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Hijab vs Shaheen Bagh Movement: हिजाब बनाम शाहीनबाग़ आन्दोलन
मुशर्रफ़ अली
''वैग द डाॅग'' 1997 में हाॅलीवुड में बनी एक अमरीकी राजनीतिक व्यंग फिल्म है जिसमें दिखाया गया है कि अमरीकी का राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के अंत में नये चुनाव से ठीक पहले एक सैक्स स्केन्डल में फंस जाता है और तब राष्ट्रीयस्तर पर मीडिया में होने वाली चर्चा से जनता का ध्यान हटाने के लिए उसके अधिकारी प्रचार की एक योजना बनाते हैं ताकि चुनाव के समय लोगों का ध्यान इस सेक्स स्केंडल से हटकर, किसी अन्य नकली मुद्दे पर केन्द्रित हो जाये। इस काम के लिए मुद्दों को भटकाने में दक्ष एक प्रचार विशेषज्ञ की मदद ली जाती है जो एक फ़िल्म डायरेक्टर को इस काम के लिए तैयार करता है और तब राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर चलने वाली चर्चा राष्ट्रपति के सैक्स स्केन्डल से बदलकर एक नकली मुद्दे पर केन्द्रित हो जाती है। इस तरह से देश की जनता असली मुद्दे को भूलकर प्रचार विशेषज्ञ द्वारा बनाये गये नकली मुद्दे को सच मानकर उसपर चर्चा में व्यस्त हो जाती है। कुछ ऐसा ही कर्नाटक के स्कूल में घटी हिजाब की घटना के रुप में सामने आया है। जब पूरा देश मंहगाई, बेरोज़गारी और बदहाली से जूझ रहा है। किसानों, मज़दूरों, नौजवानों में सरकार के खिलाफ़ भारी असंतोष और आक्रोश फैला हुआ है ऐसे में पांच प्रदेशों में चुनाव के आने से भाजपा के सामने यह समस्या आ खड़ी हुई कि विपक्ष चुनाव में चर्चा को कहीं जनता के इन बेहद ज़रुरी मुद्दों पर केन्द्रित न कर दे और ऐसा सोशल मीडिया पर हो भी रहा है इसलिए ज़रुरी है कि फिरसे चुनाव जीतने और विपक्ष की कोशिश को नाकामियाब करने के लिए चर्चा को ग़ैर ज़रुरी मुद्दों पर केन्द्रित किया जाये। कर्नाटक के स्कूल में होने वाला हिजाब विवाद उसी का नतीजा नज़र आता है। इस चर्चा के पीछे अन्य मकसद भी छिपे हैं जैसे मुसलमानों और उनके धर्म का दानवीकरण करना। प्रचार के विभिन्न माध्यम तथा तकनीक का इस्तेमाल करके हिन्दू जनता की चेतना में यह धारणा गहराई तक बैठा देना कि तुम्हारी समस्या रोज़गार, मंहगाई तथा जीवन की ज़रुरतें न होकर मुस्लिम, उनका धर्म और उनकी जीवन-शैली है इसलिए हिन्दुओं का पहला काम इस मुस्लिम नामक राक्षस को नियंत्रित करना और उसे सज़ा देना है। उनका यह काम ही सनातन धर्म की रक्षा करना और सच्चा राष्ट्रवाद है। उनके पास जो प्रचार मनोविश्लेषक हैं वह लगातार इसी काम में लगे रहते हैं कि किस तरह वह ग़ैरज़रुरी नये मुद्दों को पैदा करें और अपने ईको सिस्टम से उसका प्रचार पूरे देश में करने में कामियाब हों।
हमेशा की तरह इस बार भी मुसलमान उनके द्वारा तैयार जाल में फंस गये हैं और उन्होने जो मैदान तैयार किया है लोग उसमें खेल रहे है। खेल भी वह तैयार करते हैं और मैदान भी उनका ही होता है। उन्हें इस बात की परवाह नही होती कि लोग उनके द्वारा तैयार खेल के पक्ष में खेल रहे हैं या विपक्ष में बस उनका काम तो इतना है कि चर्चा के केन्द्र में उनके द्वारा तैयार नरेटिव रहना चाहिये।
इससे पहले मुसलमान शाहबानों केस के जाल में फंस चुके हैं। बाबरी मस्जिद भी ऐसा ही जाल था जिसमें पूरा देश दशको फंसा रहा और अब आकर उसका पटाक्षेप हुआ। इसी तरह शाहबानो केस में हुआ जिसमें भारत में वह मुसलमानों की यह छवि बनाने में सफ़ल हुये कि मुसलमान और उनका धर्म इस्लाम इतना संकीर्ण और असहिष्णु है कि अपनी महिलाओं को तलाक के बाद नाममात्र का गुज़ारा देने को भी तैयार नही है। इस काम को मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड और कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व ने अन्जाम दिया यानि अपनी सामंती और पिछड़ी सोच के कारण खुद ही उन्होने यह मुद्दा हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में पकड़ा दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस भी ऐसा ही मुद्दा था जिसको अगर मुस्लिम धार्मिक और शिक्षित नेतृत्व समझदारी से संभालता तो उसका ऐसा अपमानजनक नतीजा सामने नही आता। कुछ ऐसा ही इस हिजाब आन्दोलन के साथ हो रहा है। चुनाव के समय उठाये गये इस मुद्दे में हिन्दू-मुसलमान बिल्कुल इस तरह खुद-बखुद फंसते जा रहे हैं जिस तरह मकडी़ अपने बनाये जाल में मक्खियों को फांस लेती है। मुसलमान यह सोचकर इसमें हिस्सा ले रहे हैं कि यह उनके मज़हब और उसकी परम्पराओं पर हमला है इसलिए वह अपने मज़हब की हिफ़ाज़त के लिए आन्दोलन तेज़ कर रहे है जबकि बेरोज़गार हिन्दु युवा इस काम में यह सोचकर व्यस्त हैं कि वह भारत को ग़ुलाम बनाने वाले मलेछों के वंशजों से धर्मयुद्ध करके अतीत का बदला ले रहे हैं। उन बहकाये गये युवाओं में जो असंतोष भाजपा सरकार द्वारा लागू की गई विश्व बैंक व आईएमएफ़ की आर्थिकनीति के परिणामस्वरुप पैदा हुआ है उसकी धार को मुस्लिम के खिलाफ़ बड़ी चालाकी से मोड़ दिया गया है।
मुस्लिम छात्राओं का यह आन्दोलन उन साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा उक्साकर भेजे गये उन युवा असमाजिक तत्वों के खिलाफ़ होना चाहिये था जिन्होने कर्नाटक के एक सरकारी स्कूल में कुछ छात्राओं को घेरकर हिजाब के नाम पर उनको भयभीत करने का प्रयास किया जिसमें मुस्कान नामक छात्रा भयभीत होकर विरोधस्वरुप धार्मिक नारे लगाने लगी लेकिन इसके बाद यह आन्दोलन उन साम्प्रदायिक असमाजिक तत्वों को सज़ा दिलाने के मकसद से हटकर हिजाब के औचित्य को सही साबित करने और उसको अपना अधिकार मनवाने के लिए हिजाब को स्कूली यूनीफ़ार्म में शामिल कराने पर केन्द्रित हो गया। हालांकि बहस इसपर भी चल रही है कि हिजाब और बुखऱ्े में अंतर है लेकिन आन्दोलन करने वाली सभी युवतियंा हिजाब के स्थान पर बुखऱ्ा पहने नज़र आती हैं। हिजाब और बुखऱ्े में आप चाहे कितना भी अंतर करलें वह पर्दे का ही एक रुप है। यह सही है कि हमारा संविधान धर्म को अपनाने, उसके कर्मकाण्ड करने का अधिकार देता है लेकिन संविधान में धर्मनिर्पेक्षता का मकसद भी शामिल है जिसमें सरकारी कार्यालयों, स्कूलों, संस्थानों में धार्मिक प्रतीक लगाने और सरकारी आयोजनांे में धार्मिक कर्मकाण्ड करने की मनाही है लेकिन व्यवहार में संविधान की इस व्यवस्था का तिरस्कार और अवहेलना साफ़ नज़र आती है। स्कूल धर्मनिर्पेक्ष होने चाहियें लेकिन वहां भी सुबह होने वाली धार्मिक प्रार्थना उसके धर्मनिर्पेक्ष स्वरुप को विकृत करती है। जो लोग धार्मिक आज़ादी के लिए संविधान का हवाला देते हैं वह यह बात भूल जाते हैं कि उसी संविधान की धारा 51 ए उपधारा एच हर नागरिक का यह बुनियादी कर्तव्य निर्धारित करती है कि वह लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने का काम करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण ही लोगों में धर्मनिर्पेक्षता, मानवता, सवाल और सुधार करने की प्रवृत्ति का विकास होता है।
महिला और पुरुष में सजना-संवरना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह हर एक धर्म और समुदाय में पायी जाती है। शादी-ब्याह या इसी तरह का कोई उत्सव हो आमतौर पर महिलायें इसमें हिस्सा लेने के लिए परिधान तथा अन्य श्रंगार सामग्री की पहले से तैयारी करती हैं। यह सब परिधान और आभूषण और मेकअप पर्दे के अंदर खुद को ढकने के लिए नही होते। वह सामग्री धारण ही इसलिए की जाती हैं कि उत्सव और महफ़िल में आने वाले लोग उनकी ओर आकर्षित हो और उनकी प्रकट या छिपे रुप में प्रशंसा करें। मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए सामंती संस्कारों व पुरुषसत्तात्मक सोच के लोग जहां वह राजसत्ता पर काबिज हैं वहां बल और भय का प्रयोग करते हैं।़ जैसे सऊदी अरब या तालीबान शासित अफ़ग़ानिस्तान लेकिन जहां राजसत्ता पर उनका कब्ज़ा नही होता वहां धार्मिक परम्परा, नैतिकता की दुहाई देकर उनपर पाबंदी लगवाने की कोशिश करते हैं। आईये इस हिजाब आन्दोलन में शामिल दोनो तरह की शक्तियों जिनमें हिजाब के विरोधी और पक्षधर हैं उनका विश्लेषण करते हैं। हिजाब के विरोधी हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन और व्यक्ति, महिला मुक्ति आन्दोलन या उनको समान अधिकार दिये जाने के पक्षधर नही है। भाजपा सरकार मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक के जिस मुद्दे को हल करने पर अपनी पीठ थपथपा रही है उसका मकसद मुस्लिम महिलाओं को उनकी समस्याओं से मुक्ति दिलाना नही था। अगर ऐसा होता तो जिस संघ परिवार का बीजेपी हिस्सा है वह डा0 अम्बेडकर द्वारा लाये गये हिन्दू कोड बिल का तब विरोध नही करता। जब राजस्थान में रुपकुंवर को सती किया जा रहा था तो इस अमानवीय परम्परा के समर्थन में आज जो हिजाब का विरोध कर रहे हैं वही लोग प्रदर्शन कर रहे थे। इसके अलावा बनारस व वृन्दावन की विधवायें जिनकी पीड़ादायक जिंदगी को राहत देने के लिए सुलभ शौचालय के संस्थापक श्री बिन्देशवरी पाठक द्वारा 2014 में जो बिल ड्राफ्ट करके बीजेपी के महाराजगंज बिहार से सांसद श्री जनार्दन सिंह सिगरीवाल को संसद में पेश करने को दिया था वह कब का पास हो चुका होता लेकिन पास होना तो अलग बात है आज तक उसे संसद में पेश नही किया गया है। बनारस और वृंदावन की विधवायें हर साल प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को हज़ारों राखी भेजकर यह याद दिलाती है कि वह विधवा संरक्षण बिल को पेश करके संसद से पास करा दें ताकि उनको अपने दारुण जीवन से कुछ तो राहत मिले। मुस्लिम महिलाओं को तुरंत तीन तलाक से मुक्ति दिलाने वाले अपने ही धर्म की विधवाओं की पीड़ा को दूर करने के काम पर खामोश हैं। तीन तलाक के अभियान पीछे उनका इरादा साफ़ था कि इसके द्वारा मुसलमानों और उनके धर्म का दानवीकरण किया जाये। इस कानून द्वारा मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से पूरी तरह मुक्ति नही दिलायी गई बल्कि केवल तुरंत वाली तीन तलाक पर पाबंदी लगाई गई। आज भी तीन महीने के अरसे में तीन तलाक देने का अधिकार मुस्लिम पुरुषों पर बरक़रार है। यह उदाहरण देने के पीछे मकसद है कि जो संगठन हिजाब का विरोध कर रहे है वह खुद नारी को घर की चाहरदीवारी में कैद रखने और वेलेन्टाईन डे के विरोध के नाम पर प्रेम का इज़हार करने वाले युवक-युवतियों को भयभीत करके उनपर अपनी पिछड़ी सोच को थोपने के पक्षधर हैं। ऐसे तत्व परम्पराओं और धर्म की दुहाई देकर अन्तरधार्मिक व जातीय विवाह को रोकने की कोशिश ही नही करते बल्कि कानून बनाकर रोकते भी हैं। ऐसे संगठन जब पर्दा प्रथा के खिलाफ़ आवाज़ उठाने का नाटक करते है ंतो उनके पीछे उनकी मंशा मुस्लिम महिलाओं को पर्दा प्रथा से मुक्ति दिलाना नही होता बल्कि उनको डराना और उनका दानवीकरण करना होता है। क्या ऐसा सम्भव है कि यह बजरंगी या जो भी हिजाब के खि़लाफ़ आन्दोलन कर रहे हैं वह स्कूल में सिख छात्रों की पगड़ी या कृपाण या सवर्ण हिन्दु छात्रों द्वारा जनेऊ धारण करने या विवाहित हिन्दु छात्रा के मांग में सिन्दूर भरकर स्कूल में आने पर भी क्या इस तरह विरोध करते हैं। जबकि यह सभी हिजाब की तरह ही धार्मिक प्रतीक हैं ? स्कूल प्रबंधन भी इन प्रतीक चिन्हों पर एतराज़ नही करता है। इससे लगता है कि मुसलमानों की कमज़ोरी जानकर विवाद को पैदा किया गया है। इसी तरह का विवाद सूर्य नमस्कार स्कूलों में अनिवार्य करने पर उठा था।
अब हम पर्दे के पक्ष में आन्दोलन करने वालों का विश्लेषण करते हैं। इस तरह के तमाम आन्दोलनों और विचारधारा के पीछे अगर आप गहराई में जायेंगे तो पुरुषसत्तात्मक सोच ही पायेंगे। जो महिलायें इसके पक्ष में खड़ी भी नज़र आती है उनकी ज़हनसाज़ी, सामंती सोच के पुरुष ही करते रहते हैं। मैं पाकिस्तान का अपने परिवार का उदाहरण रखना चाहूंगा। मेरी बड़ी बहन जिनकी शादी वहां हुई थी उनसे मिलने मैं नव्वे के दशक की शुरुआत में कराची गया था। उस समय मैने देखा कि भारत में ज़्यादर महिलायें बुखऱ्ा इस्तेमाल करती थी लेकिन पाकिस्तान में केवल बड़ी उम्र की महिलायें जिनमें से ज़्यादातर भारत से गई मुहाजिर परिवार की होती वह ही घर से बाहर पर्दे का इस्तेमाल करती। पाकिस्तान की युवा नस्ल पर्दा करती नही नज़र नही आई लेकिन जब मैं दोबारा 2005 में वहां गया तो नई नस्ल बुखऱ्ा ओढ़े नज़र आई। मेरी अपनी भान्जियां बिना बुखऱ्े के घर से बाहर नही निकलती। इसपर मैने उनसे पूछा कि पाकिस्तान की जवान नस्ल पहले तो ऐसा पर्दा नही करती थी ऐसा क्या हुआ कि आप लोग पर्दा करने लगी। इसपर उनका जवाब था, ''मामू आप किसी क़ीमती चीज़ को छिपाकर रखना चाहेंगे या उसकी नुमाईश करेंगे ? उनका यह जवाब हैरान कर देने वाला था। मैने इसपर ग़ौर किया तो पता चला कि यह जनरल ज़ियाउलहक़ के बाद उसके द्वारा निर्माण किया गया समाज था जो पर्दे के लिए ज़हनी तौर पर सहमत कर दिया गया था यानि महिलाओं की कन्डीशनिंग कर दी गई थी। मुस्लिम समाज की महिलाओं की ज़हनी कन्डीशनिंग के पीछे जमायते इस्लामी, तबलीग़ी जमात, वहाबी विचारधारा का भी काफ़ी हाथ था और जैसाकि सऊदी अरब के क्राऊन प्रिंस मौहम्मद बिन सलमान की वह आत्मस्वीकृति जिसमें उन्होने अमरीकी प्रेस को कहा था कि ''शीतयुद्ध के दौरान पश्चिम ने हमसे कहा कि सोवियत संघ को मुस्लिम देशों में सम्बंध बनाने से रोकने के लिए वहां मदरसों और मस्जिदों में निवेश करो और वहाबी विचारधारा का प्रसार करो हमने ऐसा ही किया।'' तो यह वह कारण थे कि मुसलमान, प्रगतिशीलता के पथ पर आगे बढ़ने के अतीत में वापस जा लौटे। यह सभी जानते हैं कि आज़ादी से पहले साहित्य में प्रगतिशील सोच को अपनाने उसका प्रसार करने वाले अधिकाशं साहित्यकार मुस्लिम थे। उसी परम्परा के शायर जावेद अख़्तर ने इस आन्दोलन के बारे में कहा कि मैं बुखऱ्ा या हिजाब का हिमायती नही हू लेकिन जिस तरह से कर्नाटक की स्कूली छात्राओं को भगवा पटटे डाले गुन्डे भयभीत करने की असफल कोशिश कर रहे थे मैं उनकी इस हरकत के खिलाफ़ हूं।
हिजाब आन्दोलन किस तरह से शाहीन बाग़ आन्दोलन से भिन्न है आईये इसका विश्लेषण करते हैं। नागरिकता कानून के खिलाफ़ दिल्ली के शाहीन बाग़ क्षेत्र में मुस्लिम महिलाओं की पहल पर जो आन्दोलन शुरु हुआ उसकी खा़स बात यह थी कि उसका नेतृत्व जिन महिलाओं के हाथ में था उन्होने अपने मंच पर धार्मिक नेतृत्व को खड़ा होने का मौक़ा नही दिया जबकि हिजाब आन्दोलन पूरी तरह धार्मिक ताकतों द्वारा संचालित आन्दोलन है और उसके पीछे जमाअते इस्लामी के संस्थापक मौलाना अबुलआला मौदूदी की सोच से सहमत लोगों का संगठन, 'पापुलर फ्रंट आॅफ़ इन्डिया' और उसका छात्र संगठन 'केम्पस फ्रंट आॅफ़ इन्डिया' है। ज़ाहिर में इस संगठन का नेतृत्व अपनी सभाओं/प्रदर्शनों में धर्मनिर्पेक्षता और संविधानिक मूल्यों की हिफ़ाज़त को अपना मकसद बताता है मगर उसकी हक़ीक़त तब खुल जाती है जब यह मध्यपूर्व में कार्यरत् मुस्लिम ब्रादरहुड नामक कटटरपंथी संगठन के नेता मौहम्मद मुर्सी की फ़ांसी के खिलाफ़ मिस्त्र के दिल्ली स्थित दूतावास पर प्रदर्शन आयोजित करता है। मुस्लिम ब्रादरहुड संगठन धर्मनिर्पेक्षता विरोधी, खिलाफ़त और शरियत को लागू करने का पक्षधर है जिसके नेता सय्यद कुतब को मिस्त्र के सदर कर्नल नासिर की हत्या की साज़िश के इल्ज़ाम में फांसी दी गई थी। इस संगठन पर अरब देशों में धर्मनिर्पेक्ष नेताओं की हत्याओं का भी आरोप लगता रहा है। ऐसे संगठन से हमदर्दी रखने वाला पापुलर फ्रंट आॅफ़ इन्डिया और उसकी छात्र शाखा कर्नाटक के इस हिजाब आन्दोलन का नेतृत्व कर रही है। इसी का नतीजा है कि जब कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपना फ़ैसला आने तक उडूपी के उस सरकारी स्कूल में हिजाब पहनने पर रोक लगादी तब पापुलर फ्रंट आॅफ़ इन्डिया की छात्र शाखा केम्पस फ्रंट आॅफ़ इन्डिया' ने हिजाब पहनकर छात्राओं को स्कूल में भेजने की कोशिश की। यह आन्दोलन मुस्लिम महिलाओं को आगे की ओर ले जाने के पीछे की ओर ढकेलने का आन्दोलन है। जिस धार्मिक नेतृत्व को शाहीनबाग़ आन्दोलन ने पीछे ढकेलकर नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया था यह आन्दोलन महिलाओं की बागडोर फिरसे उसी सामंती नेतृत्व के हाथ में सौंपने का आन्दोलन है। मुस्लिम समाज में नारी शिक्षा के कारण जो बेदारी आ रही है उसे और आगे ले जाने की कोशिश होनी चाहिये। उनमें नारी मुक्ति आन्दोलन के विकास और उसके इतिहास पर चर्चा होनी चाहिये लेकिन अगर उनका नेतृत्व मुस्लिम समाज को पीछे की ओर ले जाने वाली सोच के हाथों में होगा तो उसका लाभ विरोधी साम्प्रदायिक शक्तियों को ही पंहुचेगा। कर्नाटक से शुरु हुये इस आन्दोलन में दोनों ओर यानि भगवा पट्टा पहने बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी के छात्र हिजाब का विरोध कर रहे हैं जबकि दूसरी ओर पापुलर फ्रंट आॅफ़ इन्डिया का छात्र संगठन केम्पस फ्रंट आॅफ़ इन्डिया हिजाब के पक्ष में आन्दोलनरत् हैं। इन दोनो संगठनों का महिलाओं की आज़ादी और समानता के आन्दोलन से कोई भी सम्बंध नही है। अगर हम शाहीन बाग़ और इस हिजाब आन्दोलन की तुलना करें तो शाहीन बाग़ आन्दोलन में नारा इन्किलाब ज़िन्दाबाद लग रहा था जबकि हिजाब आन्दोलन का नारा अल्लाह हो अकबर है। यानि एक नारा परिवर्तन का आवाहन करता है जबकि दूसरी नारा दुनिया जहां तक पंहुच चुकी है उसको वापस पीछे की ओर लौटने की दावत देता है। शाहीन बाग़ आन्दोलन से साम्प्रदायिक शक्तियां और सरकार भयभीत हो गई थी जबकि इस हिजाब आन्दोलन से सरकार खुश है। शाहीन बाग़ आन्दोलन ने मुस्लिम महिलाओं के बारे में बनायी अबला की धारणा को ध्वस्त कर दिया था और इसने सरकार को चैंका दिया था। यही कारण था शाहीन बाग आन्दोलन में पैदा हुये मुस्लिम महिला नेतृत्व को भयभीत करने के लिए उनपर मुकदमें लगाये गये उन्हे जेल की सलाखों के पीछे ढकेल दिया गया जबकि हिजाब आन्दोलन का जितना ज़्यादा विस्तार होगा सरकार को उतना ही ज़्यादा जनता की समस्याओं को सुलझाने के काम से छुटकारा मिलेगा। भारत की प्रगतिशील ताकतों को प्रयास करना होगा कि जो कुछ कर्नाटक के सरकारी स्कूल में भगवाधारी असमाजिक तत्वों द्वारा मुस्लिम छात्राओं के साथ किया गया उसका विरोध करें लेकिन हिजाब को अपनी पहचान बनाने के लिए चलाये जा रहे आन्दोलन में फंसने और मुस्लिम सामंती सोच के के लोगों का औज़ार बनने से रोकें। उनको अपनी आजकी बुनियादी समस्याओं, ग़रीबी, अशिक्षा, असमानता के खिलाफ़ लड़ना चाहिये। जहांतक पर्दा प्रथा की बात है तो यह बलपूर्वक खत्म नही की जा सकती। जिस दिन महिलायें इसके पीछे छिपी सामंती सोच को समझ जायेंगी उस दिन वह खुद इसको छोड़ने लगेगी। भारत की मुस्लिम महिलाओं पर पाकिस्तान की महिलाओं की तुलना में समाजिक दबाव ज्यादा है। भारत में हिन्दू नारीवादी महिलायें तो आपको मिल जायेंगी लेकिन मुस्लिम महिलाओं में व्यक्तिगत रुप से इक्का-दुक्का नारीवादी महिलायें ही मिलती हैं। पाकिस्तान की तरह यहां मुस्लिम महिलाओं में नारीवादी आन्दोलन दिखायी नही पड़ता। पाकिस्तान में ''मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी'' और 'औरत-मार्च' जैसे नारीवादी आन्दोलन चर्चा में रहते हैं लेकिन भारत में इस तरह का रुझान विशेषकर मुस्लिम महिलाओं में देखने को नही मिलता यही कारण है कि यहां उनका हिजाब या बुरख़े से लगाव नज़र आता है। जब वह हिजाब या बुरख़े के पक्ष में तर्क दे रही होती है ंतो यह उनका तर्क नही होता बल्कि वह पुरुषों द्वारा पकड़ाये तर्क को अपना समझकर पेश कर रही होती हैं। शाहीन बाग़ आन्दोलन और हिजाब आन्दोलन की अगर सारांश में व्याख्या करें तो वह मज़ाज के इस शेर से हो जाती है कि ''तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन, तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था'' तो शाहीन बाग़ आन्दोलन आंचल से परचम बनाने का आन्दोलन था जबकि हिजाब आन्दोलन परचम को वापस आंचल में बदल देने का आन्दोलन है।
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