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रामधारी सिंह दिनकर ने संसद में सुनाई कविता तो प्रधानमंत्री नेहरू ने झुका लिया था अपना सिर

रामधारी सिंह दिनकर ने संसद में सुनाई कविता तो प्रधानमंत्री नेहरू ने झुका लिया था अपना सिर
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हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब रहे हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। रामधारी सिंह दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जीवन भर करोड़ों लोगों की आवाज बनकर देश में गूंजते रहे। दिनकर के चले जाने से वह कंठ मौन हो गया जिसने अपने गर्व भरे स्वरों में घोषित किया था- "सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा/ स्वयं युग धर्म का हुंकार हूँ मैं"।

रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वो बेबाक टिप्पणी से कतराते नहीं थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) ने रामधारी सिंह दिनकर को राज्यसभा के लिए नामित किया लेकिन बिना लाग लपेट के उन्होंने देशहित में नेहरू के खिलाफ आवाज बुलंद करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई, जब दिनकर के कविता पाठ से जब संसद सन्न हो गया 1962 में चीन से हार के बाद संसद में दिनकर ने कविता पाठ किया…

"रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर

फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर"

इस कविता पाठ को सुन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया था…ये घटना आज भी भारतीय राजनीति के इतिहास की चुनिंदा क्रांतिकारी घटनाओं में से एक है…

हिंदी के राष्ट्रकवि ने एक बार राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा कि, "क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?" ये सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोग हैरान रह गए. 20 जून 1962 का वो दिन था. उस दिन दिनकर राज्यसभा में खड़े हुए और हिंदी के अपमान को लेकर बहुत सख्त स्वर में बोले. उन्होंने कहा देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते. पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है।

दिनकर ने कहा कि, उनका ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है और पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही. ये सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई. सभा में गहरा सन्नाटा छा गया. दिनकर ने फिर कहा- 'मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद की जाए. हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहंचती है।

बतादें कि दिनकर' जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बीए किया. उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था. बीए की परीक्षा पास करने के बाद वो एक विद्यालय में अध्यापक हो गये. बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक के पद पर काम किया।

मुजफ्फरपुर के एलएस कॉलेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने. उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया. उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार और उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया. 24 अप्रैल 1974 को वो हम सबको छोड़ कर बहुत दूर चले गए.

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