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- मैं चौदह या पंद्रह साल...
मैं चौदह या पंद्रह साल का था कि तब की एक घटना मुझे याद है - नेताजी सुभाष चंद्र बोस : पुण्यतिथि
मैं इस मामले में भाग्यवान था कि मैं जिस वातावरण में पला-बढ़ा, वह मेरे मानसिक स्तर को विकसित करने में सहायक था। अपने बचपन में मैं अंग्रेजों, अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी संस्कृति के संपर्क में था, और इसके बाद मैं अपनी गौरवमयी तथा आधुनिक संस्कृति में वापस लौटा तथा जब मैं स्कूल में था, तब भी मेरे अंतरप्रांतीय संबंध और मित्रता थी।
यदि मैं बंगाल में रह रहा होता, तब मैं इनसे वंचित होता। और तो और, मुसलमानों के प्रति भी मेरा दृष्टिकोण मेरे शुरुआती संपर्कों से प्रभावित था। मैं जिस स्थान में रहता था, वह मुस्लिम बहुलता वाला था और हमारे अधिकतर पड़ोसी भी मुसलमान ही थे। वे सभी हमारे पिता को उसी रूप में देखते थे, जैसे कि एक आम ग्रामीण ग्राम कुलपति को देखता है। हम उनके मुहर्रम आदि में शामिल होते थे और उनके अखाड़े का मजा भी लेते थे।
हमारे नौकरों में से कुछ मुसलमान भी थे, जो कि दूसरों की ही तरह हमारे प्रति सेवाभाव रखते थे। स्कूल में भी मेरे मुस्लिम सहपाठी और शिक्षक थे, जिसके साथ हमारे संबंध बेहतर थे। वाकई मुझे याद नहीं है कि हमने उन्हें कभी अपने से अलग रूप में देखा। मेरे शुरुआती दिनों में हिंदुओं और मुसलमानों में विरोध की बात नहीं थी।
.......
मैं जिस माहौल में पला-बढ़ा था, वह काफी मुक्त था और शायद ही मैं कभी किसी सामाजिक या पारिवारिक परंपरावादी विवाद में पड़ा था। मैं चौदह या पंद्रह साल का था कि तब की एक घटना मुझे याद है। मेरी कक्षा का एक मित्र, जो कि मेरा पड़ोसी भी था, उसने हममें से कुछ लोगों को घर पर खाने के लिए बुलाया था। मेरी माताजी को जब यह पता चला, तब उन्होंने हम में से किसी को भी वहाँ जाने से मना कर दिया था। इसका कारण शायद उनका सामाजिक स्तर हमसे कम होगा या फिर वह निचली जाति का होगा या शायद स्वास्थ्य के कारण हमें बाहर खाने से मना किया होगा। किंतु यह भी सत्य है कि हम मुश्किल से ही बाहर खाना खाते थे।
हालाँकि मुझे अपनी माँ का आदेश न्यायोचित नहीं लगा था और इसका विरोध करने में मुझे एक खास तरह के आनंद की अनुभूति हुई थी। जब से मैंने धर्म और योग को गंभीरतापूर्वक लिया और जहाँ कहीं भी मैं जाना चाहता या जिससे भी मिलने की स्वतंत्रता चाहता था, मैं अपने माता-पिता के निर्देशों के खिलाफ हो जाता था। अपने माता-पिता की अवज्ञा करने में उन दिनों मुझे विवेकानंद की प्रेरणा का असर लगता था, जिसके अनुसार, आत्मपूर्ति के लिए विद्रोह आवश्यक है, क्योंकि जब एक बच्चा पैदा होता है, तब इसका प्रत्येक रुदन उस बंधन के खिलाफ विद्रोह है, जिसमें वह स्वयं को पाता है। अपने स्कूल के दिनों की याद करते समय मुझे लगता है कि मैं जब भी किसी के सामने जाता था, तब मैं एक अड़ियल, मौजी और जिद्दी बच्चे के रूप में ही होता था। मुझसे यह उम्मीद की जाती थी कि मैं मैट्रिकुलेशन के इम्तिहान में अच्छा करूँगा और अपने स्कूल का नाम रौशन करूँगा, पर मेरे शिक्षकों को तब बहुत हताशा हुई, जब उन्होंने मुझे अपनी पढ़ाई की अनदेखी करते और भभूत लपेटे साधुओं के पीछे भागते देखा था। मेरे माता-पिता को भी लगता था कि उनके मेधावी लड़के का दिमाग खराब हो गया है, परंतु मुझपर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता था, मेरे लिए तो मेरे आंतरिक स्वप्न ही मायने रखते थे। मेरा जितना भी विरोध होता, मैं उतना ही जिद्दी होता जाता था। इस स्थिति में मेरे मात-पिता ने सोचा कि वातावरण का परिवर्तन शायद मुझमें कुछ बेहतर कर सके, इसलिए कलकत्ता के वातावरण में मैं अपनी सनक छोड़कर अपने बाकी लोगों की तरह ही सामान्य जीवन बिता सकूँगा।
सन् 1913 में मैं अपने मैट्रिकुलेशन के इम्तिहान में बैठा और विश्वविद्यालय में मेरा दूसरा स्थान था। मेरे माता-पिता बहुत खुश थे और फिर मैं कलकत्ता के लिए रवाना कर दिया गया।
स्रोत - सुभाष चंद्र बोस की अधूरी आत्मकथा( संपादक शिशिर कुमार बोस & सुगत बोस )