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....और लक्ष्मी जी जीत गयीं

सुजीत गुप्ता
29 Oct 2021 1:29 PM GMT
....और लक्ष्मी जी जीत गयीं
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शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बतिया रहे थे। दीवाली का भोर था सो लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं, परंतु अंदर से प्रसन्न भी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा, ' हे देव, कल देखा आपने, नीचे मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले, देखिये लक्ष्मी जी, दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान, भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो, परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ, ऐसा नहीं है। बाकी दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं। और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए।

बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, " प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं।

देवलोक से भूलोक पर उतरते हुए भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा, हे देवि! किस की परीक्षा ली जाए। लक्ष्मी जी ने कहा, जिस पर आपको भरोसा हो प्रभु। काफी सोच विचार कर विष्णु भगवान ने एक छोटे से राज्य को चुना। राज्य छोटा था परंतु राजा उसका बड़ा पराक्रमी, वीर, होशियार और दानवीर था। उस राजा के एक गुरुजी थे, जिन पर वह अपार श्रद्धा रखता था। गुरुजी हिमालय में निवास करते थे।

विष्णु और लक्ष्मी के आगमन के समय राजा के महल में एक ब्रह्मभोज चल रहा था। विष्णु ने राजा के गुरु का वेश धारण किया और महल में पहुंच गए। अपने गुरु को देखते ही राजा की आंखों में जल भर आया। वह उनके चरणों में दंडवत हो गया। अरे! महाराज, आपको कितना खोजा आप मिले ही नहीं। मेरे अहोभाग्य आप सही समय पर पधारे है। गुरु का रूप धरे विष्णु भगवान को राजमहल के सबसे सुंदर कक्ष में चांदी के पलंग पर आसन दिया गया। गुरु जी की सेवा में राजा जी लग गए। उधर लक्ष्मी मैया ने एक भिखारिन का रूप धरा। कंधे पर झोला लटकाए राज महल के दरवाजे पर पहुंच गईं।

दरवाजे पर पहुंचकर बुढ़िया ने आवाज लगाई ओ भैया, कुछ खाने को हो तो दे दो बहुत भूख लगी है, सुबह से कुछ भी नहीं खाया। द्वारपालों ने उसे बाहर हांकते हुए कहा, जाओ मां देर हो गई है, अब कुछ नहीं हो सकता। भोज का वक्त खत्म हो चुका है शाम होने वाली है। यह बतकही राजा ने सुनी। राजा द्वार तक आ पहुंचे। राजा के गुरु जी आए हुए थे राजा अंदर से प्रसन्न थे। कोई बात नहीं इसे भेज दीजिए अंदर और इसे खाना खिला दीजिए।

अगर आपको खाना खिलाना है मुझे तो आदर भी देना पड़ेगा। राजा मुस्कुराया। कोई बात नहीं। कारिंदों को आदेश हुआ कि बुढ़िया को अंदर बैठाकर भोजन कराया जाए।

बुढ़िया हाथ पैर धो आसन पर बैठ गई। उसने अपने साथ लिए गंदे से झोले में हाथ डाला और एक एक कर बर्तन निकालने लगी। सबसे पहले उसने सुंदर सी चांदी की थाली निकाली। फिर सोने की कटोरियां, सोने का गिलास और सोने का चम्मच। दरबारियों ने खाना परोस दिया बुढ़िया खाने लगी और यह बर्तनों की बात पूरी राजमहल में जंगल की आग की तरह फैल गई। बात राजा तक भी पहुंची राजाजी दौड़े-दौड़े आए देखा बुढ़िया चांदी और सोने के बर्तनों में आराम से बैठे खाना खा रही थी।

खाना खाने के बाद बुढ़िया ने बर्तन वही छोड़े और अपना झोला संभालते हुए उठ खड़ी हुई। अच्छा महाराज, बड़ा स्वादिष्ट खाना था अब मैं चलती हूं। लेकिन माता जी आपके यह बर्तन। राजा का स्वर बदल चुका था। बुढ़िया से वह माताजी पर उतर आए थे। अरे बेटा मैं जहां खाना खाती हूं, ये बर्तन वहीं छोड़ देती हूँ। और अगली बार खाना खाने के लिए फिर से निकाल लेती हूं। बेटा हर बार मैं नए बर्तनों में ही खाती हूं। राजा भौंचक्के से उसे देखते रह गए। बुढ़िया अपना झोला संभाल कर जाने लगी। राजा चकित से खड़े रहे। अचानक वह चेतना में आए और बुढ़िया के पीछे दौड़ लगा दी।

राजा बुढ़िया से हाथ जोड़कर बोले, माताजी आप कुछ दिन यहीं क्यों नहीं निवास करतीं। बुढ़िया के वेश में लक्ष्मी जी मुस्कुराईं। बेटा, बात तो आप ठीक करते हैं मैं रुक भी सकती हूं और हमेशा के लिए भी रुक सकती हूँ, लेकिन आप हमारा सम्मान नहीं कर पाएंगे। राजा उतावले होते हुए बोले, अरे आप आदेश कीजिए माताजी। आप जो - जो कहेंगी, मैं वह - वह करूंगा।

लक्ष्मी जी लौटते हुए बोली, ठीक है बेटा तुम इतना आग्रह कर रहे हो तो रुक जाती हूं। लेकिन मेरी कुछ शर्तें है। पहली शर्त यह है कि जिस कमरे में वह बुड्ढा बैठा हुआ है ... राजा ने प्रतिवाद करते हुए कहा, नहीं माताजी वह मेरे गुरु जी हैं मेरे आदरणीय गुरु जी जिनका मैं बहुत सम्मान करता हूं। हां हां ठीक है, लक्ष्मी जी ने कहा, जो भी है मैं उसी कमरे में और उसी पलंग पर रहूंगी। दूसरी शर्त यह कि वह बुड्ढा, जब तक मैं कमरे में आराम करूंगी तब तक वह दरवाजे पर चौकीदारी करेगा। राजा आग बबूला हो गया, बुढ़िया की शर्तें सुनकर।

हाँ तो किस्सा सुनने वाले आ जाएँ। किस्सा फिर शुरू करते हैं। और देखिये हुंकारी भरते रहिएगा, दोपहर की तरह सो मत जाइएगा।

तो बुढ़िया का भेष धरे लक्ष्मी मैया ने जब दो शर्तें राजा के सामने रखीं और राजा को क्रोध आने लगा। ठीक उसी समय सोने चांदी के बर्तनों की चमक राजा की आँखों मे घुस कर बैठ गयी। कहाँ तो राजा उस बुढ़िया को पकड़वा कर जेल मे ठूँसने जा रहे थे, कहाँ अचानक संयत हो कर बोले, अरे माता जी, ये क्या बच्चों जैसी जिद कर रही हैं आप?

आप के लिए एक अच्छे से सुंदर कमरे मे चांदी का पलंग लगवा देते हैं। आप जब तक चाहें यहाँ निवास करें। नौकरों की फौज लगा देंगे आपके लिए। लेकिन वह हमारे गुरु जी हैं।

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरः,

गुरुर साक्षात परमब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

हमारे बहुत पूज्यनीय हैं। मैं उनसे ये शर्तें कैसे कहूँ। बुढ़िया ने अपना झोला उठाया और चलने को आतुर हुई, " फिर ठीक है आप संभालिए अपने गुरु को " राजा बुढ़िया के चरणों पर गिर गए। माताजी, आप चाहें तो मेरे विशाल कमरे मे रह सकती हैं। पर बुढ़िया को न मानना था, न मानी।

भारी मन से राजा गुरुजी के पास पहुंचे। विष्णु जी मन ही मन आतंकित हुए। बोले हे राजन! मैं तुम्हारे मन की बात समझ रहा हूँ। देखो उस बुढ़िया के चक्कर मे मुझे यहाँ से हटने के लिए नहीं कहना। मैं साक्षात ब्रम्ह हूँ, स्वयम विष्णु हूँ, मैं ही ज्ञान हूँ। इन सांसारिक वस्तुओं के लिए तुम मेरा अपमान नहीं कर सकते।

राजा तब तक मन बना चुके थे। बोले, देखिये गुरुजी ये प्रवचन आपके ठीक हैं परंतु अभी राज्य को विस्तारित करने के लिए धन की आवश्यकता है। और धन इस बुढ़िया के पास अथाह है। आप बात को समझिए। थोड़े दिनों मे मैं आपके लिए पूरा महल बनवा दूंगा, तब तक आप शर्तें मान जाइए।

गुरुजी भी अड़े हुए थे। मानने को बिलकुल तैयार नहीं। बुढ़िया को तो खैर मानना ही नहीं था। राजा के लिए दुविधा की स्थिति थी। पर जीत तो लक्ष्मी की ही होनी थी। चार सेवकों से जबरदस्ती गुरुजी को उठवा कर कक्ष के दरवाजे पर एक कुर्सी से बांध दिया गया। बुढ़िया मुस्कराती हुई बगल से निकल कर पलंग पर बैठ गयी।

सुबह तो खैर दोनों लोगों को गायब होना ही था।

क्षीरसागर के रास्ते तक विष्णु भगवान का मुंह फूला रहा और लक्ष्मी जी मंद-मंद- मुसकाती रहीं। रात मे जब शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी विष्णुजी के पैरों को दबा रहीं थीं तो विष्णु भगवान ने भुनभुनाते हुए कहा, लक्ष्मी, तुम्हारा मन मुझे पलंग पर से हटाने भर से नहीं भरा, जो तुमने उसमे चौकीदारी की शर्त भी जोड़ दी?

लक्ष्मी जी ने मासूम सा मुंह बनाते हुए कहा, हे नाथ! वह भावावेश मे मैं ऐसा कह गयी। मेरा मंतव्य तो बस आपकी दी हुई परीक्षा को अच्छे अंकों से पास करना ही था। स्वामी मुझे क्षमा कीजिये।

( प्रस्तुतकर्ता : प्रदीप कुमार शुक्ल )

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