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नही रहे मिल्खा सिंह, भारत बटवारे के समय पाकिस्तान जाने से कर दिया था मना
भारत के 'उड़न सिख' यानी फ्लाइंग सिख के नाम से विख्यात महान फर्राटा धावक मिल्खा सिंह का एक महीने तक कोरोना संक्रमण से जूझने के बाद शुक्रवार देर रात 11:30 बजे चंडीगढ़ में निधन हो गया। इससे पहले रविवार को उनकी 85 वर्षीया पत्नी और भारतीय वॉलीबॉल टीम की पूर्व कप्तान निर्मल कौर ने भी कोरोना संक्रमण के कारण दम तोड़ दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है।
अपने करियर के दौरान उन्होंने करीब 75 रेस जीती। वह 1960 ओलंपिक में 400 मीटर की रेस में चौथे नंबर पर रहे। उन्हें 45.73 सेकंड का वक्त लगा, जो 40 साल तक नेशनल रिकॉर्ड रहा। मिल्खा सिंह को बेहतर प्रदर्शन के लिए 1959 में पद्म अवार्ड से सम्मानित किया गया। इसके अलावा 2001 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी सम्मानित दिया गया, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया था।
मिल्खा ने अपने करियर में 80 में से 77 रेस जीती. रोम ओलंपिक में चूकने का मलाल उन्हें ताउम्र रहा. अपने जीवन पर बनी फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' के साथ अपनी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर उन्होंने कहा था कि एक पदक के लिये मैं पूरे करियर में तरसता रहा और एक मामूली सी गलती से वह मेरे हाथ से निकल गया. उनका एक और सपना अभी तक अधूरा है कि कोई भारतीय ट्रैक और फील्ड में ओलंपिक पदक जीते. अविभाजित पंजाब के गोविंदपुरा के गांव से बेहतर जिंदगी के लिये 15 वर्ष की उम्र में मिल्खा को भागना पड़ा जब उनके माता पिता की विभाजन के दौरान हत्या हो गई. उन्होंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर जूते पॉलिश किये और ट्रेनों से सामान चुराकर गुजर बसर किया. वह जेल भी गए और उनकी बहन ईश्वर ने अपने गहने बेचकर उन्हें छुड़ाया.
पाकिस्तान जाने से पहले कर दिया था मना
मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर, 1929 के दिन पाकिस्तान की धरती पर हुआ था. उनका गांव अविभाजित भारत के मुजफ्फरगढ़ जिले में पड़ता था जो अब पश्चिमी पाकिस्तान में पड़ता है उनके गांव का नाम गोविंदपुरा था. वे राजपूत राठोर परिवार में जन्मे थे. उनके कुल 15 भाई-बहन थे, लेकिन उनका परिवार विभाजन की त्रासदी का शिकार हो गया उस दौरान उनके माता-पिता के साथ आठ भाई-बहन भी मारे गए. परिवार के केवल चार लोग ही जिंदा बचे थे जिनमें से एक आगे चलकर विश्व के महान धावकों में से एक बने जिन्हें अब फ्लाइंग सिख के नाम से भी जाना जाता है.
भारत आने के बाद मिल्खा सिंह का पूरा जोर देश की आर्मी में भर्ती होना था और चाैथे प्रयास में साल 1951 में वे भारतीय सेना में शामिल हो गए. भारतीय सेना में शामिल होना ही टर्निंग पॉइंट था जहां से एक महान खिलाड़ी का उदय हुआ. इसी दौरान उन्हें खेलों में भाग लेने का मौका मिला था सिकंदराबाद में पहली नियुक्ति के साथ वह पहली दौड़ में उतरे. उन्हें शीर्ष दस में आने पर कोच गुरदेव सिंह ने एक गिलास दूध ज्यादा देने का वादा किया था. वह छठे नंबर पर आये और बाद में 400 मीटर में खास ट्रेनिंग के लिये चुने गए. इसके बाद जो हुआ, वह इतिहास बन चुका है. उनकी कहानी 1960 की भारत पाक खेल मीट की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी.
उन्होंने रोम ओलंपिक से पहले पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को हराया था. पहले मिल्खा पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे जहां उनके माता पिता की हत्या हुई थी लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू के कहने पर वह गए.उन्होंने खालिक को हराया और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें 'उड़न सिख' की संज्ञा दी. यह हैरानी की बात है कि मिल्खा जैसे महान खिलाड़ी को 2001 में अर्जुन पुरस्कार दिया गया. उन्होंने इसे ठुकरा दिया था.
एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह बताते हैं कि आर्मी ज्वाइन करने के 15 ही दिन बाद एक दौड़ का आयोजन किया गया था. जिससे एथलेटिक्स ट्रेनिंग के लिए दस जवान चुने जाने थे. जब मैंने रेस शुरू की तो मेरे पेट में दर्द होने लगा, जिसके कारण मुझे रुकना पड़ा, इसके बाद मैंने फिर अपनी दौड़ शुरू कर दी. आधा मील चला ही होऊंगा कि फिर दर्द होने लगा. रुकता, फिर चलने लगता, फिर रुकता, फिर चलता. इस तरह वो दोड़ पूरी की, फिर भी मैं उन करीब पांच सौ लोगों में से छठवें स्थान पर आने में कामयाब हुआ. इस तरह भारतीय सेना में स्पोर्ट्स के लिए उनका दरवाजा खुला. इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है.