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कारोबार पर जलवायु परिवर्तन का असर साफ़ ज़ाहिर, डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए समय मुफ़ीद
भारत का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला राज्य महाराष्ट्र भारत के सबसे बड़े वाणिज्यिक और औद्योगिक केंद्रों में से एक है। इस राज्य ने देश के सामाजिक और राजनीतिक विकास और बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
फ़िलहाल ये राज्य कोविड से जूझता नज़र आ रहा है लेकिन इस बीच यहाँ से जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ लड़ाई के सन्दर्भ में एक राहत देती ख़बर सामने आ रही है। एक ताज़ा सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि महाराष्ट्र के औद्योगिक क्षेत्र में शामिल 65 प्रतिशत इकाइयां कारोबार को जलवायु परिवर्तन के खतरों से मुक्त किए जाने को शीर्ष प्राथमिकताओं में रखती हैं। उनमें से अधिक इकाइयां यह भी मानती हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण उनके सेक्टर और कारोबार पर 'बहुत भारी असर' पड़ा है। उत्पादकता, खर्च और मुनाफे तथा आपूर्ति श्रंखला पर इसका सीधा असर पड़ा है। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कामगारों की सेहत पर असर का पहलू भी जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रत्यक्ष प्रभाव के तौर पर उभरा है। दूसरी ओर बड़े उद्योगों ने पर्याप्त समर्थन और मार्गदर्शन के बगैर ऊर्जा अनुकूलन और दक्षता रणनीतियों पर अधिक प्रयास और समय लगने को लेकर चिंता जाहिर की। बड़े उद्योगों के 59 फ़ीसद नीति निर्धारकों ने इसे एक चुनौती बताया। वहीं, एमएसएमई में 41 प्रतिशत नीति निर्धारकों ने भी ऐसी ही राय जाहिर की।
इन बातों का ख़ुलासा, जलवायु संवाद संबंधी संस्था, क्लाइमेट ट्रेंड्स द्वारा महाराष्ट्र के औद्योगिक समुदाय पर किए गए अपनी तरह के पहले सर्वे की आज जारी रिपोर्ट में हुआ।
यह रिपोर्ट उद्योग जगत में जलवायु परिवर्तन को लेकर व्याप्त धारणा के साथ-साथ जलवायु के प्रति मित्रवत तरीके से कारोबार करने की उसकी ख्वाहिश को भी जाहिर करती है। इस सर्वे में यह पाया गया है कि महाराष्ट्र के औद्योगिक क्षेत्र के 70 फ़ीसद से भी ज्यादा हिस्से का यह मानना है कि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविक मुद्दा है और कुटीर लघु एवं मझोले उद्योगों (एमएसएमई) के मुकाबले बड़े उद्योगों में इस मसले को लेकर समझ ज्यादा गहरी है।
महाराष्ट्र के लोगों और उसकी अर्थव्यवस्था के लिहाज से उद्योगों के महत्व को ध्यान में रखते हुए क्लाइमेट ट्रेंड्स ने एक बेसलाइन सर्वे किया, जिसका मकसद इस बात को समझना था कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न जोखिमों, प्रतिक्रियाओं और इससे निपटने के लिए राज्य की जरूरतों के सिलसिले में उद्योग जगत क्या सोचता है। इस सर्वे के दायरे में 404 कंपनियों को लिया गया, जिन्हें बड़े उद्योग तथा एमएसएमई में बराबर-बराबर बांटा गया। यह सर्वे मार्केट रिसर्च एजेंसी यूगव (YouGov) द्वारा दिसंबर 2020 में किया गया। इस सर्वे के दायरे में लिए गए क्षेत्रों में सॉफ्टवेयर और आईटी कंपनियां, वित्तीय सेवाएं तथा बीमा कंपनियां, रिटेल और ई-कॉमर्स, स्वास्थ्य एवं फार्मास्युटिकल्स, रियल स्टेट और विनिर्माण, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार, ऑटोमोबाइल्स, परिवहन और जहाजरानी, खाद्य प्रसंस्करण एवं दुग्ध उत्पादन, मात्सियिकी, कपड़ा, स्टील और सीमेंट, पर्यटन और आतिथ्य, धातुकर्म, मशीनरी और इंजीनियरिंग, एफएमसीजी, कृषि इनपुट, रसायन एवं प्लास्टिक और रचनात्मक कला शामिल हैं।
इस सर्वे की रिपोर्ट में साफ तौर पर जाहिर होता है कि इस वक्त डीकार्बोनाइजेशन किए जाने की बेहद ज़्यादा ज़रूरत है और कारोबार पर जलवायु परिवर्तन का असर बिल्कुल साफ जाहिर है।
इसमें कोई शक नहीं है कि कारोबार जगत को अपनी औद्योगिक इकाइयों, आपूर्ति श्रंखला और निवेश पोर्टफोलियो के कारण उत्पन्न ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सख्त नियम कायदे लागू करके अपने कार्य संचालन को जोखिम से मुक्त करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ना होगा। सर्वे के दायरे में लिए गए 50 फ़ीसद से ज्यादा उत्तरदाताओं ने यह माना कि जलवायु परिवर्तन के कारण उनके सेक्टर पर असर पड़ा है। वहीं, 45 फ़ीसद उत्तरदाताओं का यह भी मानना था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से उनके कारोबार पर भी असर पड़ा है। कुल मिलाकर भारी वर्षा, बाढ़, चक्रवात, पानी की किल्लत और बढ़ता तापमान उद्योग जगत और विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के मुख्य खतरों के तौर पर देखे जाते हैं। राज्य के 35% कारोबारियों का दावा है कि जलवायु परिवर्तन एक विध्वसं लेकर आया है और पेड़ पौधों तथा जीव जंतुओं के विनाश की वजह से उनके कारोबार को नुकसान हो रहा है।
काउंसिल फॉर एनर्जी एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा हाल में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र के 80 प्रतिशत से ज्यादा जिलों पर सूखे या अकाल जैसी परिस्थितियों का खतरा मंडरा रहा है। औरंगाबाद, जालना, लातूर ओसामाबाद, पुणे, नासिक और नांदेड़ जैसे जिले सूखे के लिहाज से महाराष्ट्र के प्रमुख जिलों में शामिल हैं। वहीं, दूसरी ओर यह साफ जाहिर है कि परंपरागत रूप से सूखे की आशंका वाले दिनों में पिछले एक दशक के दौरान जबरदस्त बाढ़ और चक्रवात जैसी भीषण मौसमी स्थितियां भी देखी गई हैं। औरंगाबाद, मुंबई, नासिक, पुणे और ठाणे जैसे जिले जलवायु संबंधी एक छोटे विचलन (शिफ्ट) के गवाह बन रहे हैं जहां सूखी गर्मी जैसे वातावरणीय जोन पनपने के कारण चक्रवाती विक्षोभ की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है। इसकी वजह से तूफान आने, अत्यधिक बारिश होने तथा बाढ़ आने की घटनाएं हुई हैं। इसके अलावा पिछले 50 वर्षों के दौरान महाराष्ट्र में जबरदस्त बाढ़ आने की घटनाओं में 6 गुना इजाफा हुआ है। यह रुझान साफ इशारा देते हैं कि किस तरह से जलवायु संबंधी अप्रत्याशित घटनाएं बढ़ रही हैं, जिनकी वजह से जोखिम का आकलन करना और भी ज्यादा बड़ी चुनौती हो गई है।
हम 2021-2030 के दशक में प्रवेश कर गए हैं। संभवत यह दशक जलवायु परिवर्तन पर लगाम कसने के लिहाज से आखिरी दशक साबित हो सकता है। अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि कंपनियों को कोरी बातें छोड़कर वास्तविक समाधानों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। जैव विविधता अर्थशास्त्र पर आधारित और इस साल के शुरू में जारी दासगुप्ता रिव्यू में साफ तौर पर कहा गया है कि आर्थिक और वित्तीय निर्णय प्रक्रिया में कुदरत को उसी तरह शामिल करने की जरूरत है जैसे कि इमारतों, मशीनों सड़कों और कार्यकुशलता को शामिल किया जाता है। समानतापूर्ण प्रगति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के तहत राष्ट्रीय लेखा प्रणालियों में नेचुरल कैपिटल को शामिल करने की जरूरत है।
जहां यह बात स्थापित हो चुकी है कि जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए प्रयास करना हमारी धरती और कारोबारी मुनाफे दोनों के लिए ही अच्छा है, वहीं यह सर्वे दोहराता है कि नीति निर्धारक अब अक्षय ऊर्जा को अपनाने, जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने तथा जल संचयन और उसकी रीसाइकलिंग को महत्व देते नजर आ रहे हैं। खुदरा और एफएमसीजी जैसे सेक्टर अब आपूर्ति श्रंखला की क्षमता निर्माण के महत्व को समझ रहे हैं। जहां एक ओर यह सुधारात्मक कदम समूचे उद्योग जगत के नीति निर्धारकों में आम तौर पर स्वीकार्य नजर आ रहे हों, वही बैंकिंग, वित्तीय सेवाएं और बीमा संबंधी कारोबार बिजली उपभोग के लिहाज से किफायती एयर कंडीशनिंग को अपनाने में ज्यादा खुलापन दिखा रहे हैं। इसके अलावा रियल स्टेट, अवसंरचना (विनिर्माण और आर्किटेक्चर स्टील तथा सीमेंट) ऐसे उत्पादों की आपूर्ति को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं जिनकी पैकेजिंग में कम से कम सामग्री का इस्तेमाल हो, ताकि कचरे को कम करने में मदद मिले।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि 50% से ज्यादा औद्योगिक इकाइयां और कारोबार यह मानते हैं कि कोविड-19 महामारी ने उन्हें बहुत भारी नुकसान पहुंचाया है। इसकी वजह से 60% कारोबारों को अपनी खर्च संबंधी योजनाओं पर फिर से विचार करना पड़ा है, ताकि भविष्य में अचानक आने वाली ऐसी मुसीबतों से बेहतर ढंग से निपटा जा सके। हालांकि जैव विविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं पर आधारित एक अंतरसरकारी साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म (आईपीबीईएस) ने वर्ष 2020 में जारी एक वैश्विक रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया था कि भविष्य में ऐसी महामारियां जल्दी-जल्दी आएंगी और उनमें से कई कोविड-19 से भी ज्यादा घातक होंगी। अगर संक्रामक रोगों से निपटने की के लिए वैश्विक रवैये में रूपांतरणकारी बदलाव नहीं लाये गये और कुदरत को हो रहे नुकसान तथा महामारियों के बढ़ते खतरे के बीच अंतरसंबंधों को तेजी से नहीं समझा गया तो इन बीमारियों से निपटने का खर्च बहुत ज्यादा होगा। महामारियों से निपटने के लिए वैक्सीन को एकमात्र समाधान के तौर पर देखा जा रहा है हालांकि आईपीबीईएस के अनुमान के मुताबिक जुलाई 2020 में वैक्सीन की लागत 8-16 ट्रिलियन डॉलर थी और वर्ष 2021 की चौथी तिमाही (यह मानते हुए कि वैक्सीन तब तक कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिहाज से प्रभावी हो जाएगी) में अकेले अमेरिका में ही उसकी लागत 16 ट्रिलियन डॉलर हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक महामारियों के जोखिम को कम करने पर होने वाला खर्च महामारियों को रोकने के उपायों पर होने वाले खर्च से 100 गुना कम होगा।
महाराष्ट्र उद्योग एवं कारोबार सर्वे को आज क्लाइमेट ट्रेंड्स, सेंचुरी नेचर फाउंडेशन और बॉम्बे चेंबर ऑफ कॉमर्स की राउंड टेबल चर्चा के दौरान जारी किया गया। इस सत्र में महाराष्ट्र के मुख्य सचिव श्री सीताराम कुंटे और मुंबई चेंबर ऑफ कॉमर्स के डॉक्टर विनोद चोपड़ा, डीएसपी म्युचुअल फंड के अनिल घेलानी, रिलायंस इंडस्ट्रीज के रोहित बंसल, मॉर्निंग स्टार के आदित्य अग्रवाल, हिंदुजा फाउंडेशन के पॉल अब्राहम, 100X के शशांक रनदेव और यूएन पीओपी हाई लेवल चैंपियंस फॉर क्लाइमेट एक्शन की जेनिफर ऑस्टिन ने हिस्सा लिया।
दुनिया के अनेक देश प्रदूषण मुक्त कारोबार की योजना बना रहे हैं ऐसे में भारतीय उद्योग जगत के पास अपनी रणनीतिक सोच में जलवायु परिवर्तन से निपटने की अपनी तैयारी और कार्बन से मुक्ति के काम में तेजी लाने के संकल्प को शामिल करने का सुनहरा मौका है। जाहिर है कि उद्योग और कारोबारी जगत बदलते पर्यावरणीय परिदृश्य से लड़ने में मदद की आस लगाए हैं। इस काम में उद्योग संगठनों और केंद्र सरकार को प्रमुख सहयोगी के तौर पर देखा जा रहा है। वहीं राज्य सरकार के सहयोग को चौथी पायदान पर रखा गया है। कारोबार से संबंधित निर्णय लेने वाले लोग सरकार से अतिरिक्त सहयोग के तौर पर वित्तीय मदद (कर्ज़, क्रेडिट सुविधा) और तकनीकी परामर्श की आस लगाए नजर आते हैं। रियल स्टेट और अवसंरचना (विनिर्माण आर्किटेक्चर इस्पात एवं सीमेंट) जैसे क्षेत्र सरकार से वित्तीय मदद के साथ साथ कर में कमी के तौर पर भी सहयोग चाहते हैं। वहीं, दूरसंचार, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक तथा खुदरा और एफएमसीजी जैसे सेक्टरों को नीतिगत दिशानिर्देश से फायदा मिलने की संभावना है। इसके अलावा एमएसएमई के मुकाबले बड़ी औद्योगिक इकाइयां नीतिगत मार्गदर्शन और करों में कटौती जैसी मदद के प्रति ज्यादा (क्रमशः 57% बनाम 46% और 57% बनाम 48%) इच्छुक नजर आती हैं।