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अंगिका के राष्ट्रीय कवि भगवान प्रलय कभी नहीं भुलाए जा सकते
प्रसून लतांत
भगवान प्रलय को बचपन से नहीं जानता था। जबकि वे अंगिका के राष्ट्रीय कवि थे। खूब चर्चित थे। वे अंग प्रदेश सहित बिहार के कोने कोने में विख्यात थे। मुझे उन्हें बहुत पहले से जानना चाहिए था। लेकिन मैं जवानी के दिनों में ही भागलपुर से दिल्ली चला आया था। फिर वहां गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधी मार्ग पत्रिका का संपादन करने के दौरान ही मेरी नियुक्ति जनसत्ता में हो गई।
जनसत्ता के लिए पत्रकारिता करते हुए शिमला, धर्मशाला और चंडीगढ़ के बाद फिर दिल्ली आया तो यहां से भागलपुर की आवाजाही शुरू हुई। तेज़ हुई। नहीं तो हिमाचल प्रदेश में रहते हुए मुझे अपना प्यारा भागलपुर बहुत दूर लगता था। इसी क्रम में जब मेरा दिल्ली से भागलपुर आना जाना ज्यादा होने लगा तो एक बार एक युवक ने भगवान प्रलय के बारे में मुझे बताया कि भगवान प्रलय अंगिका के टॉप के कवि हैं। बहुत सुंदर लिखते हैं, गाते हैं।
लोग भी उनकी कविताओं में गहरी रुचि लेते हैं। तब मैंने भगवान प्रलय को खोजना शुरू किया। उनसे मेरी पहली मुलाकात तब हुई जब वे परबत्ती में अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहते थे। वहां उनसे मिल कर लगा कि भगवान प्रलय वैसे ही हैं, जैसा उस युवक ने बताया था। पहली ही मुलाकात में मुझे भगवान प्रलय की बहुत इज्जत करने और उनको सहयोग करने की इच्छा बलवती हुई। वे जब कविता पाठ करते थे तो लोग मंत्र मुग्ध हो जाते थे।
प्रलय एक बार दिल्ली स्थित मेरे आवास पर भी रहे थे। तब उनको जानने का और मौका मिला। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा भी। कम से कम साधनों में भी वे अपनी जिंदगी खुशी से जी लेते थे। प्रलय अभाव में भी खुद्दारी के साथ जीते थे। वे जरूरतमंद होते थे लेकिन स्वाभिमान कभी नहीं बेचते थे। भूखे रहना पसंद करते थे लेकिन किसी के आगे गिड़गिड़ाते नहीं थे। उनका व्यक्तित्व बहुत सांस्कृतिक था। बहु आयामी व्यक्तित्व के मालिक थे।
स्वभाव बहुत उदार था। उनके बड़े बाल थे। उनको देख कर मुझे फणीश्वर नाथ रेणु और सुमित्रानंदन पंत की याद आ जाती थी। वे खादी के कुर्ता पायजामा ही वे धारण करते रहे। उनकी पोशाक से वे मुझे स्वतंत्रता सेनानी जैसे दिखते थे। वे जीवन भर सामंतों और जमींदारों के खिलाफ संघर्ष करते रहे लेकिन कभी उनकी गुलामी नहीं की। वे हमेशा स्वतंत्र रहे। वे सचमुच में मसी जीवी थे। कविता पाठ से ही जो मिल जाता था उसी में वे गुजारा कर लेते थे। इनकी उपस्थिति से हरेक समारोह और कवि सम्मेलन में जान आ जाती थी। उन्होंने साबित किया कि अंगिका में श्रेष्ठ गीत लिखे जा सकते हैं। उनके काव्य गायन से जन मानस का गौरव बढ़ा कि अंगिका में इतने सुन्दर भी गीत भी लिखे जा सकते हैं।
मैंने दिल्ली में भगवान प्रलय को भोजपुरी मैथिली अकादमी के कवि सम्मेलन में कविता पाठ करते देखा सुना है। जब उनकी कविता पाठ की बारी आई तो श्रौताओं ने सबसे अधिक उनकी कविताओं पर ही ताली बजाई। उस दिन मुझे समझ में आई कि अपनी अंगिका किसी अन्य भाषा से कम नहीं है। भोजपुरी और मैथिली के समकक्ष तो है ही। इसके अलावा एक और दिनकर स्मृति मंच, दिल्ली के समारोह में भी उनको कविता पाठ करते सुना। यहां भी भगवान प्रलय ने सबसे अधिक तारीफ बटोरी। उनके कविता पाठ पर सबसे अधिक ताली बजी। तबसे मैं उनको अंगिका का राष्ट्रीय कवि मानने लग गया। और पूरे राष्ट्र को अंग के गौरव के रूप में हम भगवान प्रलय का नाम बता कर खुद को गौरवान्वित हो सकते हैं।
एक और बात। बिहार में आजादी के दिनों में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चांद चाकी ने मुजफ्फरपुर में अंग्रेजों पर गोलियां बरसाई तो परिणाम स्वरूप खुदीराम बोस पुलिस के हत्थे चढ़ गए थे। उनके सहयोगी प्रफुल्ल चांद चाकी को भी मोकामा रेलवे स्टेशन पर पुलिस ने घेर लिया था। चाकी ने खुद को पुलिस को सौंपने के बजाय अपने पिस्तौल से अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। बाद के दिनों में खुदीराम बोस की स्मृति कई बार ताज़ा की जाती थी लेकिन चाकी को भूल रहे थे।
मोकामा में उनकी स्मृति में कोई निशान नहीं है। तब मैंने और मोकामा के साथियों ने मिल कर केंद्र सरकार से प्रफुल्ल चंद चाकी पर डाक टिकट जारी करने की मांग की थी। केंद्र सरकार डाक टिकट जारी करने को तैयार हो गई थी। इसी संदर्भ में मोकामा में समारोह हुआ था। उसमें प्रमुख कवि के रूप में भगवान प्रलय को आमंत्रित किया गया था। उस समारोह में स्थानीय जनता और केंद्र सरकार के अधिकारियों की मौजूदगी में प्रलय ने देश प्रेम की कविताओं का पाठ कर सभी श्रोताओं के रोंगटे खड़े कर दिए थे।
इनके अलावा कई प्रसंग हैं। मैं कटिहार स्थित महेशपुर गांव में उनके घर पर भी गया था। विपन्नता के बावजूद उन्होंने मेरी खूब आव भगत की। सिर्फ कटिहार में ही नहीं। बल्कि भागलपुर में परबत्ती में और कांग्रेस भवन के पास वाले आवास पर भी गया तो वे मुझे टरका के विदा नहीं करते थे। खूब बढ़िया से स्वादिष्ट भोजन बना कर खिलाते थे। इसमें उनकी पत्नी का भी सहयोग रहता था। दोनों मिल कर मुझे खाना खिला कर ही विदा करते थे।
इसके पीछे उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मैं उनके मन का साथी था। और मुझे वे अंग के धरोहर तो लगते ही थे। लेकिन वे मेरे गहरे मित्र भी हो गए थे। वे मुझे सुख दुख की बातें कहते थे। भगवान प्रलय अपने बचपन और जवानी के कई हैरतअंगेज किस्से सुनाते थे। इन किस्सों से पता चलता था कि उन्होंने जीवन में कितना कष्ट झेला। वे कितने ईमानदार थे। कैसे स्वाभिमानी थे। वे गरीब होते हुए भी लाभ के लटकु नहीं थे। उन्हें हानि की कोई चिंता नहीं होती थी। वे सदाबहार थे। खुद भी खुश रहते और दूसरों को भी खुश कर देते थे। लेकिन उनकी कविताओं में आम आदमी का दर्द था।
जन जीवन के परिदृश्य थे। उनकी कविताओं में अन्याय और शोषण के खिलाफ अंगारे भी होते थे। उनकी श्रृंगारिक कविताओं में भी आम आदमी और औरत का दर्द होता था। उनको जब अंग मदद फाउंडेशन ने तिलका मांझी राष्ट्रीय सम्मान के लिए आमंत्रित किया था तो वे आए थे। उन्होंने उस समारोह में कविताओं का पाठ किया था। वे सम्मानित भी हुए थे। मैंने मन में इनकी यही आखिरी स्मृति है। इस समारोह के बाद फिर उनसे मुलाकात नहीं हुई। वे इस दुनिया से चल बसे। किसी को ऐसी आशंका नहीं थी कि वे इतनी जल्दी चले जाएंगे। मौत ने उनका शारीरिक अंत भले कर दिया लेकिन वे अपनी कृतियों की वजह से अजर अमर हो गए हैं। पीढ़ियां उनकी रचनाओं को पढ़ कर ओत प्रोत होती रहेंगी। प्रेरित होती रहेंगी।