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- सलाह, दवा और डॉक्टर !
कुछ दिन पहले मार्निंग वाक पूरी करने के बाद हम सब लोग एक बेंच पर बैठे थे तब ही अचानक एक लड़के ने एक पेड़ पर पत्थर फेंका। वह पत्थर मधुमक्खियों के छत्ते पर जाकर लगा। सारी मधुमक्खियां भनभनाती हुई उस लड़के के ऊपर हमला करने को उड़ीं। वह लड़का तो भाग निकला मगर जाते-जाते वह हमारी बेंच पर आकर हमारे एक साथी से चिपट गया। मधुमक्खियों ने हमारे उस साथी को घेर लिया। वह लड़का बच कर भाग गया। मधुमक्खयों ने उन साथी को ऐसा जकड़ लिया कि जब तक वे समझते-समझते उन मधुमक्खियों ने उनके आंख-नाक-कान पर डंक मार-मार कर फुला दिए। पूरा चेहरा लाल-भभूका। वे साथी जब जमीन पर पड़े तडप रहे थे तब हम चाहकर भी कुछ न कर सके। मेरा मन बार-बार करे कि उनके पास जाकर उन्हें बचाऊँ मगर मधुमक्खियां उन्हें इस तरह घेरे थीं कि उनके पास तक जाना मुश्किल। मैं पानी की पाइप लाइन लाने के लिए भागा पर उसमें पानी ही नहीं। किसी तरह उन्हें भगाकर बाहर लाया गया और गाड़ी के अंदर बिठाकर एसी फुल स्पीड पर चला दिया गया। मैने गाड़ी भगाई तब जाकर उन मधुमक्खियों से छुटकारा मिला। पर तब तक उनकी तबियत बहुत खराब हो चुकी थी और कोई डॉक्टर भी नहीं मिल पा रहा था जो उनका इलाज करता। ऐसे में एक नहीं तमाम लोगों ने डॉक्टरों की तरह दवाएं बतानी शुरू कीं मगर मेरा कहना था कि बिना डॉक्टर से पूछे दवा न ली जाए। यह और खतरनाक हो सकता है।
स्वयं डॉक्टर बन जाना हम भारतीयों की आदत है। चाहे कितनी भयानक तकलीफ हो पर अक्सर भारतीय लोग स्वयं डॉक्टर बनकर दवा ले आते हैं। जुकाम-खांसी तो खैर मामूली बात है आमतौर पर लोग असाध्य बीमारियों में किसी योग्य चिकित्सक से सलाह कर दवा लेने की बजाय दवा की दूकानों से स्वयं दवा ले आते हैं। इसके बड़े बुरे परिणाम सामने आते हैं पर लोगों की चिकित्सक के पास जाने की आदत नहीं है। नतीजा यह होता है कि जब बीमारी असाध्य रूप धारण कर लेती है तो उन्हें पता चलता है कि उनकी स्वयं इलाज करने की आदत ने उन्हें तमाम अनचाही बीमारियों का शिकार बना दिया है। हाल में ही एक मेडिकल सर्वे में पता चला है कि सौ में से साठ भारतीय अंग्रेजी दवाएं स्वयं ले लेते हैं। और चूंकि एलोपैथी दवाओं के साइड इफेक्ट भी होते हैं इसलिए सहज भाव से ली गई दवाएं भी उनके लिए जानलेवा बन जाया करती हैं। एलोपैथी में सबसे आसान है दवाओं का सरलीकरण। सब को पता होता है कि बुखार होने पर अमुक दवा ले ली जाए पर मरीज को यह नहीं पता लगता कि उसके बुखार का कारण क्या है और वह बुखार उतारने के लिए बाजार में उपलब्ध सबसे सस्ती और लोकप्रिय दवा ले आता है। इससे फौरी तौर पर बुखार उतर भी जाता है जिसकी वजह से मरीज सोच लेता है कि मौसमी बुखार होगा और डॉक्टर के पास जाने का इरादा टाल देता है। नतीजा यह होता है कि बार-बार बुखार आने के संकेत वह समझ नहीं पाता और किसी भारी बीमारी का शिकार होकर बाद में पैसा और समय दोनों जाया करता है। बुखार दरअसल वह संकेत है कि शरीर के अंदर कोई गड़बड़ी है और उसका इलाज कराया जाना जरूरी है। बुखार सामान्य शारीरिक व्याधि नहीं है वह एक प्राकृतिक तौर पर शरीर द्वारा दी जाने वाली सूचना है। संभव है कि थकान हो जाने अथवा आहार-विहार में कोई गड़बड़ी हो जाने से बुखार आ जाए और अपने आप वह कुछ समय बाद उतर भी जाए तो उसके लिए दवा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। या तो बुखार के लिए एकाध दिन का इंतजार किया जाए अथवा किसी डॉक्टर को दिखाया जाना जरूरी होना चाहिए। अन्यथा जिस तरह हर चौथा भारतीय ब्लड प्रेशर और हर एसीडिटी तथा हर दसवां भारतीय मधुमेह का शिकार हो रहा है वह आने वाले समय में भयानक और असाध्य बीमारियां तेजी से पनपने का संकेत है।
खासतौर पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे रोग की जटिलताएं भी बढ़ती जाती हैं तथा शरीर के अंदर रोगों से लडऩे की क्षमता भी घटती जाती है। ऐसी स्थिति में अपने -से दवा ले लेने की प्रवृत्ति घातक हो सकती है। एक अध्ययन के अनुसार अगर चिकित्सक भी सहज और सामान्य दवाएं बार-बार लिखे तो मरीज को उससे पूछना चाहिए कि इस दवा के कोई साइड इफेक्ट्स तो नहीं हैं। आहार-विहार के गड़बड़ी के कारण इधर पेट के मरीजों की संख्या बढ़ी है पर या तो स्वयं मरीज अथवा डॉक्टर भी उसे फौरन राहत के लिए एंटासिड लेने की सलाह देते हैं। एंटासिड तत्काल राहत देता है जिस वजह से मरीज को आयन्दा कभी भी पेट में जलन की या एसीडिटी की दूसरी कोई समस्या होती है वह एंटासिड ले लेता है नतीजा यह होता है कि अनजाने में ही मरीज अपनी किडनी या लीवर गंवा बैठता है। एसीडिटी शरीर के लिए आवश्यक है और एंटासिड के असर के चलते शरीर में एसिड बनना रुक जाता है। जिसका असर यह होता है कि शरीर को खाना पचाने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है जिस वजह से अन्य गड़बडिय़ां शुरू हो जाती हैं। एंडोक्रिनोलाजिस्ट की मानें तो खुद दवा लेने की आदतें आदमी को तमाम अन्य बीमारियों का शिकार बना देती हैं। पेन किलर और पैरासीटामाल जैसी दवाएं भी खुद लेने से बचना चाहिए। इसीलिए काबिल चिकित्सक यूरीन कल्चर की रिपोर्ट आने के बाद ही उसे एंटीबायोटिक्स लेने की सलाह देते हैं।
दरअसल जिन चिकित्सा पद्घतियों में निरंतर शोध हो रहा है उनमें बीमारियों की जटिलताओं और उनके पनपने की प्रक्रियाओं का पता चलता रहता है। कोई जरूरी नहीं कि डॉक्टर जो दवा आज से दस साल पहले देते थे वही आज भी जस की तस फायदेमंद हो मगर मरीज इस बात को नहीं समझता और वह वही पुरानी दवा लेकर काम चला लेता है। नतीजा यह होता है कि वह बार-बार बीमार रहने लगता है। अक्सर तो यह भी होता है कि दवाओं के साइड इफेक्ट्स के चलते वह असाध्य बीमारियों की गिरफ्त में आ जाता है। ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियों को रोकने के लिए जो दवाएं आज से दस साल पहले दी जाया करती थीं आज डॉक्टर उन्हें नहीं लेने की सलाह लेते है और उसकी वजह है कि वे दवाएं शरीर में किडनी और लीवर के लिए नुकसानदेह होती हैं। इसलिए जरूरी है कि कोई भी दवा डॉक्टर की सलाह के बाद ही सेवन की जाए। पर स्वयं डॉक्टर बनने के पीछे जनसाधारण की अपनी मानसिकता भी है। इसकी वजह है एक तो डॉक्टरों द्वारा लालच में आकर किसी विशेष दवा कंपनी की दवा की बिक्री बढ़ाने के लिए वे दवाएं लिखना और दूसरे भारत में डॉक्टरों का मंहगा होना तथा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का लचर होना। हर व्यक्ति को पता होता है कि अगर वह सरकारी अस्पताल में गया तो एक तो भारी भीड़ का सामना करना पड़ेगा दूसरे डॉक्टर व अन्य अस्पताल कर्मियों की लापरवाही का। तथा यदि वह प्राइवेट अस्पतालों में गया तो तमाम तरह के फिजूल टेस्ट कराकर उससे पैसा वसूला जाएगा और दूसरे वहां भी बेहतर इलाज की कोई गारंटी नहीं है।
इस मानसिकता की वजह भी वाजिब है। भारत जैसे एक जनसंख्या बहुल देश में इलाज मंहगा तो है ही डॉक्टरी की पढ़ाई उससे भी अधिक मंहगी है जिसकी वजह से डॉक्टरी का पेशा एक लाभ का पेशा बन गया है और खुद डॉक्टर भी अनाप-शनाप कमाने के चक्कर में मरीज की संवेदना के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं। वे मरीज का इलाज करने में पूरी संजीदगी से काम करने की बजाय उसे फौरी तौर पर राहत दिलवा कर काम चला लेते हैं। रोग के प्रति वे स्वयं भी संजीदा नहीं होते इसलिए वे मरीज को वही सामान्य दवाएं दे देते हैं जो तात्कालिक तौर पर राहत तो दे देती हैं मगर लंबे समय के लिए अन्य बीमारियां दे जाती हैं। चूंकि भारत में डॉक्टरों के ऊपर कोई अंकुश नहीं है इसलिए उनकी लापरवाही से होने वाली मौतों अथवा दवाओं के साइड इफेक्ट्स की कोई जवाबदेही उस चिकित्सक की नहीं होती। ऐसे में मरीज को स्वयं डॉक्टर बनना पड़ता है। सरकार को चाहिए कि वह स्वास्थ्य सेवाओं पर लगाम लगाए तब ही देश के तमाम लोगों को तेजी से बढ़ रही असाध्य बीमारियों से बचाया जा सकेगा।