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- "घृणा और धर्मान्धता के...
डॉ सुषमा गजापुरे (हिन्दी लेखिका)
एक समय था ! जब भारत के भाईचारे, सर्वधर्म समभाव की दुहाई विश्व दिया करता था। विश्व बड़े अचरज से भारत की ओर देखता था कि कैसे इस देश में इतने धर्म और जाति के लोग आपस में प्रेम-भाईचारे के साथ रहते है?
विश्व में भारतवर्ष का उदाहरण दिया जाता था। यही प्रेम, एकता और भाईचारा हमारे देश की अनमोल पूंजी थी जिसने हमें सदैव ही गौरवान्वित भी किया। किन्तु धीरे-धीरे हमारे देश की इस एकता ,सौहार्द और भाईचारे को राजनीतिक अवसरवादिता की नज़र लग गई। सत्ता की भूख देश की एकता से बड़ी हो गई। आज स्वार्थलोलुपता अपने चरम पर है और आधुनिक सोशल मीडिया ने इसे अपने टीआरपी बढ़ाने का अचूक शस्त्र बना लिया।
आज हमारे देश की आंतरिक स्थिति ऐसी है कि हमें बाहरी दुश्मनों की आवश्यकता ही नहीं। हम आपस में ही इतना लड़ रहें हैं कि लगता ही नहीं हम सब एक ही देश के वासी है। कहाँ से आई इतनी घृणा? भारतीय समाज का यह विकृत चेहरा विश्व और भारतीयों के समक्ष प्रत्येक दिन अखबारों और सोशल मीडिया पर ऐसा परोसा जा रहा है जिसे देख कर लगता है जैसे हमारे देश में इस समय प्रगति, विकास से अधिक यही मुद्दे सबसे अहम और महत्वपूर्ण है।
सोशल मीडिया के द्वारा हमें घृणा और धर्मान्धता के ऐसे सन्देश परोसे जा रहें हैं,जिन्हें देख कर हृदय कांप उठता है। यह कैसी पत्रकारिता जो सामाजिक समरसता की बजाय घृणा और धर्मान्धता फैलाती हैं। सुबह के अखबारों से लेकर टीवी की खबरों से प्रारंभ हो जाता है सामाजिक ज़हर घोलने का सिलसिला जो अनवरत २४ घंटे चलता रहता है।
क्या यह उसी भारतीय समाज का चेहरा है जिसे बुद्ध के मध्यम-मार्ग और महावीर के सत्य-मार्ग से घृणा है और जो गाँधी के अहिंसा को कायरता मानते हैं?
यह वह भारतीय समाज तो बिलकुल भी नहीं है जो पैगंबर की दया, सद्भावना , राम के मर्यादाओं, गुरुनानक के एकता और ईसा मसीह के क्षमादान को सिरे से खारिज कर आज अपना अलग धर्म बना कर उसके अंतर्गत केवल और केवल धार्मिक घृणा, हिंसा, अतिवाद, आरोप-प्रत्यारोप का खेल रच रहा हैं। जिस गांधीजी को हमने राष्ट्र-पिता कहा, महात्मा कहा, उनके बारे में सोशल मीडिया पर क्या-क्या लिखा जा रहा हैं इसे आप एक बार पढ़ लेंगे तो सभी भारतवासियों की आँखें शर्म से झुक जाएगी।
धर्मांधता में डूबे यह तथाकथित सामाजिक लोग एक-दूसरे के धर्म को ले कर जहर उगल रहें हैं। आज गांधीवाद, राष्ट्रवाद, समाजवाद, सब धराशायी हो चुके हैं। जिम्मेदार हम सब है, वे भी जो नफरत उगलते हैं और वे भी जो इस पर चुप रहते हैं। यही हैं हमारे भारत का नया चेहरा जिसे सेक्युलर शब्द से नफरत है और जो पूरे भारत को उस राह पर ले जाना चाहता जिसका अंत अतिवाद है?
भारत का यह नया चेहरा सिर्फ वही बोलता और वही सुनता है जो वह बोलना और सुनना चाहता हैं। उसे प्रतिरोध पसंद नहीं है। वह दक्षिणपंथी किसी अन्य के विचार को देखना भी उचित नहीं समझता, न ही उसकी थ्योरी में किसी अन्य के विचारों के लिए कोई जगह है। यह कुछ ऐसा ही है जो हमारे कुछ पड़ोसी देशों में घटित हो रहा हैं जिसने पूरी दुनिया को आतंकित कर दिया है। आज हमारी मानसिकता इतनी अधिक विषैली हो गई है की हमें हर बात, हर घटना में केवल और केवल धर्म और जातियाँ दिखाई दे रहीं है। फिर बात हो 'जश्न-ए- रिवाज' के विज्ञापन की, अंतर्धार्मिक विवाहों की, दीवाली, होली, क्रिसमस या मोहर्रम या ईद के खरीददारी की , ये "कुछ" लोग इन सभी बातों में से चुन-चुन कर अपनी सहूलियत से अर्थ निकाल कर उसे धार्मिक-दुर्भावना का रूप दे ही देते है, और वहीं सब कुछ अखबारों और टीवी पर दिन-रात चर्चा के नाम पर जहर उगल कर हम भारतीयों के सामने केवल धर्म के नाम पर घृणा परोस रहें हैं। हद तो तब हुई जब उर्दू भाषा को भी इस धर्मांधता ने निशाना बनाया। जिस उर्दू भाषा को भारत के विख्यात साहित्यकारों ने अपने साहित्य में सहज रूप से रचा,स्थान दियाऔर जिसे हिन्दी को माँ कहनेवालों ने मौसी की संज्ञा दी उसे कुछ अतिवादी तत्वों ने हिन्दू धर्म के खिलाफ एक षड़यंत्र का नाम दे दिया। यह तो घृणा की चरमसीमा है। पड़ोसी देशों में कट्टरवाद के नाम पर अफरातफरी का माहौल है , जहां सामान्य-जीवन कठिन हो गया है, क्या हम वैसे ही वातावरण अपने देश में बनाना चाहते है?
ऐसा लग रहा है जैसे भारत देश में प्रत्येक धर्म के तथाकथित कुछ ऐसे 'अनुयाई' है जो अब भाषा, लिपि, रिवाज, संस्कारों के नाम पर आपसी भाईचारे को सूली पर चढ़ा रहें हैं। अभी हाल ही में अफगानीस्तान, बांग्लादेश जैसे राष्ट्रों में जो घटनाएँ हुई वह इसी धर्मांधता का परिणाम है।
अमेरिका के लोग जो ईसाई धर्म के अनुयायी है, वहाँ समस्त विश्व के लोग भाई-चारे के साथ रहते हैं।एखाद घटना को छोड़ कर अमेरिका में कभी भी किसी भी धार्मिक आंदोलन या धार्मिक उन्मादता की कोई घटना सामने नहीं आई। जबकि वहाँ अमेरिका सरकार ने कई मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद, बुद्ध मंदिर, सभी का निर्माण किया है और उनकी सुरक्षा का ध्यान भी रखा जाता है। वहाँ तो कभी हिन्दु, मुस्लिम ,सिक्ख, ईसाइयों के आपस में लड़ाई-झगड़े नहीं होते। फिर हमारे देश में क्यों? हमारे आम भारतीय अतीत में इस तरह के धार्मिक उन्माद के साक्षी नहीं रहें हैं, सब कुछ ठीक ही था किन्तु कुछ राजनैतिक दल धर्म को सत्ता का मोहरा बना कर उसकी आड़ में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने में लगे हैं। भारत में प्रतिदिन पुराने नेताओं के विचारों को खोद-खोद कर निकाला जाता है और उसके आधार पर उन्हें लताड़ा जाता है कि कैसे उन्होंने देश को बर्बाद किया। वो नेता आज इस दुनिया में भी नहीं है वे इस घृणा का क्या जवाब देंगे।
इसलिए आज वह समय आ गया है जब आम जनता को सामने आ कर अपना मत रखना होगा। इस धर्मांधता को अपने स्तर पर मिटाना होगा। सत्ताएँ आएंगी, सत्ताएँ जाएंगी, अंततः हम सब भारतीय जनता को साथ मिल कर ही रहना है। धर्मान्धता जनित इस घृणा को हमें मिल कर तुरंत रोकना ही होगा। सरकारों को भी इसमें हस्तक्षेप कर अहम् भूमिका निभानी चाहिए।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि दूसरों के लिए खोदे गए गड्ढे कभी-कभी हमारे गिरने का कारण भी बन सकते हैं।