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नक्सली क्षेत्रों में आदिवासी लड़कियों को नक्सलियों से डर?
विजया पाठक, एडिटर जगत विजन
मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार और केंद्र की मोदी सरकार ने भले ही 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में घोषित किया है। लेकिन क्या सही मायने में आज भी देश व प्रदेश के आदिवासी समुदाय के लोग खुद को सुरक्षित व सम्मानित महसूस कर पा रहे हैं। यह एक बड़ा सवाल है जिसका जबाव न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार सही ढंग से तथ्यों के साथ देने में समर्थ है। क्योंकि मैदानी स्तर पर हालात कुछ और ही है। आजादी के 70 साल बाद आज भी आदिवासी समुदाय से जुड़े लोगों को आर्थिक, सामाजिक और सड़क, बिजली, पानी, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं से दो-चार होना पड़ रहा है।
आखिर कब आदिवासी समुदाय के विकास पर करेंगे चर्चा
राज्य की भाजपा सरकार आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आदिवासी समुदाय को साधने के लिए 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस पर विशाल जनजातीय महासम्मेलन का आयोजन करने जा रही है। इस आयोजन के लिए सरकार लगभग 23 करोड़ रूपये से भी अधिक की राशि खर्च करने जा रही है। इसमें 12.90 करोड़ नाश्ता, भोजन और परिवहन पर, 9 करोड़ ब्रांडिंग और टेंट पर खर्च किए जाएंगे। भारतीय जनता पार्टी के नेता राज्य सरकार के कोष से सिर्फ जनता के पैसे की बर्बादी का जश्न मनाने जा रहे है। जबकि देखा जाए तो यदि राज्य सरकार इतनी ही राशि से किन्हीं तीन से चार आदिवासी बाहुल्य जिलों में विकास से जुड़ी योजनाओं का लाभ पहुंचाती तो निश्चित तौर पर सही मायने में जनजातीय गौरव दिवस सार्थक साबित होता।
पलायन करने पर मजबूर है आदिवासी बहन-बेटियां
प्रदेश सहित देश के अधिकांश आदिवासी बाहुल्य जिलों में रहने वाले जनजातीय लोग आज भी पलायन करने को मजबूर है। इसका सबसे बड़ा कारण है स्थानीय स्तर पर रोजगार का अभाव और नकसलियों का डर। सिर्फ पुरूष ही नहीं बल्कि महिलाएं भी अपने जिलों को छोड़ अन्य जिलों में जाकर छोटी-छोटी राशि पर मजदूरी करने को मजबूर है। गांव के लोग अपनी लड़कियों को शहरों में काम करने को भेजने के लिए मजबूर है। इन आदिवासियों की अधिकतर लड़कियां दिल्ली, मुंबई, आगरा, गोवा सहित मेट्रो सिटीज में जाकर काम करती है। जहां काम के बदले मिलने वाली राशि को वे अपने घरों में भेजती है जिससे उनके परिवार के अन्य सदस्यों का पालन पोषण होता है। इतना ही नहीं आदिवासियों के मन में नकसलियों से सुरक्षा का भय इतना अधिक है कि वो अपनी बहन-बेटियों को अपने साथ रख ही नहीं पाते। छत्तीसगढ़ में लगभग नकसलियों के भय से लगभग 700 गांव खाली हो गए हैं। मध्यप्रदेश में बालाघाट, डिंडौरी, मंडला, धार आदि क्षेत्रों में रहने वाले बैगा, सहरिया, गोंड जनजाति से जुड़े लोग हो या फिर छत्तीसगढ़ के बस्तर, नरायणपुर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा ,सूरजपुर , बलरामपुर, कोंडागांव, कांकेर, सरगुजा, कोरिया, कोरबा एवं जशपुर, झारखंड में निवासरत उरांव, कोरवा, आदिम, सैरिया, असुर, लोहरा, संथाल जनजाति से जुड़ी महिलाएं हो या पुरूष सभी अपना घर-परिवार छोड़ आर्थिक तंगहाली को दूर करने के लिए पलायन करने को मजबूर है।
नहीं मिलता सरकार की योजनाओं का लाभ
केंद्र एवं प्रदेश सरकार की तमाम योजनाएं आदिवासियों की तकदीर नहीं बदल पाई हैं। आज भी तमाम परिवार झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। इतना ही नहीं, आदिवासियों का पलायन रोकने में मनरेगा नाकाम साबित हो रही है। मुख्य धारा से कटे लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के मकसद से केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा अनेक जनकल्याण की योजनाएं चलाईं जा रही हैं। इनमें प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छता मिशन अंतर्गत शौचालय निर्माण, मनरेगा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सस्ती दरों पर अनाज, विभिन्न पेंशन योजनाएं शामिल हैं। इन योजनाओं का लाभ चंद लोगों तक ही पहुंच पा रहा है। मनरेगा में स्थानीय स्तर पर रोजगार व समय से भुगतान नहीं होने की समस्या बनी हुई है। इस कारण कई परिवार महानगरों की ओर रुख कर लेते हैं, ऐसा नहीं कि विभागीय अफसर और राज्य सरकारें इससे परिचित नहीं हैं लेकिन वह चुप्पी साधे रहते हैं। झोपड़ियों में रहना बारिश में सीजन में सबसे ज्यादा कठिन हो जाता है।
आदिवासी क्षेत्रों में क्यों नहीं होते आयोजन?
केन्द्र या राज्य सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर आदिवासियों से जुड़े आयोजन होते हैं। यह आयोजन उन क्षेत्रों में या शहरों में होते हैं जहां आदिवासियों की संख्या न के बराबर होती है। मतलब आयोजन करना है तो हजारों की संख्या में आदिवासियों को ढोकर आयोजन स्थल पर लाया जाता है। जिससे आयोजन तो सफल हो जाते हैं लेकिन जिन उददेश्यों के लिए आयोजन होते हैं उनकी सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहता है। बेहतर यह हो सकता है कि यह आयोजन यदि आदिवासी क्षेत्रों में ही किए जाए तो उस क्षेत्र का विकास होगा। आदिवासियों की समस्याओं को करीब से जानने समझने का अवसर मिलेगा। साथ ही आदिवासियों से साथ भी बेहतर जुड़ाव हो सकेगा। बड़ी संख्या में आदिवासियों की सहभागिता भी होगी। आयोजन जनांदोलन का आकार लेगा।