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Child labour and exploitation: बाल मजदूरी पर रोक कैसे लगेगी? जानें बहुआयामी समाधान और चुनौतियां
मनीष शर्मा
Child labour and exploitation: जनगणना के 2011 के आंकड़े बताते हैं कि देश में बाल मजदूरों की आबादी 1 करोड़ से भी ज्यादा है। खास बात यह है कि यह संख्या भी महज 05 से 14 वर्ष के आयुवर्ग के बीच के बाल मजदूरों की है और इसमें 15 से 18 वर्ष के बच्चों की संख्या शामिल नहीं है। इसमें अगर उन्हें भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या पता नहीं कहां तक पहुंचेगी। यह स्थिति तब है जब वर्ष 2025 की शुरुआत होने में करीब दो माह बचे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों के तहत भारत ने 2025 के अंत तक देश से बाल मजदूरी के खात्मे की प्रतिबद्धता जताई है। कानूनन 14 वर्ष तक के बच्चों से मजदूरी नहीं कराई जा सकती जबकि 15 से 18 वर्ष के बीच के बच्चों से खतरनाक व जोखिम वाले कामों में मजदूरी कराना जुर्म है।
हालांकि कानूनी प्रावधानों और उन पर अमल में बहुत लंबा फासला है। बाल श्रमिकों की इस आबादी में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट् और मध्यप्रदेश राज्य क्रम से पहले से पांचवें स्थान पर हैं। उत्तर प्रदेश, जहां कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में सबसे ज्यादा 2,176,706 बाल मजदूर थे, वहां राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार 2022 में बाल मजदूरी के सिर्फ 10 मामले दर्ज किए गए। 2011 की जनगणना के अनुसार बाल मजदूरों के मामले में देश में पांचवें स्थान पर मध्यप्रदेश में कुल 700,239 बाल मजदूर थे। जाहिर है कि यह संख्या अब ज्यादा ही होगी लेकिन एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2022 में मध्यप्रदेश में बाल मजदूरी का एक भी मामला नहीं दर्ज किया गया। बाल मजदूरी के मामले में देश के दूसरे नंबर के राज्य बिहार में 2011 की जनगणना के अनुसार 1,088,509 बाल मजदूर थे लेकिन एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 से 2022 के बीच इस राज्य में बाल मजदूरी के सिर्फ 144 मामले दर्ज हुए हैं। इसमें भी वर्ष 2016 और 2017 में राज्य में एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ।
बाल एवं किशोर श्रम के विरुद्ध देश के मौजूदा कानून के अनुसार बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए सभी बच्चों के मामले में अनिवार्य रुप में एफआईआर दर्ज करने का प्रावधान है। लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार 22 लाख से ज्यादा बाल मजदूरों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में पिछले सात वर्षों में सिर्फ 36 एफआईआर दर्ज होने से यह स्पष्ट है कि बाल श्रम के मामलों में बहुत कम एफआईआर दर्ज किए जा रहे हैं या फिर ऐसे मामलों में अपराध की सुसंगत धाराएं नहीं लगाई जा रही हैं। ऐसे में निकट भविष्य में बाल श्रम मुक्त भारत का लक्ष्य हासिल करने का सपना पूरा होता नहीं दिखता जबकि हम 2025 तक इसके पूरी तरह खात्म की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता जता चुके हैं।
यह स्थिति देश में बाल श्रम उन्मूलन के लिए बने तमाम कानूनों और उन पर अमल की तमाम कोशिशों के बावजूद है। लेकिन स्पष्ट है कि शायद ये नाकाफी हैं। एक व्यापक और प्रभावी रणनीति का कार्यान्वयन ही बच्चों को बाल मजदूरी के अभिय़ाप से मुक्ति दिला सकता है। और इसके लिए कई मोर्चों पर कार्य करने होंगे।
बाल मजदूरी के फलने-फूलने की वजह यह है कि बच्चे सस्ते श्रमिक होते हैं और उनका शोषण आसान होता है। इन बच्चों से नाममात्र के मेहनताने पर सालोंसाल 14 से 16 घंटे काम लिया जाता है। कई बार काम सिखाने के नाम पर इन्हें बरसों तक मुफ्त में खटाया जाता है। बाल मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा ट्रैफिकिंग यानी बाल दुर्व्यापार के पीड़ित बच्चों का है जहां ट्रैफिकिंग गिरोह बच्चों के घर वालों को उनकी पढ़ाई या नौकरी का झांसा देकर बड़े शहरों में ले आते हैं और उनसे बंधुआ मजदूरी कराते हैं। इसलिए बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए बच्चों का पुनर्वास इसके खात्मे की जरूरी शर्त है। यदि बच्चों का पुनर्वास नहीं किया गया तो वे फिर से बाल मजदूरी के दलदल में फंस जाएंगे।
बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए बच्चों के पुनर्वास के लिए एमसी मेहता बनाम तमिलनाडु सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1996 में आरोपी नियोजक से 20,000 रुपए प्रति बच्चा जुर्माना वसूल कर उस राशि को मुक्त कराए गए बच्चे के हक में खर्च करने का फैसला सुनाया था। उस आदेश के लगभग 30 वर्ष बीत चुके हैं। अभी दो महीने बाद हम वर्ष 2025 में प्रवेश करेंगे। अब 30 वर्ष बाद क्या यह राशि पर्याप्त है? क्या मुद्रास्फीति की दर से बच्चे प्रभावित नहीं होते? रही बात बाल एवं किशोर श्रम के प्रावधानों के अनुसार नियोजक से जुर्माने की राशि वसूलने की तो इसके अनुसार नियोजक से 20 हजार से 50 हजार रुपए प्रति बच्चे की दर से जुर्माने की दर से वसूली कर संबंधित राज्य सरकार सरकार अपनी तरफ से 15 हजार रुपए प्रत्येक मुक्त कराए गए बच्चे के खाते में जमा करेगी। लेकिन सवाल है कि मुक्त कराए गए कितने बाल मजदूरों को यह राशि मिली है? बाल एवं किशोर श्रम के कितने मामलों में सजा हो सकी है, ताकि यह लाभ पीड़ित बच्चों को मिल सके। मुक्त कराए गए बच्चों की जितनी बकाया तनख्वाह नियोजक हड़प कर बैठा है, उसकी वसूली कर उसे कितने बच्चों को दिलाया गया? इसके पीछे एक वजह प्रशासनिक अफसरों की लापरवाही है जबकि दूसरी वजह बच्चों के अधिकारों के बाबत कानूनी प्रावधानों से उनका अंजान होना है। हालांकि बिहार सरकार की ओर से ऐसे मामलों में तत्काल राहत के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष से राशि का प्रावधान एक संवेदनशील पहल है। बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए विशेष योजना तैयार करने की आवश्यकता है। यह एक अंतरिम सहायता के रूप में हो सकती है, जब तक कि बच्चे को कानून और न्यायालय के आदेशों के तहत आर्थिक लाभ प्राप्त नहीं हो जाते।
सरकारों और अदालतों ने अपने फैसलों से लगातार यह साबित किया है कि वे बच्चों के मामलों के प्रति संवेदनशील हैं। लेकिन फिलहाल इसके खात्मे के प्रयासों में एक बिखराव है और समन्वय की कमी स्पष्ट दिखती है। लिहाजा सतत विकास लक्ष्य 8.7 के उद्देश्य को पूरा करने के लिए व्यवस्थित कार्ययोजना तैयार करने एवं उसे अमल में लाने का समय आ गया है। सबसे पहले बाल श्रम के मामलों में एफआईआर दर्ज हो और मामले निपटारे के लिए एक समयसीमा तय हो। बच्चों का शोषण व उत्पीड़न करने वालों के मन में कानून भय पैदा हो, इसके लिए कानूनी सख्ती अनिवार्य है। बाल मजदूरी पर प्रभावी अंकुश के लिए रोकथाम, संरक्षण एवं अभियोजन माडल अपनाया जाए, प्रभावी अधोसंरचना एवं संस्थानों में समुचित निवेश किया जाए, विभिन्न हितधारकों के मध्य समन्वय व संम्मिलन के साथ प्रभावी संचार स्थापित हो, इस समस्या की गंभीरता से अवगत कराने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए शिक्षण- प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने व बाल श्रम के जोखिम वाले परिवारों के आंकड़े जुटाने व उनकी निगरानी के लिए तकनीक के इस्तेमाल जैसे बहुआयामी व बहुस्तरीय कदमों व उपायों से ही यह संभव हो सकता है। लेकिन इसके लिए सभी हितधारकों को साथ आना होगा।
सिर्फ सरकार के भरोसे बाल मजदूरी का खात्मा संभव नहीं है। जब तक समाज के सभी समुदाय और वर्ग इस समस्या की गंभीरता और अपने दायित्व को नहीं समझते, तब बाल श्रम मुक्त भारत का सपना अधूरा ही रहेगा। मुझे याद है जब एक ढाबे में बाल मजदूरों को मुक्त कराने के लिए छापेमारी चल रही थी। ढाबे में भोजन कर रहे एक सज्जन रेस्क्यू टीम की तारीफें करने लगे कि आप लोग बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। इस पर रेस्क्यू टीम के एक कार्यकर्ता ने उन्हें तपाक से जवाब दिया कि यदि आप बाल मजदूरों से सेवा लेने से मना कर दें, तो शायद इन मासूमों का जीवन सुधर जाएगा। जाहिर है कि जब पूरा समाज इसे अपनी जिम्मेदारी में शामिल करेगा, तभी बाल श्रम की मांग व आपूर्ति श्रृंखला को चोट पहुंचेगी और हम बाल श्रम के पूरी तरह खात्मे में कामयाब हो सकेंगे।
(लेखक बाल अधिकार कार्यकर्ता व एसोसिएशन फॉर वालंटरी एक्शन के वरिष्ठ निदेशक हैं)