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अंगिका के कवि त्रिलोकी नाथ दिवाकर की काव्य कृति 'गंगमैना' सिर्फ गंगमैना नहीं है

अंगिका के कवि त्रिलोकी नाथ दिवाकर की काव्य कृति गंगमैना सिर्फ गंगमैना नहीं है
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डॉ अमरेन्द्र (लेखक)

गंगोत्री समुदाय के लिए एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है- गंगोता की मारला, गंगमैना के मारला । यह लोकोक्ति ही गंगोत्री समुदाय के जीवन और संस्कृति को समझने के लिए काफी है । बाढ़, आंधी-तूफान सबको सहते हुए भी जिनका जीवन मूल्यों का कोश आज तक भी है, तो उनकी बातें भी मूल्यों की वाहक ही होंगी, अभिव्यक्ति भी सहज, कोई बनाव-बनावट का उतार-चढ़ाव नहीं ।

कम-से-कम तीन दशकों से मैं गंगा की संस्कृति के वाहक कवि त्रिलोकी दिवाकर से परिचित हूँ, इनके कवि-व्यतित्व से भी, सामाजिक व्यक्तित्व से भी । लेकिन 'गंगमैना' को जब मैंने पढ़ना शुरू किया, तो जाना कि त्रिलोकी नाथ दिवाकर सिर्फ गंगोत्री जीवन के हास-विषाद के कवि नहीं हैं, त्रिलोक पर दिवाकर की तरह प्रकाश डालनेवाले कवि हैं, जिस प्रकाश में आकर शृंगार भी कंगन बजाता है, भक्ति अपनी खंजड़ी भी, गंगमैना की आड़ में गांगेय संस्कृति मृदंग पर थाप देती दिखती है, तो संघर्ष भी अपनी बाँहें फैलाए मिल जाते हैं । लेकिन ' गंगमैना ' की इतनी ही पहचान नहीं है ।

जब कवि चुनाव पर कविता करता है, तो आपको किसी नये नागार्जुन का व्यंग्यवाला स्वर वहाँ सुनाई देगा और जब पानी बचाने या स्त्री-जागृति की बात यह कवि करता है, तो यही कवि द्विवेदी काल के कवियों के पीछे-पीछे चलता हुआ कोई युवक कवि-सा दिखता है । ' गंगमैना ' में मताई हुई रात का सौन्दर्य भी है, युवा मन की मृदुल इच्छाओं का बहाव, तो एक स्वच्छ समाज की स्थिरता के प्रति मंगल कामनाएं भी |

'गंगमैना' का यह त्रिलोक छंदों के बीच प्रवाहित है और ये छंद अंग प्रदेश की माटी से उठाए गये छंद हैं, लेकिन लोकसंस्कृति को लेकर यह कवि सिर्फ अंग प्रदेश से ही बंधा नहीं रहता, यह पूरब से उठकर पश्चिम के क्षितिज पर खड़ा होता है और प्रतीकों-बिम्बों से बंधे पंजाबी तथा डोगरी के प्रमुख लोकछंद 'माहिया ' में भी अंगिका संवेदनाओं को बांधता है । ऐसे ही कोई कवि ' त्रिलोकी ' या ' दिवाकर ' नहीं हो जाता । आप 'गंगमैना' पढ़ेंगे, तो आप भी ऐसा ही कहेंगे ।

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