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लखबीर सिंह हत्याकांड: जनरल डायर का जट्ट सिख पगड़ी पहनाकर स्वागत किया था
मज़दूर को मारने वाले निहंग का स्वागत करते सिख लोग | जनरल डायर को जट्ट सिख पगड़ी पहनाकर स्वागत किया था |
धर्म के नाम पर दलित का चूतिया सब काटते है | इंदिरा गाँधी को मारने वाला एक चमार और मज़हबी सिख था | बताओ दलितों को क्या मिला ? 1984 के दंगो में दलित ही सबसे ज्यादा मरे | दलित जितनी जल्दी सिख धर्म से बाहार निकलेगा और पहनावा सिखो से अलग रखेगा | उसका भला होगा | वैसे भी दलित सभी डेरो में है जो सिख धर्म से बाहर होता है लेकिन अपने संख्या बढ़ाने के लिए सिख उनको अपने में जोड़ते है |
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पंजाब विश्वविद्यालय में प्रोफेसर गुरनाम सिंह जी के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध 1918 में भाग लेने के बाद 1919 में जो सिख सकुशल बच आये थे वे गुरु का शुक्रिया अदा करने दरबार साहब अमृतसर गये थे मगर अछूत, दलित सिखों को स्वर्ण मंदिर में प्रवेश नहीं दिया गया। उनको न केवल जातिवाद के चलते अंदर जाने नही दिया गया, बल्कि उन का अपमान भी किया गया, उन को गालियां दी गई।
इन सब बातों का विरोध करने के लिये सभी दलित ईकठ्ठा हुए, जालियाँवाला बाग में उन की मीटिंग रखी गई क्योंकि दोनों ही स्थान आमने सामने हैं इसलिए वही उचित स्थान चुना गया था। उस सभा में जो गोलियां चली वो जनरल जत्थेदार अरुर सिंह के कहने पर जनरल डायर ने चलवाई थी, जो कि उन दिनों स्वर्णमंदिर का मैनेजर था। उसी ने इस पटकथा को लिखा और फिर बाद में अंग्रेज बनाम भारतीय में बदला था।
जब गोली चली अफरातफरी मची और हजारों लोग मारे गये तब बाकि सिखों ने जनरल डायर को दरबार साहब ले जाया गया वहां जा कर जनरल डायर का सम्मान किया गया उस को सरोपा (Robe of Honour) दिया गया। इतना ही नहीं ये बात जगदेव सिंह जस्सोवाल (Former Congress MLA, Died Dec. 2014) ने पार्लियामेंट में एक डिबेट में भी नोट करवाई हुई है। इतनी बड़ी इन्फर्मेशन लोगों को पता नहीं है।
जालियाँवाला बाग हत्याकांड अछूत सिख लोगों पर हुआ था और उन पर गोली ऊँची जाति के सिख लोगों के कहने पर चलाई गई और उस की रुपरेखा बदल दी गई। अब ऐसा क्यों किया गया पहले वह समझें। ब्रिटिश सेना में ज्यादात्तर सिपाही निम्न वर्ग के ही थे। चमार रेजिमेंट और विश्व युद्ध मे लड़े इन लड़ाकुओं ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा ही लिया था। इसलिए इस पटकथा को बदलना जरूरी था।
ऐसे में यदि यह बात सार्वजनिक हो जाती कि यह लड़ाई ऊंची जाति बनाम निम्न जाति है तो भारतीय ऊंची जातियों को इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता। साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई भी कमजोर पड़ जाती। इसलिए इस लड़ाई को भारतीय बनाम अंग्रेज बनाया गया और जनरल डायर को सीधे इंग्लैंड भेजा गया। यही आज हो गया इस आंदोलन को किसान बनाम गरीब बनाया गया जबकि यह जाति का मामला है।
जलियांवाला बाग के समय भी निम्न तबकों में अंग्रेजों के खिलाफ रोष पैदा हो गया और असली अपराधी बच निकले। हमारे देश के तथ्यों को जितना जातिवादी लोगों ने तोड़-मरोड़ कर पेश किया है शायद ही दुनियां के किसी और देश में किया गया हो। दरसल यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत किया गया। आज भी देख लीजिए एक हत्यारे को वही सिरोपा पहनाया गया, सम्मानित किया गया और अफसोस की तो कोई बात ही नहीं। इस कट्टरतावाद को इतिहास से भी समझें।
बाहर फैलाया गया कि जलियांवाला बाग में देशभक्तों की देश की आजादी के लिए मीटिंग हो रही थी दरअसल वहां पर देशभक्तों की तो ठीक है *पर स्वर्ण-मंदिर से जलील किए गए "अछूतों की मीटिंग"* हो रही थी जो अपने उच्च जातिय भेदभाव के मुद्दों पर विचार करने के लिए इकट्ठे हुए थे। उस तथ्य को आजतक दरकिनार किया गया लेकिन शायद अब लोग ठीक से समझ सकेंगे? सोचिये! जालियांवाला हत्याकांड के मुजरिम जनरल ड़ायर को स्वघोषित उच्च जाति के बड़े-बड़े महान क्रांतिकारीयों ने क्यों नहीं मारा?
यदि यह भारतीय बनाम अंग्रेज ही होता तो कोई नेता, संगठन बड़ा क्रांतिकारी उसकी अगुवाई कर रहा होता? उसका नाम आपको क्यों नहीं पता? जब जलियांवाला बाग नरसंहार के बदले की बात आई तब भी एक दलित व्यक्ति सरदार उधमसिंह ने ही उसे लंदन में घुसकर मारा क्यों? इसलिए दलितों को सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि उनका कोई धर्म, ईश्वर, पंथ, पहचान नहीं है पर उनके दम पर सबने अपने उल्लू सीधे किये लेकिन उनको कुछ हासिल न हो सका।
- लोकनाथ कुमार की फेसबुक वॉल से