा को लेकर ज्यादा चिंतित रहते हैं। वे अपनी बेटियों को एक कदम आगे बढ़ाते हैं फिर उनके पांव भी खींच लेते हैं। डॉ सुजाता कहती है कि स्त्री पुरुषों की समानता के लिए बहुत प्रयास करने की जरूरत है तभी वह सशक्त हो पाएगी।
डॉ सुजाता कहती है कि वे निरन्तर लेखन करती रहती है। उनकी कहानियों में कोई काल्पनिक पात्र नहीं होता है। वे समाज से ही दुखी लोगों पर कहानियां और उपन्यास लिखती हैं। उनके अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। उनमें ---1.दिल का क्या रंग करूं 2,कश्मीर: दर्द का सैलाब 3.क्या कहूँ जो अबतक नहीं कही 4.सौ साल पहले- चम्पारण का गाँधी 5 .मैं पृथा ही क्यों न रही 6 .नीलांचल चन्द्र 7 .नोआखाली कहानी संग्रह –1. वे नहीं हारे 2 प्रधानमन्त्री की चिट्ठी 3.आखिरी फैसला 4 अगले जनम मोहे बिटिया ही दीजियो
गाँधी साहित्य—1. महात्मा का अध्यात्म 2. बापू और स्त्री 3. गाँधी की नैतिकता 4.राष्ट्रपिता और नेताजी 5.राष्ट्रपिता और भगतसिंह 6. बापू कृत बालपोथी ,7 .चम्पारण का सत्याग्रह 8 सत्य के दस्तावेज
अन्य रचनाएँ -1.संक्षिप्त श्रीमद्भागवतम् 2.श्री चैतन्यदेव। डॉ सुजाता समाज सेवा के क्षेत्र में भी बहुत सक्रिय है। खासतौर से वे बच्चों की शिक्षा के लिए दो स्कूलों की स्थापना की है। इनमे से एक को सरकारी मान्यता मिल गई है। उन्होंने श्री रास बिहारी मिशन ट्रस्ट के नाम से एक संस्था का गठन किया है। जिसकी वे मुख्य न्यासी हैं|इस ट्रस्ट द्वारा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र के लिए विद्यालयों की स्थापना की गई है। वे बालिका शिक्षा और महिला स्वाबलंबन एवं सशक्तिकरण हेतु रोजगार एवं प्रशिक्षण अभियान का संचालन करती हैं।
वृन्दावन में महिलाओं के लिए आश्रम का संचालन करती है जहां निराश्रित जनों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है। देशभर में बा बापू एकल पाठशाला का संचालन करती हैं।,जैविक खेती,देशी गायों का संरक्षण,विलुप्त बीजों का संरक्षण,नानी माँ रसोई के नाम से मोटे अनाजो के आटे का प्रोमोशन भी करती हैं।