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परमाणु युद्ध हुआ तो मिट जाएगी दुनिया

Shiv Kumar Mishra
2 March 2022 5:27 PM IST
परमाणु युद्ध हुआ तो मिट जाएगी दुनिया
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अरविंद जयतिलक

रुसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन द्वारा अपने परमाणु प्रतिरक्षा बलों को तैयार रहने का आदेश दिए जाने के बाद अब रुस-यूक्रेन युद्ध पर परमाणु खतरा मंडराने लगा है। उल्लेखनीय है कि यूक्रेन-रुस के बीच युद्ध जारी है और एकदूसरे को मिटाने पर आमादा हैं। उधर, नाटो देशों के आक्रामक बयानों से स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है। ऐसे में पुतिन को डर सताने लगा है है कि नाटो देश रुस को निशाना बना सकते हैं। लिहाजा उन्होंने परमाणु प्रतिरक्षा बलों को तैयार रहने का आदेश देकर संकट को और अधिक बढ़ा दिया है।

ऐसे में अगर इन दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध होता है तो न सिर्फ इन दोनों देशों का सर्वनाश होगा बल्कि उसका खतरनाक अंजाम दुनिया को भी भुगतना होगा। परमाणु युद्ध हुआ तो दुनिया की सामान्य मृत्यु दर दुगुनी हो जाएगी। परमाणु युद्ध के कारण 1.6 से 3.6 करोड़ टन काला और घना कार्बन का धुंआ पूरी दुनिया में उपरी वायुमंडल में छा जाएगा जिससे धरती पर सूर्य की रोशनी में 20 से 35 प्रतिशत तक कमी होगी। धरती का तापमान 2 से 5 डिग्री सेल्सियस कम हो जाएगा। बारिश में 15 से 30 फीसद कमी आएगी और ऐसी ठंड होगी जैसी हिमयुग के बाद में नहीं देखी गयी। इतना ही नहीं धरती पर पेड़-पौधों की संख्या में भी 15 से 30 प्रतिशत की कमी आएगी और 5 से 15 फीसद समुद्री जीवन नष्ट हो जाएगा। गौर करें तो आज विश्व भर में 70 हजार से अधिक परमाणु शस्त्र हैं और प्रत्येक शस्त्र की क्षमता हिरोशिमा और नागासाकी जैसे किसी भी शहर को एक झटके में मिटा देने में सक्षम है।

एक रिसर्च के मुताबिक इन शस्त्रों के जरिए दुनिया को एक दो बार नहीं बल्कि दर्जनों बार मिटाया जा सकता है। आंकड़ों पर गौर करें तो अमेरिका 1945 के बाद से हर नौ दिन में एक के औसत से परमाणु परीक्षण की है। आंकड़ों बताते हैं कि 1945 के बाद से दुनिया में कम से कम 2060 ज्ञात परमाणु परीक्षण हो चुके हैं जिनमें से 85 फीसद परीक्षण अकेले अमेरिका और रुस ने किया है। ये दोनों ही देश विश्व की महाशक्तियां हैं और दुनिया के अधिकांश देश इन्हीें दोनों देशों के खेमे में बंटे हुए हैं। इसमें से अमेरिका ने 1032, रुस ने 715, ब्रिटेन ने 45, फ्रांस ने 210, चीन ने 45 परीक्षण की है। गौरतलब है कि अमेरिका ने 16 जुलाई, 1945 को मैक्सिको के आल्मागार्दो रेगिस्तान में परमाणु बम का परीक्षण किया और उसके बाद से ही परमाणु युग की शुरुआत हुई। अमेरिका की देखा-देखी सोवियत संघ ने 1949 में, ब्रिटेन ने 1952 में, फ्रांस ने 1958 में तथा चीन ने 1964 में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया। इस बिरादरी में भारत भी सम्मिलित हो गया जब उसने 18 मई, 1974 को पोखरन में अपना प्रथम भूमिगत परीक्षण किया। अब हालात यह है कि समूची दुनिया कभी न खत्म होने वाली परमाणु परीक्षणों की घुड़दौड़ में शामिल हो गयी है। विडंबना यह है कि परमाणु संपन्न देश परमाणु शस्त्र कटौती संधि के बावजूद भी इन घातक हथियारों में कमी लाने को तैयार नहीं हैं। परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को सीमित करने तथा उनके प्रयोग एवं उनके परीक्षण पर रोक लगाने के संबंध में संसार की दो महाशक्तियों के बीच 1967 की परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) जिसे 12 जून 1968 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भारी बहुमत से स्वीकृति प्रदान की और 5 मार्च 1970 से प्रभावी हो गयी। इस संधि के अंतर्गत यह व्यवस्था दी गयी कि कोई भी परमाणु संपन्न देश अकेले या मिलकर अपने अस्त्र किसी भी राष्ट्र को नहीं देंगे। संधि पर हस्ताक्षर करने वाला प्रत्येक राष्ट्र आणविक अस्त्रों की होड़ समाप्त करने एवं आणविक निःशस्त्रीकरण को प्रभावशाली बनाने के लिए बाध्य होगा। लेकिन यहां उल्लेखनीय तथ्य यह कि इस संधि के प्रारुप पर आपत्ति जताते हुए फ्रांस, इटली, जर्मनी और भारत ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत के अनुसार यह संधि भेदभावपूर्ण, असमानता पर आधारित एकपक्षीय एवं अपूर्ण है।

हालांकि भारत को इस नीति के कारण परमाणु क्लब के सदस्यों की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन भारत अब भी अपने पुराने तर्क पर कायम है कि आणविक आयुधों के प्रसार को रोकने और पूर्ण निःशस्त्रीकरण के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्षेत्रीय नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। अच्छी बात यह है कि भारत हमेशा परमाणु निःशस्त्रीकरण की बात करता है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में 1954 में स्टैंड स्टील एग्रीमेंट अर्थात 'यथास्थिति वाले समझौते' के माध्यम से सबसे पहले परमाणु शस्त्र नियंत्रण की आवाज उठायी जबकि अन्य राष्ट्र इस बारे में जागरुक नहीं थे। भारत हमेशा एक परमाणु अस्त्रों से मुक्त विश्व गढ़ने का समर्थन किया है। वह सम्मेलनों के माध्यम से एक व्यापक एवं सार्वभौमिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि बनाने पर जोर दिया है। ध्यान देना होगा कि 1963 में आंशिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि (पीटीबीटी) के पांच धाराओं वाली संधि के अंतिम रुप प्रदान करने में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिसंबर 1993 में भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध संधि का ब्यौरा संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किया।

सच तो यह है कि भारत हमेशा ही परमाणु शक्ति का उपयोग लोगों के जीवन स्तर को सुधारने व आर्थिक खुशहाली हेतु करने का पक्षधर रहा है न कि हथियारों के उपयोग का। भारत ने परमाणुशक्ति संपन्न राष्ट्रों की परमाणु हथियारों के परीक्षण को जितना गंभीरता से विरोध किया उतना अन्य किसी दूसरे राष्ट्र ने नहीं की है। जहां तक भारत की परमाणु नीति की उत्पत्ति व विकास का सवाल है तो उसका मूल आधार सामाजिक व आर्थिक है। इसीलिए कि परमाणु उर्जा के अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के संबंध में नीति निर्धारण हेतु भारत ने दो बातों पर विशेष रुप से जोर दिया। एक, इस नए उर्जा स्रोत के आर्थिक उपयोग की सभी को स्वतंत्रता हो तथा दूसरा इसको निरस्त्रीकरण से जोड़ा जाए। भारत निरस्त्रीकरण और शस्त्र नियंत्रण को एकदूसरे का पर्याय मानता है। शस्त्र नियंत्रण निरस्त्रीकरण का अनिवार्य अंग है। दोनों का मूल उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय समाज में हिंसा व शक्ति के प्रयोग को रोकना व सीमित करना है। जून, 1982 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में निरस्त्रीकरण पर पांच सूत्रीय ठोस कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसकी चतुर्दिक सराहना हुई। अक्सर भारत की परमाणु नीति को 1974 और 1998 के परमाणु परीक्षण से जोड़ते हुए उसे संदेह की परिधि में रखा जाता है। लेकिन यह तार्किक नहीं है। वैश्विक समुदाय को समझना होगा कि यह भारत की आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति और आत्मसुरक्षा के लिए बेहद आवश्यक था। इसलिए और भी कि चीन ने 1964 में परमाणु विस्फोट कर सामरिक रुप से असंतुलित कर दिया था।

उस दौरान देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने भारत द्वारा परमाणु बम के बारे में विचार करने की बात कही थी। मौजुदा समय में भारत का तीन स्तरीय स्वदेशी परमाणु विकास का कार्यक्रम मूलतः शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। यह उर्जा उत्पादन एक अहम अंग है। चूंकि शीतोयुद्धोत्तर युग के आर्थिक सुधारों एवं विश्व में भूमंडलीकरण के बाद आए नए बदलावों ने परमाणु कार्यक्रमों को बहुत महत्वपूर्ण बना दिया इस लिहाज से भारत को भी अपनी बढ़ती उर्जा जरुरतों को पूरा करने के लिए परमाणु संयंत्रों की स्थापना आवश्यक था। निःसंदेह आज की तारीख में भारत की परमाणु नीति का उद्देश्य अब उर्जा उत्पादन तक सीमित न रहकर संभावित शस्त्र उत्पादन से भी जुड़ गया है।

लेकिन इसमें कोई बुराई नहीं है। इसलिए कि शीतयुद्धोत्तर युग में संघर्ष में आई कमी के बावजूद दक्षिण एशिया में शांति के युग का प्रारंभ नहीं हुआ है। वाह्य शक्तियों के हस्तक्षेप, विशेषकर अमेरिका की नीतियों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होना, मध्य एशियाई गणराज्यों की उत्पत्ति, पाकिस्तान में आंतरिक अशांति, अफगानिस्तान की समस्या से किसी भी समय स्थिति नाजुक बन सकती है। ध्यान देना होगा कि भारत के पड़ोसी देश विशेष रुप से चीन और पाकिस्तान दोनों परमाणु अस्त्रों से लैस हैं। पाकिस्तान 1998 में परमाणु परीक्षण किया और तभी से लगातार भारत को धमकी दे रहा है। ऐसे में अगर भारत-चीन या भारत-पाकिस्तान अथवा रुस-युक्रेन के बीच परमाणु युद्ध छिड़ता है तो उसका कुपरिणा संपूर्ण दुनिया को भुगतना होगा।

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