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क्या आप जानते हैं घटिया शिक्षा व्यवस्था में रहने और उससे निकलने की कितनी कीमत चुकाते हैं ?
क्या आप जानते हैं कि भारत की सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए कितने पैसे लगेंगे? अगर आप ख़ुद को एक बेहतरीन विश्वविद्यालय में उच्च स्तरीय पढ़ाई के लिए तैयार करना चाहते हैं तो कितने पैसे होने चाहिए? कभी आपने इसका और स्कूल से लेकर बीए की पढ़ाई तक होने वाले ख़र्च का हिसाब लगाया है?
पिछले साल फरवरी में तत्कालीन शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि बाहर के विश्वविद्यालयों में भारत के करीब 8 लाख छात्र पढ़ रहे हैं तो हर साल दो लाख करोड़ खर्च करते हैं। इस साल सरकार ने संसद में बताया है कि 11 लाख से अधिक बच्चे विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं। तो ज़ाहिर है दो लाख करोड़ की राशि भी बढ़ गई होगी। इस राशि को अगर आप प्रति छात्र के बीच बांटेंगे तो कम से कम दो से ढाई करोड़ होती है। भारत की सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था से छुटकारा पाने का मतलब है कि आप अपना सब दांव पर लगा देंगे। बहुत लोग दांव पर लगा रहे हैं। बाहर जाने वाले केवल अमीर घर के बच्चे नहीं हैं। मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चे भी हैं जो बड़ी मात्रा में कर्ज़ ले रहे हैं।
क्या आप कभी एकांत मन से निर्विकार भाव से अपने जीवन का हिसाब करना पसंद करेंगे? स्कूल की फीस के लिए अलग हिसाब करें और ट्यूशन और कोचिंग के लिए अलग हिसाब करें। फिर अपने परिवार की कमाई के हिसाब से इस खर्चे का अनुपात निकालें तो पता चलेगा कि आपके मां-बाप ने अपनी कमाई का कितना बड़ा हिस्सा आपको कहीं पहुंचाने के लिए शिक्षा के नाम पर कोचिंग पर खर्च कर दिया।
सरकारी स्कूलों में सरकार ने पैसे लगाने बंद कर दिए। शिक्षकों की नियुक्ति बंद हो गई और स्तरीय शिक्षकों का चयन ख़त्म हो गया। और भी कई कारण हैं जिससे वहां की पढ़ाई औसत और घटिया होती चली गई। वहां पढ़ने वाले लाखों छात्रों का समय और जीवन बर्बाद हुआ। शिक्षा के नाम पर सरकारी स्कूल लाखों छात्रों की बर्बादी की फैक्ट्री हैं।अभी इस लेख के लिए मैं अपवाद और आम में फर्क नहीं करना चाहता। चंद अपवाद के सहारे आप इस समस्या की व्यापकता को छोटा नहीं कर सकते।
जब सरकारी स्कूल खंडहर हुए तब आप कहां गए? अपने अपने शहर के पब्लिक और इंग्लिश मीडियम स्कूल। चंद महानगरों को छोड़ दें तो भारत के ज़्यादातर शहर किसी ज़माने के खंडहर हो चुके शहर जैसे लगते हैं। वहां की तमाम अव्यवस्थाओं के बीच एक ही इमारत सजी-धजी नज़र आती है और वो है पब्लिक स्कूल की। वहां आप दाखिला लेते हैं। महंगी फीस देते हैं। अंग्रेज़ी तक ढंग से नहीं सीख पाते। फिर आप ट्यूशन का सहारा लेते हैं। खेलना-कूदना सब बंद हो जाता है। स्कूल के बाद कोचिंग के लिए जाते हैं जहां एक बार में कई साल के बराबर की फीस देते हैं। पहली से बारहवीं तक एक ठीक-ठाक इमारत वाली औसत स्कूल में जाते हैं। जब उस स्कूल से निकलते हैं तब तक आपको अंदाज़ा हो जाता है कि इस शहर का कोई भी कालेज बेहतर नहीं है जहां आप अपनी मर्ज़ी से पढ़ सकते हैं। वहाँ पढ़ने वाले छात्र जल्दी ही बिना शिक्षक के जीना सीख लेते हैं और गाइड बुक की शरण में चले जाते हैं। तीन साल बर्बाद होते हैं। उस बर्बादी से निकलनेके लिए आप फिर से कोचिंग के लिए पैसे देते हैं।
कभी सोचिएगा कि यहां तक आते आते आप कितने पैसे खर्च कर चुके होते हैं? क्या उसके बदले आपको शिक्षा मिली? उस शिक्षा की कोई गुणवत्ता थी? क्या जो सिखा उसके लिए इतने पैसे ख़र्च होने चाहिए? कभी तो आप अपने जीवन का हिसाब करेंगे।
जो लोग मेरठ, मुज़फ़्फ़रपुर, बर्धमान, तिनसुकिया, कोकराझार, गुमला और नीमच से निकल कर भारत के दूसरे कालेजों में जाना चाहते हैं, उनके विकल्प भी सीमित हैं। ले-दे कर दिल्ली विश्वविद्यालय बचा है। यह भी बाहर से सज़ा-धजा दिखने वाला एक खंडहर है। यहां के ज्यादातर विषयों में स्थायी शिक्षक नहीं हैं। असुरक्षित जीवन जी रहे अस्थायी शिक्षक हैं। बहुत से राजनीतिक कारणों से नियुक्त होने लगे हैं। ये लोग पढ़ाते नहीं हैं। क्लास में आकर बकवास कर जाते हैं। दूसरे विश्वविद्यालयों में भी शिक्षकों की नियुक्ति का यही आधार है। सोचिए एक घटिया शिक्षक तीस चालीस साल तक छात्रों को बर्बाद करता है।
आप कहेंगे कि ऐसा पहले भी होता था। आपकी बात सही है। जो ग़लत होता था क्या अब भी होना चाहिए? मैं एक पार्टी को वोट देने की बात नहीं कर रहा, ये आपका जीवन है। ख़राब शिक्षा व्यवस्था के कारण विश्वविद्यालयों को बर्बाद किया जा रहा है। आप किसी राजनीतिक सरकार के हिसाब से बात करना चाहते हैं, मुझे कोई दिक्कत नहीं। आप पंजाब, राजस्थान, बंगाल, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश किसी भी राज्य की बात कीजिए लेकिन अपनी शिक्षा के लिए कीजिए। यह आपकी प्राथमिकता में ऊपर क्यों नहीं है?
पटना विश्वविद्यालय और बिहार के अन्य विश्वविद्यालयों में सत्तर फीसदी शिक्षक नहीं हैं। वहां के नौजवानों को क्या पढ़ाया जाता होगा? क्या वहां के नौजवानों को इस बात का अफसोस नहीं कि उनका जीवन बर्बाद किया जा रहा है? क्या वे अपने ही जीवन का कुछ भी मोल नहीं समझते हैं? भारत की शिक्षा व्यवस्था के दो बाज़ार हैं। औपचारिक बाज़ार यानी स्कूल और कालेज का। दूसरा अनौपचारिक बाज़ार जिसे ट्यूशन और कोचिंग का कहता हूं। जो लाखों करोड़ रुपये का है। आपको कुछ नया नहीं सिखाते। उसी बेकार सिलेबस को कैसे रट कर पास होना या ज्यादा नंबर लाना है, इसका स्किल सिखा देते हैं। आप वहीं के वहीं रह जाते हैं। जबकि पैसा आप दोनों जगह दे रहे हैं।
तो आपने स्कूल से लेकर कालेज और उसके बाद की कोचिंग पर कितना पैसा खर्च कर दिया? शहर में अच्छा कालेज न होने के कारण दूसरे शहर में जाकर पढ़ने के ऊपर कितना पैसा ख़र्च किया? वहां से घर आने-जाने में कितना ख़र्च किया? इन सबका कभी हिसाब कीजिएगा। आपने पैसा तो खूब खर्च किया लेकिन औसत शिक्षा, औसत शिक्षक ही मिले।कुल मिलाकर आप फंस गए हैं। आप समझ नहीं रहे हैं कि यह कितना गंभीर मामला है। पंद्रह पंद्रह साल स्कूल और कालेज में बिता कर आप ढंग से लिख नहीं पाते हैं। आपको बीस किताबों के बारे में जानकारी नहीं होती है। शिक्षा का जीवन कोचिंग की घटिया किताबों से घिरा होता है जो आपको स्मार्ट बनाने के नाम पर बेवकूफ बनाती हैं।
शिक्षा की गुणवत्ता एक गंभीर मसला है। इससे समझौते का मतलब है आपका और देश दोनों का नुकसान होना। जिस देश के लाखों युवा घटिया शिक्षा प्राप्त कर रहे हों और इतने ही औसत शिक्षा प्राप्त कर रहे हों, वो कितना आगे जा सकता है। कभी तो आप इस पर सोचेंगे। इसके कारणों पर निर्ममता से विचार करेंगे।नैतिकता नाम की चीज़ होती तो किसी भी नेता के प्रमाण पत्र का संदिग्ध होना बड़ा मसला हो सकता था। उसे ज़रा भी महत्व नहीं दिया गया। यही नहीं आई आई एम रोहतक के निदेशक की बीए की डिग्री का पता नहीं है और वह शख्स कई साल से पद पर बना हुआ है। यह बताता है कि भारत के युवाओं के बीच शिक्षा को लेकर कितनी कम गंभीरता है। अमरीका में अगर कोई प्रोफेसर पकड़ाया होता तो कई दिन तक बहस चलती और घंटों के भीतर उसकी डिग्री की जांच हो जाती है और वह जेल में होता।
मेरे पोस्ट के कमेंट में गाली देना कौन सी बड़ी बात है। कोई बड़ा नेता ये बात नहीं नहीं बोल सकता जो मैं बोल रहा हूं। आप युवाओं का कोई चरित्र नहीं है। चरित्र ही नहीं हर वो चीज़ से आप वंचित किए गए हैं जो आज के दौर में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है। आप कम वेतन पर काम करने वाले अकुशल श्रमिक के रुप में तैयार किए जा रहे हैं जिसके लिए बाज़ार के ज़रिए शिक्षा व्यवस्था आपके मां-बाप की लाखों रुपये की कमाई हड़प जा रही है। मेरा बिहार के युवाओं के प्रति रहा सहा सम्मान भी चला गया। जिस राज्य की राजधानी में चलने वाली यूनिवर्सिटी के 18000 युवा यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि सत्तर प्रतिशत शिक्षक नहीं हैं, उस राज्य के युवा किसी सम्मान के लायक नहीं हैं। सहानुभूति के भी लायक नहीं है। अगर उन्होंने अपने जीवन का हिसाब लगाया होता तो आज वे सड़कों पर होते और उन लोगों को सड़क पर ला चुके होते जिसके कारण उनकी ये हालत हुई है।
उम्मीद है मेरी इस बात पर आप गंभीरता से विचार करेंगे। सभी राज्यों के युवा मिलकर इस पर विचार-विमर्श करेंगे। नई शिक्षा की नीति का गहन अध्ययन करेंगे। अपने कालेज के हालात का अध्ययन करेंगे। राज्य के स्तर पर रिपोर्ट लाएँगे। सभी दल के विधायकों और सांसदों को मजबूर करेंगे कि इस पर बात करें। मैं जानता हूँ आप यह सब नहीं करेंगे फिर भी लिख रहा हूँ।आपके लिए दूसरा नहीं आएगा। आपको ही आगे आना होगा। जैसे आपने इस दैनिक बर्बादी को स्वीकार कर लिया उसी तरह से इसे बदलने की चुनौती को भी स्वीकार कर देखिए।
रवीश कुमार
रविश कुमार :पांच दिसम्बर 1974 को जन्में एक भारतीय टीवी एंकर,लेखक और पत्रकार है.जो भारतीय राजनीति और समाज से संबंधित विषयों को व्याप्ति किया है। उन्होंने एनडीटीवी इंडिया पर वरिष्ठ कार्यकारी संपादक है, हिंदी समाचार चैनल एनडीटीवी समाचार नेटवर्क और होस्ट्स के चैनल के प्रमुख कार्य दिवस सहित कार्यक्रमों की एक संख्या के प्राइम टाइम शो,हम लोग और रविश की रिपोर्ट को देखते है. २०१४ लोकसभा चुनाव के दौरान, उन्होंने राय और उप-शहरी और ग्रामीण जीवन के पहलुओं जो टेलीविजन-आधारित नेटवर्क खबर में ज्यादा ध्यान प्राप्त नहीं करते हैं पर प्रकाश डाला जमीन पर लोगों की जरूरतों के बारे में कई उत्तर भारतीय राज्यों में व्यापक क्षेत्र साक्षात्कार किया था।वह बिहार के पूर्व चंपारन जिले के मोतीहारी में हुआ। वह लोयोला हाई स्कूल, पटना, पर अध्ययन किया और पर बाद में उन्होंने अपने उच्च अध्ययन के लिए करने के लिए दिल्ली ले जाया गया। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की और भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया।