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- जीतनराम की मुआफी
जीतनराम मांझी बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री हैं और आज भी विधायक व राजनेता हैं . उनका स्तर और महत्व क्या है इस पर बात नहीं करूँगा . कुछ लोगों केलिए वह महत्वपूर्ण और कुछ लोगों केलिए फालतू किस्म के हो सकते हैं . मुल्क में लोकतंत्र नहीं आया होता , आम्बेडकर की आवाज नहीं गूँजी होती तो बहुत संभव है जीतनराम इस बुढ़ापे में भी चूहे पकड़ रहे होते .
खैर , अभी विषयांतर होना नहीं चाहूंगा . उनकी मुआफी पर आना चाहूंगा . आज के अख़बार में उनकी मुआफी की खबर मुखपृष्ठ पर छपी है . किस चीज केलिए मुआफी माँगी ,इसकी कोई चर्चा नहीं है . लेकिन मैं पूरा प्रसंग बतलाना चाहूंगा . दरअसल एक सभा में जीतनरामजी का दिल बोलने लगा . संभवतः वह मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की समाजसुधार यात्रा की खबर से कुछ उत्साहित हो गए जान पड़ते थे . सोचा ,क्यों न समाजसुधार अभियान का श्रीगणेश मैं ही कर दूँ . सामने जनता दिखती है और माइक उपलब्ध होता है तब हर नेता कुछ -कुछ उत्साहित हो जाता है . जीतनराम जी को जैसे ही यह सुविधा उपलब्ध हुई उन्होंने दिल की बात रखी. कहा -दलित -पिछड़े तबकों को ब्राह्मणवादी ढकोसलों में नहीं पड़ना चाहिए . प्रसंगवश उन्होंने आधुनिक ब्राह्मणवाद का ब्यौरा दिया कि अब तो ये ब्राह्मण कथावाचक यजमान के घर भोजन नहीं करना चाहते , भोजन का नगद भुगतान चाहते हैं . अरबी जुबान में अभक्ष्य पदार्थों और अकरणीय कार्यों को हराम कहा जाता है और इसे करने वाला हरामी . जीतनराम जी ने बस यही कहा कि ये हरामी अब भोजन नहीं ,नगद चाहते हैं .
इसमें बुरा क्या है ? यही तो समाजसुधार है. दुनिया भर में समाज सुधारकों ने पुरोहितवाद के खिलाफ हल्ला बोला है . वे चाहे यूरोप के प्रोटेस्टेंट हों या भारत के बौद्ध ,ब्रह्मसमाजी या आर्यसमाजी .लेकिन मीडिया और आजकल की सोशल मीडिया में उपस्थित द्विज इसे समझने में अक्षम हैं. कबीर ने ऐसे ही लोगों केलिए कहा था - ' पांडे ,बूझ न मोर गियाना .' ये पाण्डे -ब्राह्मण मेरे ज्ञान को नहीं समझ सकते . यदि जीतनराम की बात गाली है तो कबीर ने ब्राह्मणों को जितनी गलियां दी हैं , उसे लोगों को जानना चाहिए . हालांकि उसके लिए हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी की किताब 'कबीर' पढ़नी पड़ेगी . कबीर की इन ' गालियों ' को पढ़कर ही जोतिबा फुले , रवीन्द्रनाथ टैगोर और आम्बेडकर को ज्ञान और साहस आया कि वे अपने क्रांतिकारी विचारों को रख सकें. बुद्ध जिस बात को निर्गुण जुबान में कह गए थे, कबीर ने उसे ही सगुन जुबान में कहा . फुले ,पेरियार ,आम्बेडकर जैसे लोग केवल उस परंपरा को आगे बढ़ा रहे थे . जीतनराम जैसे लोग अपने पुरखों की वाणी का विस्तार कर रहे हैं . यूँ ठगी- ब्राह्मणों को दी गई गालियों के अध्ययन का किसी को शौक है ,तो वे जोतिबा फुले को पढ़ें या फिर आर्यसमाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती को . दयानन्द अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश में हर जगह ब्राह्मणों को ढपोरशंख कहते हैं . वे समाजसुधार कर रहे थे . उनलोगों को मुआफी मांगने की नौबत नहीं आई थी . यह अलग बात है कि उनलोगों ने तकलीफें खूब झेलीं . फुले को मारने केलिए ब्राह्मणों ने गुंडे भेजे . दयानन्द को एक ब्राह्मण ने दूध में शीशा घोल कर पिलवा दिया,जिससे उनकी मौत हो गई .
लेखक प्रेमचंद पर ब्राह्मण विरोध के मुकदमे चले . कई दफा और कई ब्राह्मणों ने उनपर मुकदमे किए . लेकिन प्रेमचंद कहाँ रुकने वाले थे . लोभी ,हरामखोर यानि बिना परिश्रम के खानेवाले और दुष्टमिजाज ब्राह्मणों की पोलपट्टी खोलने में वह कभी नहीं चूके. उनके प्रसिद्ध उपन्यास ' गोदान ' का एक ब्राह्मण पात्र मातादीन एक चमार कन्या से इश्क करता है और जब वह गर्भवती हो जाती है ,तब कन्नी काटना चाहता है . गाँव के चमार मातादीन को पकड़ लेते हैं और यह कहते हुए उसके मुंह में गाय की हड्डी ढूंस देते है कि तू एक चमार कन्या को ब्राह्मणी नहीं बना सकता ,तो ला तुझे ही हम चमार बना देते हैं . 12 - 1 -1934 को पत्रकार बनारसीदास जी को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद ने जो लिखा है उसका एक अंश देखा जाना चाहिए - ' .. ब्राह्मण का मेरा आदर्श सेवा और त्याग है ,वह कोई भी हो . पाखण्ड और कट्टरता और सीधे -सादे हिन्दू समाज के अन्धविश्वास का फायदा उठाना इन पुजारियों और पंडों का धंधा है और इसीलिए उन्हें हिन्दू समाज का अभिशाप समझता हूँ और उन्हें भारत के अधःपतन केलिए उत्तरदायी समझता हूँ . वे इसी काबिल हैं कि उनका मखौल उड़ाया जाय और यही मैंने किया है . यह निर्मल और उसी के थैली के चट्टे -बट्टे दूसरे लोग ऊपर से बहुत राष्ट्रीयतावादी बनते हैं मगर उनके दिल में पुजारी वर्ग की सारी कमजोरियां भरी पडी हैं और इसीलिए वे हमलोगों को गालियां देते हैं जो स्थिति में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .'
बेचारे जीतनराम भी तो यही कर रहे हैं . लेकिन जमाना बदल गया है इसलिए उन्हें मुआफी मांगनी पडी है . वे डर गए प्रतीत होते हैं . अब तो खुद उन्हें भी सोचना होगा कि जिनके कन्धों पर बैठ कर वह पॉलिटिक्स कर रहे हैं उन्होंने बिहार की कैसी स्थिति कर दी है कि उन्हें जुबान खोलने केलिए मुआफी मांगनी पड़ रही है . इसके जिम्मेदार खुद जीतनराम भी है . वह आत्ममंथन यदि कर सकें तो अच्छा होगा . क्या जीतनराम की मुआफी राजनीतिक दबाव के कारण हुई है ? क्या उन्हें 1990 के लालू -दशक में भी ऐसी मुआफी की जरुरत पड़ती ? इन सवालों के जवाब जीतनरामजी स्वयं से पूछें .
इस प्रसंग में राजीव गांधी के ज़माने की एक बात याद आती है . बक्सर के कांग्रेसी सांसद केके तिवारी ने लोकसभा में एक सदस्य रामधन जी को चमार का बच्चा कह दिया . जब हंगामा हुआ तो तिवारी ने कहा कि मैंने गलत क्या कहा है . क्या रामधन चमार नहीं हैं ? चमार के बच्चे को हाथी का बच्चा कैसे कहूं . यदि वे चाहते हैं तो मुझे भी ब्राह्मण का बच्चा कह सकते हैं . तिवारी जानते थे कि समाज में ब्राह्मण और चमार की जो स्थिति नियत है उसमे क्या कह कर किसको अपमानित और सम्मानित किया जा सकता है . यह होती है बुद्धिमता . यह कोई गाली नहीं हुई . तिवारी ने मेरे जानते कोई मुआफी नहीं माँगी . मीडिया ने कोई हंगामा नहीं बरपाया . बात आई -गई हो गई .
सोशल मीडिया पर पांडे ,त्रिवेदी -चतुर्वेदियों के गाली- गलौच देख कर मैं केवल क्षुब्ध हो रहा हूँ . उनके नफरत का संचित गुबार फूट पड़ा है . हमारे नागरिक समाज में अभिव्यक्ति और विवेक की जगह लगातार संक्षिप्त होती जा रही है . हम एक जाहिलिया ज़माने की तरफ समृद्ध गति से बढ़ रहे हैं . जिस पटना और काशी में कभी बुद्ध और कबीर ने धार्मिक पाखंडों की पोलपट्टी खोली थी ,वही आज जीतनराम को मुआफी क्यों मांगनी पड़ रही है ? दरअसल यह हमारे सामाजिक पतन का परिचायक है . जो गलत है उसे गलत कहना पड़ेगा . जीतनराम ने ब्राह्मणवादी पाखंड पर हल्ला बोल कर स्वागत योग्य काम किया है . हालांकि यह सब को मालूम है कि वह परउपदेशी ही अधिक हैं . अपने व्यक्तिगत जीवन में वह भी उन्ही पाखंडियों से घिरे रहते हैं . अन्यथा भाजपा की राजनीतिक जमात में वह क्या कर रहे हैं ?
दलित -पिछड़े तबके के लोग अपने मित्रों और शत्रुओं को पहचानने लगे हैं . वह किसी जाति विशेष के विरोधी नहीं हैं . कुसंस्कारों और कुप्रवृत्तियों के विरोधी हैं . जवाहरलाल नेहरू कहते थे कि दो तरह के अंग्रेज हिंदुस्तान आए . एक तो वे जिन्होंने यूरोप का ज्ञान -विज्ञान ,लोकतान्त्रिक विचार और आधुनिक साहित्य लाया . दूसरे वे जिन्होंने भारत को गुलामी दी और यहाँ की जनता का दमन किया . हम पहले तबके के अंग्रेजों का स्वागत करेंगे ,लेकिन दूसरे तबके के अंग्रेजों को कभी नहीं बर्दास्त करेंगे . ब्राह्मणों के भी दो तबके हैं . रवीन्द्रनाथ टैगोर , जवाहरलाल नेहरू , राहुल सांकृत्यायन और डीडी कोसंबी जैसे लोग भी ब्राह्मण थे . वे हमारे कंठहार हैं ,उनसे हम सीखते हैं . वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं . लेकिन पाण्डे -पुरोहितों को कोई कैसे बर्दास्त कर सकता है . उनके लिए तो कठोर से कठोर शब्दों का प्रयोग करना ही होगा .
Bilakshan Ravidas की वाल से