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- भा भादों दूभर अति...
भादों की बरसात सब पर भारी पड़ रही है। ख़ासकर दिल्ली और उसके आसपास रहने वालों के लिए, जिन्होंने कभी वर्षा ऋतु का मर्म समझा ही नहीं। आज से कोई छह सौ वर्ष पहले एक कवि हुए हैं मलिक मोहम्मद जायसी। इन्होंने कालिदास के बाद पहली बार वर्षा का महत्त्व समझा था। पद्मावत के नागमति खंड में वे भादों के महीने का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी।।
मंदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा।।
रही अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी।।
चमक बीजु घन तरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा।।
बरसै मघा झकोरि झकोरी। मोरि दुइ नैन चुवैं जस ओरी।।
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ। अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ।।
पुरबा लाग भूमि जल पूरी। आक जवास भई तस झूरी।।
जल थल भरे अपूर सब ,धरति गगन मिलि एक।
धनि जोबन अवगाह महँ दे बूड़त पिउ !
इन जायसी को अभी 20 वीं सदी के पहले हिंदी या उर्दू साहित्य में लोग नहीं ज़ानते थे।फ़ारसी लिपि में इनकी फुटकर रचनाएँ ज़रूर उपलब्ध थीं किंतु उनका अर्थ अशुद्धियों से भरा हुआ था। आलोचक प्रवर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने विभिन्न ग्रंथों में पाठ-कुपाठ के साथ दर्ज जायसी की कृतियों को पहली बार झाड़-पोंछ कर चमकाया और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि अवधी बोली के इस कवि की दोहा-चौपाई शैली को उनके 34 वर्ष पीछे तुलसी ने प्रयोग किया और वे विख्यात हुए। शुक्ल जी के अनुसार कानपुर के किसी प्रेस ने फ़ारसी लिपि में जायसी की छिटपुट रचनाएँ छापी थीं। लेकिन उनके अर्थ का अनर्थ किया था। नवल किशोर प्रेस, पंडित राम सजन मिश्र, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी और डॉक्टर ग्रियर्सन ने भी जायसी की रचनाएँ प्रकाशित कीं पर वे भी व्यवस्थित नहीं थीं।
शुक्ल जी ने जायसी की रचनाओं को साहित्य में दर्जा दिलवाया। उन्होंने इनके बारे में बहुत काम किया। जायसी ने अपने जन्म के बारे में लिखा है- भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरिख ऊपर कवि बदी॥ (हिजरी संवत के लिहाज़ से यह सन 1467 होता है) वे अपने जन्म स्थान के बारे में लिखते हैं- जायस नगर मोर अस्थानू। नगरक नांव आदि उदयानू।। तहां देवस दस पहुने आएऊं। भा वैराग बहुत सुख पाऊँ।।
जायसी के बारे में कहा जाता है कि वे बेहद कुरूप थे। उनकी एक आँख ख़राब थी और सुनाई भी कम पड़ता था। एक बार वे 'शेरशाह दिल्ली सुल्तानू!' के दरबार में गए तो वह इनकी शारीरिक विकृति पर हँस दिया। तब इन्होंने एक कवित्त पढ़ा- मोहिका हससि, कि कोहरहि? अर्थात् ऐ सुल्तान तू मेरे ऊपर हँसा है या उस नियंता पर। शेरशाह बहुत लज्जित हुआ और इनसे क्षमा मांगी।
इनकी कुरूपता के बारे में कहा जाता है, कि वे जन्म से ऐसे ही थे किन्तु अधिकतर लोगों का मत है कि शीतला रोग के कारण उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने का उल्लेख जायसी ने स्वयं ही इस प्रकार किया है - एक नयन कवि मुहम्मद गुनी। अब उनकी दाहिनी या बाईं कौन सी आंख फूटी थी, इस बारे में उन्हीं के इस दोहे को सन्दर्भ लिया जा सकता है- मुहमद बाईं दिसि तजा, एक सरवन एक ऑंखि।
ऐसे महान कवि ने भादों के जिस मास का इतना सुंदर वर्णन किया है, उसे पढ़िए और रितु के अनुकूल आनंद लीजिए।
लेखक - अज्ञात