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- दोस्त, मेरे मज़हबी...
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए :पढ़िए अदम गोंडवी की गजलें
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को ।
.....................
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए ,
अपनी कुर्सी के लिए जज़्बात को मत छेड़िए
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है,
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।
गर गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले?
ऐसे नाज़ुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।
हैं कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ खां,
मिट गए सब, कौम की औकात को मत छेड़िए।
छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ,
दोस्त, मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए।
..........................
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है।
बगावत के कमल खिलते हैं, दिल के सूखे दरिया में,
मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे?
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
गज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में।
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी
दफ़्न होता है जहाँ आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गंदा असर है ज़िन्दगी