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- सुनवाई और रिहाई के बीच...
सुनवाई और रिहाई के बीच सियासी लड़ाई में फंसे रहे हैं आज़म ख़ान, समझिए- क्या है पूरा मामला?
आज़म ख़ान दो साल से बंद हैं। यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी कमी अखिलेश यादव को बिल्कुल खली। जेल में रहते हुए ही आज़म खान सांसद से विधायक हो गये। जुलाई में रामपुर संसदीय सीट पर उपचुनाव होना है और खुद उनकी रिहाई कभी भी हो सकती है। हाईकोर्ट में वक्फ बोर्ड की संपत्ति पास रखने के मामले में एक बार फिर सुनवाई पूरी होने के फैसला सुरक्षित रख लिया गया है। 72 मामलों में ज़मानत मिलने का यह आखिरी मामला है।
वक्फ बोर्ड संपत्ति विवाद में सुनवाई दिसंबर में ही पूरी हो गयी थी। फिर भी आश्चर्यजनक ढंग से फैसला आने में पांच महीने की देरी हुई है और कानून के जानकार बताते हैं कि यह आज़म ख़ान के साथ अन्याय है। यह अन्याय न्यापालिका और सियासत के बीच अंतर्संबंध की ओर इशारा करता है। इसमें कोई शक नहीं कि आज़म ख़ान संघर्षशील इंसान हैं और उन्होंने अक्सर झुकने से मना किया है। अगर सियासतदानों के आगे वे झुक गये होते तो छोटे-छोटे मामलों में न तो उन्हें फंसाया गया होता और न ही यह संख्या 72 पहुंची होती। सियासत ने आज़म ख़ान को ज़मानत तक के लिए तरसा दिया।
अहम हैं रिहाई से पहले घटती रही घटनाएं
रिहाई के आसार बन रहे हैं और इसकी पृष्ठभूमि में लगातार घटनाएं घट रही हैं। इन सबके क्या मायने हैं? समाजवादी पार्टी से रुष्ट शिवपाल यादव का आज़म ख़ान से जेल जाकर आज़म ख़ान से मुलाकात करना, मुलाकात के बाद समाजवादी पार्टी पर आज़म की रिहाई के लिए कोशिश नहीं करने का संकेत देना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। समाजवादी पार्टी की ओर से कथित प्रतिनिधिमंडल का आज़म से मिलने जाना और आज़म का मिलने से कथित रूप से इनकार कर देना भी पहेली है। अखिलेश यादव ने कहा है कि उन्होंने ऐसा कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं भेजा है। जयंत चौधरी का आज़म खान के घर जाना और बेटे से गुफ्तगू हो या फिर कांग्रेस नेता प्रमोद कृष्णम् से आज़म खान का मिलने के लिए हामी भरना हो- ये बातें यूपी की सियासत के ख्याल से महत्वपूर्ण हैं।
जेल में मिलने या नहीं मिलने की कई एक घटनाओं पर सच क्या है इसका पता आज़म खान ही बता सकते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जेल प्रशासन किसी राजनीतिक दबाव में किसी को मिलने देकर और किसी को मिलने नहीं देकर राजनीतिक संदेश फैलाने के काम में इस्तेमाल हो रहा है! फिर भी एक बात साफ है कि अगर अखिलेश यादव जेल जाकर मिलने की बात चाह लेते तो जेल प्रशासन कब तक इनकार कर सकता था, उसे मिलने देना ही पड़ता। हालांकि कहा यह जा रहा है कि आज़म खान के परिजन अखिलेश से मिलते रहे हैं और अखिलेश लगातार उनके संपर्क में हैं। फिर भी बाहर फैल रहे संदेश को अनुकूल बनाने की कोशिश अखिलेश कर सकते थे।
चारा फेंक रहे हैं जयंत, प्रमोद कृष्णम, शिवपाल...
सवाल उठ रहे हैं कि क्या जयंत चौधरी ने आज़म खान को रामपुर उपचुनाव में उनकी पत्नी का टिकट देने की पेशकश करने की कोशिश की है? एक बार अगर सहमति मिल जाती तो वे समाजवादी पार्टी से टिकट की मांग को लेकर दबाव बनाते। या फिर कांग्रेस ने प्रमोद कृष्णम के जरिए आज़म ख़ान की ओर चारा फेंका है?
बीजेपी को जो सियासत सूट करती है वह यह कि समाजवादी पार्टी में टूट हो। शिवपाल के जरिए बड़ा खेमा अगर समाजवादी पार्टी से टूट जाए तो बीजेपी इन्हें उपकृत करने को तैयार बैठी है। शिवपाल यादव के साथ-साथ आज़म खान भी वैसे लोगों में हो सकते हैं। मगर, क्या खुद आज़म ख़ान को बीजेपी की सियासत सूट करेगी? आज़म को करीब से जानने वाले जानते हैं कि आज़म जीवन में चाहे कुछ भी कर सकते हैं, बीजेपी के साथ सियासत करते नहीं दिख सकते। अगर उन्हें दिखना होता तो वे 2 साल तक जेलों में बंद नहीं रहते।
रामपुर उपचुनाव में पत्नी के लिए टिकट चाहते हैं आज़म
आज़म ख़ान रामपुर को किसी भी सूरत में अपने परिवार से बाहर जाते देखना नहीं चाहते- इस बात में दम है। समाजवादी पार्टी की ओर से खुलकर यह बात नहीं कहा जाना कि रामपुर उपचुनाव में टिकट आज़म परिवार को मिलेगा, वास्तव में आज़म के लिए चिंता का विषय है। तो क्या सारी कवायद क्या इसलिए है कि रामपुर उपचुनाव के लिए टिकट सुरक्षित कराया जाए?
आज़म ख़ान ने विधानसभा चुनाव लड़ा तो निश्चित रूप से यह समाजवादी पार्टी की रणनीति थी। एक कद्दावर मुस्लिम नेता का राजनीतिक उपयोग करने की रणनीति। मगर, जब समाजवादी पार्टी सत्ता में नहीं आयी तो आज़म खान ने लोकसभा सीट से इस्तीफा देने का फैसला किया तो यह भी पार्टी की ही रणनीति रही होगी। व्यक्तिगत पसंद तो लोकसभा में बने रहने की होनी चाहिए। नेता प्रतिपक्ष बनने की ख्वाहिश अगर पूरी होती तो निश्चित रूप से आज़म का लोकसभा से इस्तीफा देने का फैसला लीक से हटकर भी सटीक माना जाता।
समाजवादी पार्टी से दूर क्यों दिख रहे हैं आज़म?
अब अगर समाजवादी पार्टी ने आज़म खान से लोकसभा के बजाए विधानसभा में रहने को बाध्य किया है तो रामपुर लोकसभा सीट पर आज़म परिवार के दावे को नकारने का क्या आधार हो सकता है? अगर समाजवादी पार्टी इसी दिशा में सोच रही है तो उसे आज़म खान के साथ चर्चा करनी चाहिए थी। ऐसा लगता है कि संवादहीनता साफ तौर पर बनी। यही कारण है कि आज़म ख़ान को लेकर तमाम तरह की अटकलें लगायी जा रही हैं।
आज़म ख़ान को 72 में से 71 मामलों में ज़मानत मिल चुकी है और केवल आखिरी मामले में ज़मानत नहीं मिलने की वजह से वे जेल में बंद हैं। यूपी सरकार उन्हें जेल में बंद रखने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाती रही है और कानूनी प्रक्रिया को सुस्त किए हुए है। इसके बावजूद वह वक्त आ गया लगता है जब आज़म खान रिहा होने वाले हैं। रिहाई के बाद भी अगर आज़म ख़ान के सामने यह स्थिति स्पष्ट नहीं होती कि रामपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव में समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी कौन होने जा रहा है तो निश्चित रूप से वे समाजवादी पार्टी के समांतर कोई लकीर खींचने की कोशिश करेंगे। यह छोटे दलों को जोड़ने का प्रयास भी हो सकता है और कांग्रेस का साथ भी। रास्ता चाहे जो हो, मगर बीजेपी को मुस्कुराने का ही अवसर बनने जा रहा है। इतना जरूर है कि आज़म सीधे बीजेपी से जुड़ने से बचने की भरसक कोशिश करेंगे।